बहता-बहता मेघखंड जो
पहुंच गया है वहां क्षितिज तक...
लौटा लाएं उसे,
कहें .....
'ओ, फिर से बहो!
मंद, मंथर, मृदु गति से...
शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत!
जो कथा कही थी, फिर से कहो!'
और...
अपलक, अविचल
हम उसे निरखते रहें, सुनें!
आओ, हम फिर से जिएं!
-अजित कुमार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-08-2016) को "घर में बन्दर छोड़ चले" (चर्चा अंक-2422) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर ।
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/08/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
बहुत सुन्दर,,, . आखिर में जहाँ से चले वही आना होता है ...
ReplyDeleteBadhiya...
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