देखा? रात्रि-तिमिर का भूत
कृशकाय, कंकाल, कुरूप;
चिता की अग्नि से उठा सा
अग्निबेताल, अघोर, अवधूत.
प्रश्न पर तुम बने थे निःशब्द,
वह समझा विछोह ही प्रारब्ध;
हुआ ऐसा विचलित, विक्षिप्त,
जीवन कर लिया व्यर्थ, विद्रूप.
अब उसे देख काँपते अप्रयास
बढ़ा देते हो कदम अनायास;
ज्यूँ तम मेँ सामने आ जाये
महिषवाहन मारक कालदूत.
उसका प्रश्न था मात्र त्रिशब्द
शाश्वत, दिग-काल असम्बद्ध;
गूंजेगा, जब तक अनुत्तरित
जिज्ञासा न होगी तिरोभूत.
-महेश चंद्र द्विवेदी
ज्ञान प्रसार संस्थान
1/137, विवेक खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ
सुन्दर ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-08-2016) को "क्या सच में गाँव बदल रहे हैं?" (चर्चा अंक-2437) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'