जो मैंने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।
उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं जिसे
मैंने तुमसे छिपाया है।
उस द्वार से गुजरो
जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नहीं
जिसकी गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है।
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूं, बुनूंगा;
वे कांटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूं, चुनूंगा।
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूं, बनाता रहूंगा;
मैं जो रोड़ा हूं, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूं, करीने से
संवारता-सजाता हूं, सजाता रहूंगा।
सागर किनारे तक
तुम्हें पहुंचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो;
फिर वहां जो लहर हो, तारा हो,
सोन-परी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।
-अज्ञेय की प्रेम कविता
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
(7 मार्च, 1911- 4 अप्रैल, 1987)
अज्ञेय की सुन्दर प्रेम कविता प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
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