Friday, August 24, 2018

पार्श स्वर...पूजा प्रियंवदा


वहाँ कहीं बहुत दूर 
उसका मुश्किल नाम वाला 
जर्मन गाँव रहता है

मैं अक्सर बैठी मिलती हूँ 
उस तालाब के किनारे 
जो जाड़ों में 
बर्फ हो जाता है
और याद करती हूँ 
दिल्ली की धूप

मेरी भाषा नहीं जानते उसके लोग 
मेरा भूरा रंग 
उनके लिए अनमना है 
जैसे किसी तस्कर ने 
हिंदुस्तानी इतिहास की रेत 
की एक मुट्ठी 
चुपचाप बिखेर दी 
उनके श्वेत किनारों पर

कहानियाँ रंग बिरंगे धागों जैसी 
देखो तो बस उलझी हैं 
समझो तो जैसे कोई 
नक्श उभरने वाला है

गाँठें बांधती तो हैं 
दो सिरे 
लेकिन याद के रेश्मी धागे 
कब खींच ले 
गिरह खोलकर सारी 
कौन जाने

यहीं कहीं 
बर्फ में ढका 
कब्रिस्तान इनका 
न जाने कौन सी भाषा में 
लिखें ये मेरा नाम 
मेरी कब्र पर !
-पूजा प्रियंवदा

9 comments:

  1. कहानियाँ रंग बिरंगे धागों जैसी
    देखो तो बस उलझी हैं
    समझो तो जैसे कोई
    नक्श उभरने वाला है

    लाज़वाब

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-08-2018) को "जीवन अनमोल" (चर्चा अंक-3074) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुन्दर रचना 👏👏👏

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  4. सुन्दर प्रस्तुति

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  5. मातृभूमि से दूर रहने वालों का दर्द उकेरती हृदयस्पर्शी रचना ।

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