बाँटी हो जिसने तीरगी उसकी है बन्दगी।
हर रोज नयी बात सिखाती है ज़िन्दगी।।
क्या फ़र्क रहनुमा और क़ातिल में है यारो।
हो सामने दोनों तो लजाती है ज़िन्दगी।।
लो छिन गए खिलौने बचपन भी लुट गया।
यों बोझ किताबों की दबाती है ज़िन्दगी।।
है वोट अपनी लाठी क्यों भैंस है उनकी।
क्या चाल सियासत की पढ़ाती है ज़िन्दगी।।
गिनती में सिमटी औरत पर होश है किसे।
महिला दिवस मना के बढ़ाती है ज़िन्दगी।।
किरदार चौथे खम्भे का हाथी के दाँत सा।
क्यों असलियत छुपा के दिखाती है ज़िन्दगी।।
देखो सुमन की ख़ुदकुशी टूटा जो डाल से।
रंगीनियाँ काग़ज़ की सजाती है ज़िन्दगी।।
-श्यामल सुमन
बहुत उम्दा गजल।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-08-2018) को "धोखा अपने साथ न कर" (चर्चा अंक-3054) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर ग़ज़ल
ReplyDeleteबेहतरीन
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