Tuesday, August 21, 2018

आँखें....दिव्या माथुर

लो आसमान सी फैल उठीं नीली आँखें
लो उमड़ पड़ीं सागर सी वे भीगी आँखें

मेघश्याम सी घनी घनी कारी आँखें
मधुशाला सी भरी भरी भारी आँखें

एक भरे पैमाने सी छलकीं आँखें 
दिल मानो थम गया किंतु धड़कीं आँखें

ओस में डूबी झील सरीखी नम आँखें
जग का समेटे बैठी हैं ये ग़म आँखें

आँसू का पी एक घूँट, दीं मुस्का आँखें
ये इलाज कई मर्ज़ों का नुस्खा आँखें

शब भर पढ़ती रहीं किसी के ख़त आँखें
धंस बेज़ारी से गालों में गईं झट आँखें

ठिठक गईं जीवन का लगा ग्रहण आँखें
पलक हुआ मन और बनी धड़कन आँखें

जहाँ का दर्द समेटे थीं बोझिल आँखें
दूज के चाँद सी सिमट हुईं ओझल आँखें।
-दिव्या माथुर

7 comments:

  1. शब भर पढ़ती रहीं किसी के ख़त आँखें
    धंस बेज़ारी से गालों में गईं झट आँखें
    .
    आँखें... बहुत ही बेहतरीन रचना आदरणीया... वाह👌👌👌👏👏👏

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  2. वाह!!! लाजवाब ...👌👌👌

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-08-2018) को "नेता बन जाओगे प्यारे" (चर्चा अंक-3071) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. वाह ...
    आँखों का सुंदर प्रयोग ... हर पंक्ति अपने आप में बहुत कुछ कहती है ...

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  5. @जहाँ का दर्द समेटे थीं बोझिल आँखें........उम्दा रचना

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  6. सुन्दर रचना

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