Sunday, June 21, 2015

.....चलो प्यार बोएं...कविता विकास

















इक-दूजे के विश्वास बोएं
चलो, कुछ प्यार बोएं

नफरत नें सरहदें बांटी
दरक रही रिश्तों का घाटी
खिड़कियों से अपने झांकते
पराए जब ज़नाज़ा उठाते

मायूस हो क्यों हम रोएं
चलो, कुछ प्यार बोएं

कुछ स्मृतियां अभी है शेष
मज़हबों नहीं था द्वेष
मन से मन का तार मिलाते
लगकर गले से गम भुलाते

दिन सुनहरे हम क्यों खोएं
चलो, कुछ प्यार बोएं

नस्लें हमारी बदल गई
मौजें मातम में ढल गईं
रस्मो-रिवाज़ सब खटक रहे
निरुद्देश्य हम भटक रहे

सब मिल मन का मैल धोएं
चलो, कुछ प्यार बोएं

-कविता विकास

आज....
तबियत भी ठीक है
मन में शान्ति  है
घर में एकान्त भी है
काफी दिनों से अलगाव की
आग में जल भी रही थी...
और आज फिर मन हो आया
सो उसी का प्रतिफल आपको
सादर समर्पित....
कविता विकास की एक कविता...

सादर....
यशोदा दिग्विजय अग्रवाल




4 comments:

  1. बहुत ही बढियाँ ,प्यार से बढ़कर कुछ भी नहीं

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22-06-2015) को "पितृ-दिवस पर पिता को नमन" {चर्चा - 2014} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवस की के साथ-साथ पितृदिवस की भी हार्दिक शुभकामनाएँ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. अच्छा लगा । कुछ लोग खो गये जैसे लग रहे थे ।

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  4. sda tandrust aur khush raho . Ab gum na ho jana bina bataye , apni dharoher sambhal lo.aur pyar se seencho apni bagiya ko , ., Yashida ji

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