झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलायी
खेतों पर अन्हियारी छाई
पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई
टीलों पर,तालों पर
इक्के-दुक्के अपने घर जाने वालों पर
धीरे-धीरे उतरी शाम।
आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जमुहाई ले ले कर उजियाली,
जा बैठी ताखों मे
घर भर के बच्चों की आँखों में
धीरे-धीरे उतरी शाम।
इस अधकच्चे सो घर के आँगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे, खट्टे मीठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब झुककर मेरे सिरहाने-
कहती है
"भटको बेबात कहीं।
लौटोगे हर यात्रा के बाद यहीं।"
धीरे-धीरे उतरी शाम
-धर्मवीर भारती
......नायिका से
सर्वप्रथम नमस्ते स्विकारें... काफी समय बाद आप की धरोहर पर आ सका...
ReplyDeleteसुंदर रचना।
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteपढ्वाने के लिये आभार
ब्लॉग बुलेटिन की १००० वीं बुलेटिन, एक ज़ीरो, ज़ीरो ऐण्ड ज़ीरो - १००० वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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