सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूं
न डस लेना चाहता हूं
तुम्हारे कदमों की उड़ान को
चूड़ियों की जंजीर में
नहीं जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाइयों की लय
न मंगल-सूत्र बन
झुका देना चाहता हूं
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिरा बंधा रहे
घर के खूंटे से
किसी वचन की बर्फ में
नहीं सोखना चाहता
तुम्हारी देह का ताप
बस आँखों से बीजना चाहता हूं विश्वाश
और दाखिल हो जाना चाहता हूँ
खामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आँखों में दाखिल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाखिल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाखिल हो जाती है बेचैनी
और फिर
झिमिलाती रहती है उम्र भर
~अशोक कुमार पाण्डेय
युवा कवि, लेखक, समीक्षक व समालोचक
....नायिका से
सुन्दर
ReplyDeleteitni khubsurat linon ko kitne kah paate hain....kitne apnaa pate hain....aur kitne bo paate hain aisa vishwas...ashcharya to is baat ka hai ki ise bina boye hi fasal sab katne ko tayyar rahte hain
ReplyDeleteबहुत ही उत्तम विचार है आपके
ReplyDeleteसाथ साथ ही व्यंग का आपका ही तरीका
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह