क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है
समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
-जोश मलीहाबादी
राह-ए-दहर - जीवन की राह
हक़ाइक़-आश्ना - सच्चाई को चाहने वाला
हुजूम-ए-कशमकश - मु्श्किलों की भीड़
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत - समझदारी के उलट
तहय्युर - बदलाव
ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता - खुशनुमा गुज़रे वक्त का ख्याल
म'अल-ए-गुल - नतीज़ा
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है
समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
-जोश मलीहाबादी
राह-ए-दहर - जीवन की राह
हक़ाइक़-आश्ना - सच्चाई को चाहने वाला
हुजूम-ए-कशमकश - मु्श्किलों की भीड़
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत - समझदारी के उलट
तहय्युर - बदलाव
ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता - खुशनुमा गुज़रे वक्त का ख्याल
म'अल-ए-गुल - नतीज़ा
......मधुरिमा से
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहकाईक -आश्ना हुज़ूमें-ए- कशमकश को मोड़ आते हैं
ReplyDeleteख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता अपनी निशानी छोड़ आते है
अज़ीज़ जौनपुरी
जोश साहब की सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए आभार! आदरणीया !यशोदा जी!
ReplyDeleteधरती की गोद
ReplyDeleteआके शब-ब-ख़ैर सुब्हे दम अपनी निशानी छोड़ के..,
रोज़ो सब्ज़े-बख़्त ये समंदर क्यूँ सब्जे -पा ही जाता है.....
बहुत सुन्दर गजल
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