मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ
हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाजुओं में इसके-उसके पर रखूँ
आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ
ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ
खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ
कुँअर बेचैन

खेल भी चलता रहे
ReplyDeleteऔर
बात भी होती रहे
शानदार
सादर
वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी पूरी रचना में एक जज़्बा है, जहाँ मौत का डर नहीं, बल्कि ज़िंदगी को सच्चाई से जीने की ललक है। आख़िरी शेर में जो सहज संवाद की बात है, वो ग़ज़ल को और भी खूबसूरत बना देता है। शब्द इतने सधे हुए हैं कि हर मिसरा सोचने पर मजबूर करता है।
ReplyDelete