Friday, September 21, 2018

तृष्णा...वन्दना सिंह


अकेलेपन की मुझको आदत नही
पर अकेले रहना बन गई है फितरत मेरी

भीड़ से बचने का चाहत नहीं
पर तन्हाइयाँ मुझको भाने लगी है

रिश्तों की ज़िन्दगी में कमी नहीं
पर सबका प्यार मेरे नसीब में नहीं

ख़ुशियाँ तो बहुत मिली ज़िन्दगी में
पर गम भी मुझसे ज़ुदा नहीं


हर ख़्वाहिश को मंजिल मिली
पर अधूरी तमन्नाओँ की कमी नहीं

पूरी हुई है हर ख़्वाहिश
पर मन की तृष्णा बुझी नहीं

ज़िन्दगी में दोस्त तो अनगिनत मिले
पर नकाबपोश़ दुश़्मनों की कमी नहीं

लुभाती है ज़िन्दगी की रंगीनियाँ
पर श्वेत-श्याम बन गई है मेरी संगिनियाँ

हसींन लगती है सपनों की दुनिया
पर मेरी दुनियावालोंं का अपना एक जहां है

रास्ते की मुश्किलों को पारकर खुश होता है मन मेरा
पर दुविधाओँ से बचने को जी चाहता है मेरा
-वन्दना सिंह 

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