Thursday, August 20, 2015

वो पल भर की नाराजगियाँ................अज्ञात शायर


मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

मैं गुजरे पल को सोचूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

अब जाने कौन सी नगरी में,
आबाद हैं जाकर मुद्दत से.

मैं देर रात तक जागूँ तो ,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

कुछ बातें थीं फूलों जैसी,
कुछ लहजे खुशबू जैसे थे,

मैं शहर-ए-चमन में टहलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं.

वो पल भर की नाराजगियाँ,
और मान भी जाना पलभर में,

अब खुद से भी रूठूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।

-अज्ञात शायर

Tuesday, August 18, 2015


मैं सतत् अपने स्वभाव से जलता हूँ,

ना तुम्हारे कम होने से कम होता हूँ,

ना तुम्हारे बढ़ने से बढ़ता हूँ,

मेरी बात क्यों नहीं मानते...?

मैं सच कह रहा हूँ ऐ अंधकार!

मैं सतत् अपने स्वभाव से जलता हूँ...।

- स्वप्नेश चौहान

Sunday, August 16, 2015

लोग भी कमाल करते हैं…यशोदा












यूं तो
बेरंग हैं पानी 
फिर भी जिन्दगी 
कहलाती हैं,

ढेर सारे रंग हैं 
शराब के फिर भी 
गन्दगी कहलाती हैं।।

लोग भी कमाल करते हैं…

जिन्दगी के गम 
भुलाने के लिये, 
गन्दगी में जिन्दगी 
मिलाकर पीते हैं…

- मन की उपज

Sunday, August 9, 2015

जो राज़ का आलम था वही राज़ का आलम.....ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'




1914 - 1993

सर ता ब क़दम एक हसीं राज़ का आलम
अल्लाह रे इक फ़ित्ना-गर-ए-नाज़ का आलम

 ज़ुल्फ़ों में वो बरसात की रातों की जवानी
 आरिज़ पे वो अनवार-ए-सहर-साज़ का आलम

 उनवान-ए-सुख़न ‘ग़ालिब’ ओ ‘मोमिन’ का तग़ज़्ज़ुल
 अंदाज़-ए-नज़र बादा-ए-शीराज़ का आलम

 दुज़-दीदा निगाहों में इक इल्हाम की दुनिया
 नाज़ुक से तबस्सुम में इक एजाज़ का आलम

उलझे हुए जुमलों में शरारत भी हया भी
जज़्बात में डूबा हुआ आवाज़ का आलम

इस सादगी-ए-हुस्न में किस दर्जा कशिश है
हर नाज़ में इक जज़्बा-ए-ग़म्माज़ का आलम

 उस सैद को क्या कहिए जो ख़ुद आए तह-ए-दाम
 दिल में लिए इक हसरत-ए-परवाज़ का आलम

 यूँ तो न तसाहुल न तग़ाफ़ुल न तजाहुल
 कुछ और है उस काफ़िर-ए-तन्नाज़ का आलम

 शोख़ी में शरारत में मतानत में हया में
 जो राज़ का आलम था वही राज़ का आलम

-ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

1914 - 1993
जन्म स्थान : फ़रूखाबाद, उत्तरप्रदेश

सौजन्य 

Tuesday, August 4, 2015

आसमाँ में घटा दो तरह की है............फ़े सीन एजाज़



क़ानून से हमारी वफ़ा दो तरह की है
इंसाफ दो तरह का, सज़ा दो तरह की है

एक छत पे तेज़ धूप है, एक छत पे बारिशें
क्या कहिये आसमाँ में घटा दो तरह की है

किस रुख से तुम को चाहें भला किस पे मर मिटें
सूरत तुम्हारी जलवानुमा दो तरह की है

काँटों को आब देती है फूलों के साथ साथ
अपने लिए तो बाद-ए-सबा दो तरह की है

खुश एक को करे है, करे है एक को नाखुश
महबूब एक ही है, अदा दो तरह की है

ऐसा करें कि आप कहीं और जा बसें
इस शहर में तो आब-ओ-हवा दो तरह की है

- फ़े सीन एजाज़ 

मूल रचना उर्दू व रोमन अंग्रेजी मे पढ़ने के लिए पधारें

Friday, July 31, 2015

कड़वी तीरगी पसरी हुई है............नवनीत शर्मा



तुम्‍हें लगता है कड़वी तीरगी पसरी हुई है
ज़रा सी आंख खोलो, रोशनी फैली हुर्इ है

किसी आवाज़ से मिलती नहीं आवाज़ वैसी
वो इक आवाज़ मुझमें जो कहीं खोई हुई है

पता दोनों को है इतना मिले तो डूबना है
उफ़क़ के साथ फिर भी शाम तो लिपटी हुई है

तो साहब ये समझिये साथ ही है, साथ चलना
अलग पटरी से वैसे कब भला पटरी हुई है

हक़ीक़त ने यहां हमला किया है किस बला का
हमारे खा़ब की बस्‍ती बहुत उजड़ी हुई है

यही चाहा था वो जो चांद है कुछ पास आए
मगर मंज़ूर अपनी कब कोई अर्ज़ी हुई है

पहाड़ों से चली थी जब तो थी शफ़्फ़ाफ़ कितनी
तो किसके ग़म में आख़िर अब नदी काली हुई है

टमाटर, प्‍याज़, दालें, तेल, चीनी सब में तेज़ी
मगर क्यों ज़िन्दगी पहले से भी सस्‍ती हुई है

मुझे तो लग रहा है हाथ पीले हो गए हैं
कि खोकर ताज़गी ये धूप कुछ पीली हुई है

उठो ‘नवनीत’ फिर से दर्द का ही आसरा लें
तुम्हारे हाथ ख़ाली हैं ग़ज़ल रूठी हुई है

-नवनीत शर्मा 
09418040160


Wednesday, July 29, 2015

आप भी ऐसा कर सकते हैं...संकलन याहू ग्रुप से

आप भी ऐसा कर सकते हैं...
बस आवश्यकता है
धैर्य की
एकाग्रता की

Intricate Sculptures Carved from a Single Pencil

















सोनू विशाल