हृदय द्वार बंद हों खोलो,
प्रेम सरोवर दुबकी ले लो।
घिरे प्रलय की घोर घटाएं,
शान्ति दीप निज धरा सजा दो।
लोकहित में हठता हृद छोडो,
बदले समाज निजता तोड़ो।
चादर मैली शुद्धिकरण करा लो,
दुनिया बदली खुद भी बदलो।
भरा पिटारा सौगातों का,
बंद अमृतघट 'मंगल' खोलो।
सडांध से भरा जो कुनबा,
सरयू में आ कर मुख धो लो।।
-सुखमंगल सिंह
Nice
ReplyDeleteआभार !Meena Bhardwaj ji
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteसुशील कुमार जोशी जी हृदय से आभार
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-03-2017) को
ReplyDelete"दो गज जमीन है, सुकून से जाने के लिये" (चर्चा अंक-2607)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर अभिनंदन शास्त्री जी
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteOnkar ji धन्यवाद !
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसु-मन सुमन कपूर जी आभार
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