Wednesday, January 4, 2012

आधुनिका...............सिद्धार्थ सिन्हा


अमीरों की फेहरिश्त में,

मैंने सुना

आती हैं वो,

मैं सोचकर यह स्तब्ध हुआ,

इतना पैसा-

करती हैं क्या?

मैं मानता था - मजबूरी है,

कंगाली का आलम है,

सो , सर पर बालों का झूरमूट है,

पैरों में अनगढे चप्पल हैं,

कपडों का ऎसा सूखा है

कि

कतरनों को जोड़-जोड़

बड़ी मुश्किल स बदन छुपाती हैं वो।



अब जाना हूँ

स्टाईल है यह,

कई कारीगरों की मेहनत है,

बड़ी बारीकी से बिगाड़ा है।

कितनी मेहनत है-- महसूस करो,

इस शक्ति का आभास करो,

आभार लेप के भार का है,

जिसकॊ सह कर हीं रैन-दिवस

यूँ हर पल मुस्काती हैं वो।



अब अपनी हीं मति पर रोता हूँ,

इस तथ्य से क्यों बेगाना था,

वे देवी हैं-- आधुनिक देवी,

घर-घर में पूजी जाती हैं,

उनका निर्धारण,रहन-सहन

मुझ गंवार के बूते का हीं नहीं,

गाँव का एक अभागा हूँ,

खुद जैसे कितनों को मैंने

कितने घरों की इज्जत को

चिथड़ों में लिपटा पाया है,

पैसों की किल्लत को मैंने

नजदीक से है महसूस किया।

अब क्या जानूँ दुनिया उनकी

मेरी दुनिया जैसी हीं नहीं।



चलो यथार्थ में फ़िर से जीता हूँ,

मस्तिष्क में उनके हित उभरी,

जो भी कल्पित आकृति है-

शायद मेरी हीं गलती है,

इस कलियुग में अमीरों की

ऎसी हीं तो संस्कृति है।

चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,

पर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,

कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,

नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,

अमीरी के इस आलम में ,

बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।

------------सिद्धार्थ सिन्हा

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