मन परिंदा है
रूठता है
उड़ता है
उड़ता चला जाता है
दूर..कहीं दूर
फिर रूकता है
ठहरता है, सोचता है, आकुल हो उठता है
नहीं मानता
और लौट आता है
फिर...
फिर उसी शाख पर
जिस पर विश्वास के तिनकों से बुना
हमारा घरौंदा है
मन परिंदा है
लौट-लौट कर आएगा तुम्हारे पास
तुम्हारे लिए...क्योंकि मन जिंदा है!
-स्मृति आदित्य
सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.09.2015) को "सिर्फ कथनी ही नही, करनी भी "(चर्चा अंक-2095) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत सार्थक और सु्दर बिंब-विधान - भाव की मनोहरता के अनुरूप .
ReplyDeleteधन्यवाद
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