Monday, October 10, 2022

तुम्बी भर के लाना ...गोविन्द सेन


( यह रचना मैं कल ही दैनिक भास्कर के रसरंग में पढ़ी)

मैं सुरेन्द्र के साथ बस स्टैंड पर खड़ा था l कस्बा हमारे लिए नया था l किसी ने बताया था कि सुबह हमें यहाँ से वांछित कस्बे के लिए बस मिल जाएगी l हम दोनों को उस कस्बे तक साथ जाना था  l वहाँ से मुझे घर के लिए एक अलग बस पकड़नी थी और उन्हें अलग l

कस्बे का नाम देख बस पर चढ़ गए l भीतर सरसरी नजर डाली l दो सीटें एक साथ खाली नहीं थीं l हमें साथ ही बैठना था l ड्राइवर के कैबिन में बोनट के बगल की लंबी सीट खाली थी l हम वहीं बैठ गए l
बस ने कस्बे से बाहर होकर रफ़्तार पकड़ ली थी l खिड़कियों से सुहानी हवा आ रही थीl आधी रात तक काव्य गोष्ठी चलती रही थी l हमारी नींद पूरी नहीं हो पायी थी पर हम खुश  थे l महीनों बाद किसी काव्य-गोष्ठी में कविताएँ पढ़ने का अवसर मिला था l मान-सम्मान मिला सो अलग l हमारे झोलों में डायरी, शाल, नारियल और स्मृति चिन्ह रखे हुए थे l हमने झोलों को गोद में रख लिया था l
काव्य गोष्ठी का मुख्य विषय देशप्रेम ही रहा था l शायद आयोजक की मंशा भी यही थीl उन्होंने अपने दिवंगत पिता की स्मृति में यह गोष्ठी रखी थी l आसपास के कस्बों से कवियों को गोष्ठी में बुलाया था l उनके पिता ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था l वे ‘बेकस’ उपनाम से देशप्रेम की कविताएँ भी लिखा करते थे l
“जावेद तन्हा ने बढ़िया ग़ज़ल पढ़ी थी l ‘वतन पर जो हुए कुरबां, उन्हें हम कैसे भूलेंगे’- आवाज और अंदाज दोनों उम्दा थे l” सुरेन्द्र जी मुझसे कह रहे थे l इस तरह हम एक-एक कवि को उनकी कविता के साथ याद करते जा रहे थे l गोष्ठी में लगभग सभी ने देशप्रेम से जुड़ी  कविताएँ पढ़ी थीं l कुछ ने गाकर भी सुनाया था l एक कवि ने माँ पर कविता प्रस्तुत की थी l कवियों और कविताओं पर हमारी चर्चा चल रही थी l
तभी हमें लगा कि ड्राइवर हमारी बातों में दिलचस्पी ले रहा है l उसकी निगाह भले ही सड़क पर थी किन्तु कान हमारी ओर लगे हुए थे l वह कनखियों से हमें देख भी रहा थाl उसने मुस्कुराते हुए कहा – ‘आप शायद कवि हैं ?’ सुरेन्द्र जी ने जवाब दिया- “शायद क्या ! कवि ही हैं l ठीक पहचाना आपने l” उसकी उत्सुकता हमें अच्छी लगी l शंका भी उठी कि कहीं ये हमें मंच का कवि न समझ ले l कुछ सुनाने की गुजारिश न कर दे l
“कवियों और शायरों के दिल में दर्द होता है साहब l उसी दर्द से उनकी कलम चलती है l अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं-‘दर्द को दिल में जगह दो अकबर, इल्म से शायरी नहीं होती l’ मैं ठीक हूँ न साहब l” हमने हामी भरी l उसने आगे कहा- “सुमित्रानंदन पंत ने भी तो लिखा था-वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान l निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान l”
“अरे, लगता है आपको तो कविता और शायरी में बहुत दिलचस्पी है l” हमें उसे सुनकर अचरज हुआ l
“हाँ,मुझे शुरू से ही शौक है साहब l”
फिर तो चर्चा के दौरान उसने कई नायाब शेर और कविताएँ सुना डाली l कई ज्ञात-अज्ञात शायरों और कवियों के नाम उसे मालूम थे l स्टेयरिंग हाथ में था l नजरें सड़क पर थीं और जबान पर कविताएँ और शेर l हम हैरत में थे कि वह ड्राइवर है कि कोई अदीब-शायर  l इतनी कविताएँ और शेर इसे जबानी याद कैसे हैं ! उच्चारण एकदम शुद्धl यूँ तो लोग साहित्य में रुचि कम ही रखते हैं l
वह पचास के आसपास का आदमी था l शरीर से एकदम फिट l हँसमुख चेहरा l लगता था जो वह बोल रहा है उसे बस सुनते ही जाएँ l कहीं नोट कर के रख लें l सुरेन्द्र जी का पता नहीं लेकिन मुझे खुद पर शर्म आ रही थी l मैं खूब कवि बनता हूँ लेकिन कितनी ग़ज़लें और कविताएँ मुझे जुबानी याद हैं ! दूसरों की तो छोड़ो, खुद की कविताएँ ही याद नहीं रहतीं l
इस बीच कई पेड़, नाले और पहाड़ गुजर गए l एक कस्बे से गुजर रहे थे कि सामने से अर्थी आ रही थी l उसने कुछ देर के लिए बस को साइड में कर लिया l जब अर्थी गुजर गई तो बरबस उसके मुँह से निकला-“लाई हयात आए कज़ा ले चली चले, अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले l”  बाद में उसने बताया कि हयात माने ज़िंदगी और कज़ा माने मौत l
“लगता है बात कुछ संजीदा होती जा रही है साहब l” कुछ अंतराल के बाद वह बोला l
“अच्छा साहब, एक पहेली तो बूझो l”
हमारी डोर अब उसके हाथ में थी l उसकी बातें बहुत दिलचस्प लग रही थीं l अब वह ड्राइवर नहीं अपनी ही साहित्य-बिरादरी का कोई संवेदनशील बंदा लगने लगा था l
“सुनो साहब-‘चेला तुम्बी भर के लाना, तेरे गुरु ने मंगाई l एक गुरु चेले से भिक्षा मंगा रहा है और शर्त भी लगा रहा है l पहली भिक्षा-जल की लाना- कुआँ-बावड़ी छोड़ के लाना, नदी नालेके पास न जाना l दूजी भिक्षा-अन्न की लाना-गाँव-नगर के पास न जाना, खेत-खलिहान को छोड़ के लाना l तीजी भिक्षा-लकड़ी लाना-डांग(जंगल)-पहाड़ के पास न जाना, गीली-सूखी छोड़ के लाना, लाना गठरी बना के l चौथी भिक्षा-मांस की लाना- जीव-जंतु के पास न जाना, जिन्दा-मुर्दा छोड़ के लाना-लाना हंडी भर के l...चेला तुम्बी भर के लाना, तेरे गुरु ने मंगाई l...बताइए साहब गुरु ने चेले से कौनसी चीज मंगाई होगी l एक ही चीज है जिसमें ये चारों चीजें हैं l”
मैं सुमन जी को देख रहा था l वे मुझे देख रहे थे l हम लगातार कोशिश कर रहे थे l किन्तु गुत्थी सुलझ नहीं रही थी l ऐसी कोई चीज मिल ही नहीं रही थी l  
“कोई हिंट तो दीजिए l”
“वह चीज अभी आपके पास है l थोड़ा और सोचिए आप पकड़ लेंगे l”
“अपना परिचय तो दीजिए ड्राइवर जी l” मेरी उत्सुकता चरम पर थी l
“मैं सिराज मकरानी-रिटायर्ड फौजी l अब बस चला रहा हूँ l इकलौता लड़का था l वालिद में देशप्रेम का जज्बा था l उन्होंने मुझे फ़ौज में भेजा दिया था l मेरा भी इकलौता लड़का है l उसे भी मैंने फ़ौज में भेजा है l वतन की ख़िदमत में ज़िंदगी को लगाना तो बहुतफक्र काकाम है साहब !”
उसका परिचय और विचार जान मैं दंग रह गया l मेरे सभी पूर्वाग्रह सहसा ध्वस्त हो गएl उसके साथ करीब एक घंटे की वह यात्रा यादगार बन गई l
घर आकर पूरी पहेली को मैंने स्मृति के आधार पर डायरी में नोट कर लिया था l अब मुझे पहेली का जवाब मिल गया है l इसमें जल, अन्न, लकड़ी और मांस चारों चीजें हैं l सिराज मकरानी ने ठीक कहा था, वह चीज उस समय हमारे झोले में ही थी l उसने ताड़ लिया था l जी हाँ-नारियल l चेला अपनी तुंबी में नारियल की भिक्षा लाया होगा l नारियल में जल होता ही है l उसे खाकर क्षुधा भी शांत की जा सकती है, तो इस तरह से अन्न भी हुआ l उसकी मलाई को नारियल का मांस कहा जाता है,  जबकि उसके रेशे व खोल जलाने के काम आते हैं l



-गोविन्द सेन
यह मेरी अप्रकाशित, अप्रसारित और मौलिक रचना है l
संपर्क-193,राधारमण कॉलोनी,मनावर-454446,(धार)म.प्र., 9893010439
परिचय-गोविन्द सेन,  चार दशक से रचनारत l दो कहानी संग्रह, दो गजल संग्रह, दो हायकु संग्रह, एक व्यंग्य संग्रह, एक दोहा संग्रह सहित दर्जनभर किताबें l  कुछ सम्मान और पुरस्कार भी l

12 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 11 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद। प्रतिक्रियाओं मुझे इंतजार रहेगा।

      Delete
    2. आज यह रचना चर्चा हेतु पांच लिंकों का आनंद में है
      प्रतीक्षा में आनन्द है

      Delete
  2. बहुत सुन्दर एवं रोचक सृजन ।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर अनुपम सृजन

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर संस्मरण है प्रिय दीदी।पहली बार गोविंद जी को पढकर अच्छा लगा।बहुत रोचकता और सहजता से लिखा है। चालक महाशय ने दोनों कवियों की बोलती बंद कर दी।असल में हम बाहरी आवरण से किसी व्यक्ति के भीतरी संस्कारों का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। साहित्य और कला प्रेम व्यक्ति का भीतरी संस्कार है जो अरूप और अदृश्य है।वह केवल शाब्दिक अभिव्यक्ति से ही नज़र आ सकता है गोविंद जी को सादर बधाई और शुभकामनाएं।आपका बहुत बहुत आभार 🙏

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर

    ReplyDelete