Wednesday, November 4, 2020

मैं तुझे फिर मिलूँगी - अमृता प्रीतम


मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!
- अमृता प्रीतम

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4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. भावपूर्ण रचना !

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