Saturday, May 7, 2016

मदर्स डे....यशोदा










मदर्स डे....
लो आ गया फिर से
मदर्स डे
यद्यपि है तो ये
पाश्चात्य परम्परा....
उन्होंने ही...
किसी को महत्वपूर्ण जताने
साल का एक दिन..
उसके नाम कर दिया
परन्तु......
इसके विपरीत
अपने भारत में....
वर्ष का पूरा तीन सौ पैंसठ दिन
माँ के नाम ही तो है
सीमित नहीं यहाँ तक भी
जो भी देता है जीवन
और ज़रूरी है जीवन के लिए
उसे भी माँ की कोटि में
गिना जाता है
माता तो धरती भी है..
जो अपना सीना चीर कर 
अन्न देती है
माता भारत भी है...
जिसकी जय-जयकार 
हम नित्य करते हैं..
गाय तो माता कहलाती ही है
पतित पावनी गंगा-जमुना
भी माताएँ ही हैं....
........................पर 
ये तो भारत है.....
सम्मान के साथ-साथ..
दुर्व्यवहार भी होता रहता है
माता का सदा-सर्वदा

मन की उपज
-यशोदा

Thursday, May 5, 2016

तेरी रहमत की बारिश....आलोक श्रीवास्तव


तुम्हारे पास आता हूँ तो सांसें भींग जाती है
मुहब्बत इतनी मिलती है कि आँखें भींग जाती है

तबस्सुम इत्र जैसा है हंसी बरसात जैसी
वे जब बात करती है तो बातें भींग जाती है

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है
तुम्हें जब मैं गुनगुनाता हूँ तो सांसें भींग जाती है

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है
नए पत्तों की आमद से ही शाख़ें भींग जाती है

तेरे अहसास की ख़शबू हमेशा ताजा रहती है
तेरी रहमत की बारिश से मुरादें भींग जाती है

-आलोक श्रीवास्तव
मधुरिमा से.........

Tuesday, May 3, 2016

"वो मेरे पहलू में जलवागर है....... !!!".....सिराज फ़ैसल खान







वो मुझसे कहती थी
मेरे शायर 
ग़ज़ल सुनाओ 
जो अनसुनी हो 
जो अनकही हो 
कि जिसके एहसास
अनछुए हों,
हों शेर ऐसे 
कि पहले मिसरे को
सुन के 
मन में 
खिले तजस्सुस 
का फूल ऐसा 
मिसाल जिसकी 
अदब में सारे 
कहीं भी ना हो....... 
में उससे कहता था 
मेरी जानां
ग़ज़ल तो कोई ये कह चुका है,
ये मोजज़ा तो 
खुदा ने मेरे 
दुआ से 
पहले ही कर दिया,
तमाम आलम की 
सबसे प्यारी 
जो अनकही सी 
जो अनसुनी सी 
जो अनछुई सी 
हसीं ग़ज़ल है--
"वो मेरे पहलू में 
जलवागर है....... !!!"

-सिराज फ़ैसल खान
प्रस्तुत कर्ताः श्री अशोक खाचर
http://ashokkhachar56.blogspot.in/2016/05/blog-post.html

Sunday, May 1, 2016

बारिश के पहले................. ब्रजेश कानूनगो










आने से पहले
कुछ और भी चला आता है
सूचना की तरह
जैसे उजाले से पहले
गुलाबी हो जाता है आकाश
  
मानसून के पहले
मेघ आते हैं मुआयना करने
टॉर्च जलाते हुए
बूंदों के पहले कोई अंधड़
अस्त-व्यस्त करता है जीवन

सौंधी महक में लिपटी   
याद आती है तुम्हारी
बारिश से ठीक पहले.  
-ब्रजेश कानूनगो 

Monday, April 25, 2016

इंतज़ार करती माँ.....ब्रजेश कानूनगो










अमरूदों  से लद गए हैं पेड़
आंवलों की होने लगी है बरसात
गूदे से भर गईं हैं सहजन की फलियाँ
बीते कसैले समय की तरह
मैथी दाने की कड़वाहट को गुड़ में घोलकर  
तैयार हो गए हैं पौष्टिक लड्डू

होड़ में दौड़ते पैकेटों के समय में 
शुक्रवारिया हाट से चुनकर लाई गयी है बेहतर मक्का
सामने बैठकर करवाई है ठीक से पिसाई
लहसुन के साथ लाल मिर्च कूटते हुए
थोड़ी सी उड़ गयी है चरपरी धूल आँखों में
बड़ गई है मोतियाबिंद की चुभन कुछ और ज्यादा 

भुरता तो बनना ही है मक्का की रोटी के साथ
तासीर ही कुछ ऐसी है बैंगन की
कि खाने के बाद उदर में 
अग्निदेव और वातरानी करने लगते हैं उत्पात
छाछ ही है जो करती है बीच बचाव
कोई ख़ास समस्या नहीं है यह
घी बनने के बाद सेठजी के यहाँ
रोज ही होता है ताजी छाछ का वितरण

पूरी तैयारी रहती है माँ की गाँव में  
मैं ही नहीं पहुँच पाता हूँ हर बार
जानता हूँ बह जाता होगा बहुत सारा नमक प्रतीक्षा करते
ऊसर जाती होगी घर की धरती   
आबोहवा में बढ़ जाती होगी थोड़ी सी आद्रता  

सच तो यह है कि खूब जानती है माँ मेरी विवशता
खुद ही चली आती है कविता में हर रोज
सब कुछ समेटे अपनी पोटली में.

















-ब्रजेश कानूनगो 

Friday, April 22, 2016

बड़े बावरे हिन्दी के मुहावरे......भावेश सोनी


         
 
हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है....

कहीं पर फल है तो कहीं आटा दालें है ,
कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है ,

फलों की ही बात ले लो....
आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,

कभी अंगूर खट्टे हैं,
कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,

कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती,

कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,

कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,
कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है, 

मुफलिसी में जब आटा गीला होता है ,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,

सफलता के लिए बेलने पड़ते है कई पापड़,
आटे में नमक तो जाता है चल, 

पर गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है, 

गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं, 

कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है ,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,

किसी के दांत दूध के हैं ,
तो कई दूध के धुले हैं,

कोई जामुन के रंग सी चमड़ी पा के रोई है,
तो किसी की चमड़ी जैसे मैदे की लोई है,

किसी को छटी का दूध याद आ जाता है ,
दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है ,
और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है ,

शादी बूरे के लड्डू हैं , जिसने खाए वो भी पछताए,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,
पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है ,
और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते हैं,

कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है,
किसी के मुंह में घी शक्कर है, सबकी अपनी अपनी तकदीर है...

कभी कोई चाय पानी करवाता है,
कोई मख्खन लगाता है

और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है ,
तो सभी के मुंह में पानी आता है,
भाई साहब अब कुछ भी हो ,
घी तो खिचड़ी में ही जाता है,

जितने मुंह है, उतनी बातें हैं, 
सब अपनी अपनी बीन बजाते है,

पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ,

सभी बहरे है, बावरें है
ये सब हिंदी के मुहावरें हैं ...

-भावेश सोनी

Sunday, April 17, 2016

किसने ऐसा किया इशारा था............डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री


किसने ऐसा किया इशारा था
ख़त मेरा था पता तुम्हारा था

तुम ये कहते हो भूल जाऊँ मैं
तुमने मेरा चेहरा उतारा था

काम आई फिर अपनी ताकत ही
कोई किसका यहां सहारा था

हम अदालत में झूठ कह बैठे
और बाक़ी न कोई चारा था

फिर इकबार तुम तो सुन लेते
मैंनें तुमको अगर पुकारा था

इश्क़ में ये बात अहम ही नहीं
कौन जीता था कौन हारा था

उसको कहते थे लोग सब ज़ालिम
फिर भी बच्चा वो मां को प्यारा था

- डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री
मधुरिमा से...