क्या चाहता है मन ?
क्यों इतना उदास है?
वह मिल के नहीं मिलते
जिनसे
मिलने की प्यास है!
अपने को खोजता है
किसी और की छाया में
रहता है खुद से दूर
मगर गैरों के पास है!
खुशियों के सारे पल
इसी
वहशत में गुज़र जाते है
साध अधूरी रहने का सोग
हम रोज़ ही मनाते हैं!
इतना
समझना काफी है
जो भी होता है
आकस्मिक नहीं ,
निर्धारित है।
हर चीज़ का समय है
किसी सूत्र से
संचालित है।
मौसम भी रंग बदलते हैं
चाँद सूरज भी
रोज़ ढलते हैं
कुछ लोग चले जाते हैं
कुछ मीत नए मिलते है!
जो बेगाने है
तुम्हारे थे ही नहीं,
खुद ही चले जायेंगे।
जो
एक डोर से बंधे है
वह
जाकर भी लौट आयेगे।
अपना चाहा
हो जाये तो बहुत अच्छा,
न हो ,तो उससे बेहतर।
शाश्वत सत्य है,
यकीन कर लो तो सोना है
वर्ना गर्द से भी बदतर!
- सुरेन्द्रनाथ कपूर