(चित्र गूगल के सौजन्य से)
आज विश्व विकलांगता दिवस है…
चार वर्ष की उम्र में जब मुझे पोलियो हुआ; तब से लेकर आज तक मेरे प्रति समाज का व्यवहार ना केवल मेरे लिए चुनौती और दुख का विषय रहा है बल्कि समाज के इस व्यवहार का अध्ययन भी मेरे लिए काफ़ी रुचिकर रहा है। भारत में जनसामान्य का व्यहवार बहुत हद तक अनौपचारिक ही रहता है लेकिन यह अनौपचारिकता कब अशिष्टता की सीमा में प्रवेश कर जाती है –इसका पता ही नहीं चलता। जिस तरह महिलाओं के साथ व्यवहार करने के कुछ आदाब होते हैं; जिस तरह राष्ट्राध्यक्षों के साथ व्यवहार करने का अलग शिष्टाचार होता है; जिस तरह बुज़ुर्गों के साथ व्यवहार करने के कुछ सलीके होते हैं; उसी तरह विकलांग व्यक्तियों के साथ व्यवहार करने के भी अपने कुछ नियम होते हैं। आम भारतीय व्यक्ति अक्सर इन नियमों का पालन नहीं करते; इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अधिकांश भारतीय इन नियमों को जानते ही नहीं हैं। हालांकि ये नियम कुल मिलाकर केवल इतना कहते हैं कि बराबरी का व्यवहार करो -लेकिन इतनी आसान-सी बात भी हमारा समाज नहीं समझ पाता।
आजकल मैं भारत सरकार के एक महकमें में सलाहकार के रूप में कार्य कर रहा हूँ। सरकारी दफ़्तर में कार्य करने का यह मेरा पहला अनुभव है और यह अनुभव… बहुत ही अलग किस्म का है। इससे पहले मैं रिसर्च संस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, कॉरपोरेट, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं इत्यादि कई अलग-अलग तरह की संस्थाओं के साथ कार्य कर चुका हूँ; लेकिन सरकारी दफ़्तर में काम करने का अनुभव इन सबसे बिल्कुल अलग है। भारत के अलावा और भी कई देशों के समाज और वहाँ की कार्य संस्कृति को मैंने देखा है और हर जगह विकलांगता को लेकर जनसामान्य के व्यवहार व कार्य-संस्कृति में बहुत फ़र्क पाया है।
मैंने ब्रिटेन व कनाडा में पढ़ाई की और वहाँ के बहुत सम्मानित शोध संस्थानों में काम भी किया। ब्रिटेन में करीब तीन वर्ष के प्रवास के दौरान शायद एक या दो बार ही किसी ने मेरी बैसाखियों को देखकर मुझसे पूछा कि मुझे क्या हुआ है। और मज़े की बात यह है कि दोनों ही बार प्रश्नकर्ताओं ने सोचा कि मैं रग्बी खेलते हुए चोटिल हो गया और इसी कारण बैसाखियों से चल रहा हूँ। दोनों ही बार प्रश्नकर्ता ने बड़ी सधी हुई और स्पष्ट भाषा में प्रश्न किए; “ओह! लगता है आपको रग्बी खेलते हुए चोट लग गई, है ना?”… मेरे यह बताने पर कि मुझे पोलियो है, प्रश्नकर्ताओं ने “ओह! आई एम सॉरी टू हीयर दैट” कहने की औपचारिकता तो निबाही लेकिन तुरंत ही बातचीत के रुख को मोड़ दिया और फिर कभी मेरी विकलांगता का मुद्दा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हमारे बीच नहीं आया। इन प्रश्नकर्ताओं की भाषा या चेहरे के हाव-भाव में मेरे प्रति कभी भारतीयों की तरह की दया-पूर्ण-सहानुभूति नहीं दिखाई दी; सहानुभूति व्यक्त करने का उन लोगों का एक बिल्कुल ही अलग तरीका है। वे सामने वाले को यह आभास नहीं देते कि वह किसी भी तरह से कमतर है। वे सहानुभूति नहीं जताते बल्कि आपको बराबरी का अहसास दिलाते हैं। ब्रिटेन में लोग मुझे ताकते नहीं थे –मैं अन्य सभी व्यक्तियों की तरह हर जगह जाता था और लोग मुझसे बिना किसी पूर्वाग्रह के मिलते थे। वहाँ रहते हुए मुझे कभी भी स्वयं को किसी के सामने पहली बार जाने के लिए तैयार नहीं करना पड़ता था। इसके उलट भारत में नए लोगों के साथ मिलने से पहले मैं स्वत: ही उन लोगों द्वारा अजीब ढंग से देखे जाने के लिए तैयार हो जाता हूँ। भारत में अधिकांश लोग जब मुझे बैसाखियों पर पहली बार देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया “शॉक” वाली होती है और लोग इस “शॉक” को अपने चेहरे और शब्दों में आने से रोकने की ज़हमत भी नहीं उठाते। ब्रिटेन में लोगों को इस तरह का कोई शॉक नहीं लगता था। वे मुझे और मेरी बैसाखियों को घूरते नहीं थे। वहाँ लोग बैसाखी को मेरे शरीर का ही अंग मानते थे।
संयुक्त राष्ट्र में भी मैंने कई साल कार्य किया है। उस कार्यालय में करीब आधे कर्मचारी भारतीय थे और बाकी कर्मचारी दूसरे विभिन्न देशों से थे। वहाँ का वातावरण औपचारिकता को छूता ज़रूर था लेकिन मोटे तौर पर अनौपचारिक ही था। संयुक्त राष्ट्र में पाँच वर्ष के दौरान मैंने बीसियों देशों के लोगों के साथ कार्य किया लेकिन कभी भी किसी ने मेरी बैसाखियों के बारे में नहीं पूछा। मदद की पेशकश भी नहीं की; लेकिन मैंने जब भी सहायता मांगी तो उन्होंने तुरंत आगे बढ़कर सहायता की; अर्थात मदद मांगनी है या नहीं इसका निर्णय मुझ पर छोड़ दिया जाता था। कुछ भारतीय कर्मचारियों ने मुझसे ज़रूर पूछा कि मुझे क्या हुआ है –लेकिन ऐसा कर सकने का साहस जुटाने में उन्हें कई बरस लग गए! वहाँ प्रश्न कुछ ऐसे पूछा गया; “आपको पैर में क्या हुआ है?”
सरकारी दफ़्तर का अनुभव इन सभी अनुभवों से अलग रहा है। इस दफ़्तर में सभी कर्मचारी भारतीय हैं और यहाँ वरिष्ठता एक बेहद महत्त्वपूर्ण चीज़ मानी जाती है। शुरुआत से ही मुझे ऐसा लगा जैसे अधिकांश लोगों की दिलचस्पी मुझमें कम और मेरी विकलांगता में अधिक थी।
कुछ दिन पहले एक रोचक घटना हुई। दफ़्तर में काम करने वाला एक व्यक्ति किसी कारणवश पूरे स्टाफ़ से एक काग़ज़ पर दस्तख़त करवा रहा था। काग़ज़ पर सभी कर्मचारियों के नाम और पद छपे हुए थे। चूंकि मैं दफ़्तर में नया था; वह व्यक्ति मेरा नाम और पद नहीं जानता था। वह मेरे पास आया और “साइन कर दो” कहते हुए उसने मुझे वह काग़ज़ थमा दिया जिस पर सबके नाम छपे थे। काग़ज़ हाथ में लेकर मैं अपना नाम सूची में खोजने लगा
“एल.डी.सी. में देखो”, मुझे नाम खोजते देखकर उसने सहायता के लहज़े में सुझाव दिया (एल.डी.सी. का अर्थ होता है लोअर डिविज़नल क्लर्क)
मैंने कहा, “मैं एल.डी.सी. नहीं हूँ”
उसने जवाब में कहा, “तो यू.डी.सी. में देख लो” (यू.डी.सी. अर्थात अपर डिविज़नल क्लर्क)
मैंने कहा, “मैं यू.डी.सी भी नहीं हूँ”
“तो क्या हो?”, उसने पूछा
…तभी मुझे अपना नाम दिख गया और मैंने चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए… हस्ताक्षर लेने के बाद वह व्यक्ति चला गया। उसके जाने के बाद मैंने सोचा कि उसने क्यों अपने-आप यह मान लिया कि मैं एल.डी.सी हूँ और बहुत हुआ तो यू.डी.सी. हूँ? पास में रखी बैसाखियों ने मुझे इसका जवाब दे दिया और मुझे अपने स्कूल का समय याद आ गया जब मुझे हर कोई यही सुझाव देता था कि टाइपिंग सीख लो और विकलांगता कोटे के ज़रिए किसी सरकारी दफ़्तर में क्लर्क बन जाओ। ज़िन्दगी आराम से कट जाएगी। हस्ताक्षर लेने आए व्यक्ति ने भी शायद मेरी बैसाखियों को देखकर यही सोचा कि मैं क्लर्क होऊंगा। क्लर्क होना बुरा नहीं है; लेकिन एक विकलांग व्यक्ति केवल क्लर्क ही हो सकता है, आम लोगों का यह विश्वास मुझे कष्ट देता है।
यहाँ लोग बिना संकोच मुझे ताकते हैं। ताकते हुए लोगों को लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता कि जिसे वे ताक रहे हैं वह व्यक्ति असहज महसूस करेगा। हमारे समाज में माता-पिता बच्चों को यह कभी नहीं सिखाते कि किसी को किसी भी कारण से ताकना शिष्ट आचरण नहीं है। एक और चलन मुझे यहाँ देखने को मिल रहा है। लोग विकलांगता के बारे में सीधे सपाट तौर पर पूछने से कतई नहीं कतराते। पश्चिमी देशों में ऐसा करना शिष्टाचार के खिलाफ़ माना जाता है क्योंकि इस बात से यह संदेश जाता है जैसे कि आपके लिए व्यक्ति कम और विकलांगता अधिक महत्त्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति की विकलांगता के बारे में आप पहली बार मिलते ही नहीं पूछ सकते। इस तरह के प्रश्न करने के लिए संबंध में प्रगाढ़ता का होना ज़रूरी होता है; लेकिन मेरे वर्तमान दफ़्तर के बहुत से कर्मचारियों ने मुझे बैसाखियों पर चलते देखकर सीधे-सीधे पहली ही बार में प्रश्न किया कि आप को क्या हुआ है? मेरे जवाब देने पर वे मुझे अपेक्षानुसार “कर्मों के विधान” और “भगवान की मर्ज़ी” का ज्ञान थमा देते हैं। कई लोग तो सीधे-सीधे विकलांगता को पिछले जन्मों में मेरे बुरे कर्मों का नतीजा बता देते हैं और साथ में सलाह भी दे देते हैं कि इस सज़ा को काट लो; आगे सब ठीक होगा।
भारत का आम आदमी जब तक विकलांगता को लेकर इस तरह असंवेदनशील बना रहेगा –तब तक भारत में विकलांगता एक अभिशाप ही बनी रहेगी और विकलांगों के जीवन में सुधार की संभावनाएँ कभी वास्तविकता का रूप नहीं ले पाएंगी। भारतीयों को इस सत्य से वाकिफ़ होना चाहिए कि किसी अंग का ना होना उतना ही स्वभाविक है जितना कि उस अंग का होना स्वभाविक है। स्वस्थ शरीर और विकलांगता के बीच आकस्मिकता नामक एक अत्यंत महीन रेखा होती है। किसके जीवन में यह रेखा कब कहाँ कैसे चटक जाती है इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। आकस्मिकता के इस खेल को कर्मों से जोड़कर देखना ना केवल मूर्खता है बल्कि अमानवीयता और संवेदनहीनता का उदाहरण भी है।
आज विश्व विकलांगता दिवस है… काश हमारा समाज विकलांगता को प्राकृतिक और विकलांग व्यक्ति को बराबर मानना सीख ले…
-ललित कुमार
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