कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं
जिस्म पर मेरे बहुत शफ्फाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा
भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा
अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता
धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
---मुनव्वर राणा
वाह, बहुत सुंदर ,आभार
ReplyDeletewaaaaaaaaaah kya bat hai bhot khub
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन खास है १ जुलाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपकी रचना कल बुधवार [03-07-2013] को
ReplyDeleteब्लॉग प्रसारण पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
सादर
सरिता भाटिया
उम्दा प्रस्तुति,,,आभार
ReplyDeleteRECENT POST: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.
कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ReplyDeleteऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
क्या बात है, मुनव्वर राना की बहुत सुंदर गजल है ये।
शुक्रिया यशोदा जी
उमदा प्रसतुति। बहोत अच्छी बात कही है।
ReplyDeleteजीवन की हकीकत ये गजल है ,बहुत खूब
ReplyDeleteभारती दास
जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
ReplyDeleteजब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं
गज़ब की सोच और इतनी सरल भाषा .....कमाल हैं मुनव्वर राणा साहब का लेखन
अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
ReplyDeleteपरिंदों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता
धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
खुबसूरत रचना ,बहुत सुन्दर भाव भरे है रचना में,आभार !