Tuesday, December 22, 2015

हरियाले बन्ने ....सतीश सक्सेना


हरियाली बन्ने ! दुल्हन करे है इंतजार
चटक मटकती फिरें भाभियाँ
हुलस हुलस बारी जायें ! 
हरियाले बन्ने ....

बुआ तुम्हारी लेयं बलाएँ 
फिरें नाचती द्वार द्वार में
घुंघरू करें झंकार ! 
हरियाले बन्ने ....

बहना तुम्हारी हुई बाबरी 
घर घर में वो फिरे हुलसती
बार बार बलिहार ! 
हरियाले बन्ने ....

मां के दिल से पूछे कोई
बारम्बार बलाएँ लेती
नज़र नहीं लग जाए !
हरियाले बन्ने ....

मौसी तुम्हारी रानी जैसी
घर में खुशियाँ लेकर आयी
करे प्रेम - बौछार ! 
हरियाले बन्ने ....

मामी तुम्हारी फिरें मटकती
सब लोगों को नाच नचाती
करती नयना - चार ! 

चाची तुम्हारी खुशियाँ बांटे
रंग - बिरंगी बनी घूमती
गाएं गीत मल्हार ! 
हरियाले बन्ने ....

दादी तुम्हारी घूमें घर में
पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे
खुशी कही ना जाए ! 
हरियाले बन्ने ....

बाबा तुम्हारे , घर के मुखिया
चार पीढियां देख के हरसें 
शान कही ना जाय ! 
हरियाले बन्ने ....

पिता तुम्हारे फिरें घूमते
घर में सबका हाल पूंछते 
खुशी छिपे न छिपाय ! 
हरियाले बन्ने ....

भइया तुम्हारे फिरें महकते
मेहमानों की खातिर करते 
इत्र फुलेल लगाय ! 
हरियाले बन्ने ....

चाचा तुम्हारे आए दूर से
नए नवेले कपड़े पहने 
मस्त फिरे बतियायं ! 
हरियाले बन्ने ....

जीजा तुम्हारे हुए बावरे
फिरें घूमते बन्ना लिखते
हाल कहा ना जाए !
हरियाले बन्ने ....










 - सतीश सक्सेना
मधुरिमा में छपी रचना..2.12.2015
मूल रचना यहाँ देखें




Wednesday, December 16, 2015

याद आया तो ज़रूर होगा !! ..............सदा













कभी प्रेम  
कभी रिश्ता कोई  
बन गया हमनवां जब  
तुमने जिंदगी को  
हँस के गले  
लगाया तो ज़रूर होगा ! 
... 
मांगने पर भी 
जो मिल न पाया 
ऐसा कुछ छूटा हुआ 
बिछड़ा हुआ 
कभी न कभी 
याद आया 
तो ज़रूर होगा !! 
... 
कोई शब्द जब कभी 
अपनेपन की स्याही लिए 
तेरा नाम लिखता 
हथेली पे 
तुमने चुराकर नज़रें 
वो नाम 
पुकारा तो ज़रूर होगा!!! 
...
सीमा सदा
http://sadalikhna.blogspot.in/2015/07/blog-post.html

Wednesday, December 2, 2015

मैं अजीब ढंग से देखे जाने के लिए तैयार हूँ... ललित कुमार

(चित्र गूगल के सौजन्य से)

आज विश्व विकलांगता दिवस है…



चार वर्ष की उम्र में जब मुझे पोलियो हुआ; तब से लेकर आज तक मेरे प्रति समाज का व्यवहार ना केवल मेरे लिए चुनौती और दुख का विषय रहा है बल्कि समाज के इस व्यवहार का अध्ययन भी मेरे लिए काफ़ी रुचिकर रहा है। भारत में जनसामान्य का व्यहवार बहुत हद तक अनौपचारिक ही रहता है लेकिन यह अनौपचारिकता कब अशिष्टता की सीमा में प्रवेश कर जाती है –इसका पता ही नहीं चलता। जिस तरह महिलाओं के साथ व्यवहार करने के कुछ आदाब होते हैं; जिस तरह राष्ट्राध्यक्षों के साथ व्यवहार करने का अलग शिष्टाचार होता है; जिस तरह बुज़ुर्गों के साथ व्यवहार करने के कुछ सलीके होते हैं; उसी तरह विकलांग व्यक्तियों के साथ व्यवहार करने के भी अपने कुछ नियम होते हैं। आम भारतीय व्यक्ति अक्सर इन नियमों का पालन नहीं करते; इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अधिकांश भारतीय इन नियमों को जानते ही नहीं हैं। हालांकि ये नियम कुल मिलाकर केवल इतना कहते हैं कि बराबरी का व्यवहार करो -लेकिन इतनी आसान-सी बात भी हमारा समाज नहीं समझ पाता।
आजकल मैं भारत सरकार के एक महकमें में सलाहकार के रूप में कार्य कर रहा हूँ। सरकारी दफ़्तर में कार्य करने का यह मेरा पहला अनुभव है और यह अनुभव… बहुत ही अलग किस्म का है। इससे पहले मैं रिसर्च संस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, कॉरपोरेट, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं इत्यादि कई अलग-अलग तरह की संस्थाओं के साथ कार्य कर चुका हूँ; लेकिन सरकारी दफ़्तर में काम करने का अनुभव इन सबसे बिल्कुल अलग है। भारत के अलावा और भी कई देशों के समाज और वहाँ की कार्य संस्कृति को मैंने देखा है और हर जगह विकलांगता को लेकर जनसामान्य के व्यवहार व कार्य-संस्कृति में बहुत फ़र्क पाया है।

मैंने ब्रिटेन व कनाडा में पढ़ाई की और वहाँ के बहुत सम्मानित शोध संस्थानों में काम भी किया। ब्रिटेन में करीब तीन वर्ष के प्रवास के दौरान शायद एक या दो बार ही किसी ने मेरी बैसाखियों को देखकर मुझसे पूछा कि मुझे क्या हुआ है। और मज़े की बात यह है कि दोनों ही बार प्रश्नकर्ताओं ने सोचा कि मैं रग्बी खेलते हुए चोटिल हो गया और इसी कारण बैसाखियों से चल रहा हूँ। दोनों ही बार प्रश्नकर्ता ने बड़ी सधी हुई और स्पष्ट भाषा में प्रश्न किए; “ओह! लगता है आपको रग्बी खेलते हुए चोट लग गई, है ना?”… मेरे यह बताने पर कि मुझे पोलियो है, प्रश्नकर्ताओं ने “ओह! आई एम सॉरी टू हीयर दैट” कहने की औपचारिकता तो निबाही लेकिन तुरंत ही बातचीत के रुख को मोड़ दिया और फिर कभी मेरी विकलांगता का मुद्दा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हमारे बीच नहीं आया। इन प्रश्नकर्ताओं की भाषा या चेहरे के हाव-भाव में मेरे प्रति कभी भारतीयों की तरह की दया-पूर्ण-सहानुभूति नहीं दिखाई दी; सहानुभूति व्यक्त करने का उन लोगों का एक बिल्कुल ही अलग तरीका है। वे सामने वाले को यह आभास नहीं देते कि वह किसी भी तरह से कमतर है। वे सहानुभूति नहीं जताते बल्कि आपको बराबरी का अहसास दिलाते हैं। ब्रिटेन में लोग मुझे ताकते नहीं थे –मैं अन्य सभी व्यक्तियों की तरह हर जगह जाता था और लोग मुझसे बिना किसी पूर्वाग्रह के मिलते थे। वहाँ रहते हुए मुझे कभी भी स्वयं को किसी के सामने पहली बार जाने के लिए तैयार नहीं करना पड़ता था। इसके उलट भारत में नए लोगों के साथ मिलने से पहले मैं स्वत: ही उन लोगों द्वारा अजीब ढंग से देखे जाने के लिए तैयार हो जाता हूँ। भारत में अधिकांश लोग जब मुझे बैसाखियों पर पहली बार देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया “शॉक” वाली होती है और लोग इस “शॉक” को अपने चेहरे और शब्दों में आने से रोकने की ज़हमत भी नहीं उठाते। ब्रिटेन में लोगों को इस तरह का कोई शॉक नहीं लगता था। वे मुझे और मेरी बैसाखियों को घूरते नहीं थे। वहाँ लोग बैसाखी को मेरे शरीर का ही अंग मानते थे।

संयुक्त राष्ट्र में भी मैंने कई साल कार्य किया है। उस कार्यालय में करीब आधे कर्मचारी भारतीय थे और बाकी कर्मचारी दूसरे विभिन्न देशों से थे। वहाँ का वातावरण औपचारिकता को छूता ज़रूर था लेकिन मोटे तौर पर अनौपचारिक ही था। संयुक्त राष्ट्र में पाँच वर्ष के दौरान मैंने बीसियों देशों के लोगों के साथ कार्य किया लेकिन कभी भी किसी ने मेरी बैसाखियों के बारे में नहीं पूछा। मदद की पेशकश भी नहीं की; लेकिन मैंने जब भी सहायता मांगी तो उन्होंने तुरंत आगे बढ़कर सहायता की; अर्थात मदद मांगनी है या नहीं इसका निर्णय मुझ पर छोड़ दिया जाता था। कुछ भारतीय कर्मचारियों ने मुझसे ज़रूर पूछा कि मुझे क्या हुआ है –लेकिन ऐसा कर सकने का साहस जुटाने में उन्हें कई बरस लग गए! वहाँ प्रश्न कुछ ऐसे पूछा गया; “आपको पैर में क्या हुआ है?”

सरकारी दफ़्तर का अनुभव इन सभी अनुभवों से अलग रहा है। इस दफ़्तर में सभी कर्मचारी भारतीय हैं और यहाँ वरिष्ठता एक बेहद महत्त्वपूर्ण चीज़ मानी जाती है। शुरुआत से ही मुझे ऐसा लगा जैसे अधिकांश लोगों की दिलचस्पी मुझमें कम और मेरी विकलांगता में अधिक थी।
कुछ दिन पहले एक रोचक घटना हुई। दफ़्तर में काम करने वाला एक व्यक्ति किसी कारणवश पूरे स्टाफ़ से एक काग़ज़ पर दस्तख़त करवा रहा था। काग़ज़ पर सभी कर्मचारियों के नाम और पद छपे हुए थे। चूंकि मैं दफ़्तर में नया था; वह व्यक्ति मेरा नाम और पद नहीं जानता था। वह मेरे पास आया और “साइन कर दो” कहते हुए उसने मुझे वह काग़ज़ थमा दिया जिस पर सबके नाम छपे थे। काग़ज़ हाथ में लेकर मैं अपना नाम सूची में खोजने लगा

“एल.डी.सी. में देखो”, मुझे नाम खोजते देखकर उसने सहायता के लहज़े में सुझाव दिया (एल.डी.सी. का अर्थ होता है लोअर डिविज़नल क्लर्क)

मैंने कहा, “मैं एल.डी.सी. नहीं हूँ”

उसने जवाब में कहा, “तो यू.डी.सी. में देख लो” (यू.डी.सी. अर्थात अपर डिविज़नल क्लर्क)

मैंने कहा, “मैं यू.डी.सी भी नहीं हूँ”

“तो क्या हो?”, उसने पूछा

…तभी मुझे अपना नाम दिख गया और मैंने चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए… हस्ताक्षर लेने के बाद वह व्यक्ति चला गया। उसके जाने के बाद मैंने सोचा कि उसने क्यों अपने-आप यह मान लिया कि मैं एल.डी.सी हूँ और बहुत हुआ तो यू.डी.सी. हूँ? पास में रखी बैसाखियों ने मुझे इसका जवाब दे दिया और मुझे अपने स्कूल का समय याद आ गया जब मुझे हर कोई यही सुझाव देता था कि टाइपिंग सीख लो और विकलांगता कोटे के ज़रिए किसी सरकारी दफ़्तर में क्लर्क बन जाओ। ज़िन्दगी आराम से कट जाएगी। हस्ताक्षर लेने आए व्यक्ति ने भी शायद मेरी बैसाखियों को देखकर यही सोचा कि मैं क्लर्क होऊंगा। क्लर्क होना बुरा नहीं है; लेकिन एक विकलांग व्यक्ति केवल क्लर्क ही हो सकता है, आम लोगों का यह विश्वास मुझे कष्ट देता है।

यहाँ लोग बिना संकोच मुझे ताकते हैं। ताकते हुए लोगों को लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता कि जिसे वे ताक रहे हैं वह व्यक्ति असहज महसूस करेगा। हमारे समाज में माता-पिता बच्चों को यह कभी नहीं सिखाते कि किसी को किसी भी कारण से ताकना शिष्ट आचरण नहीं है। एक और चलन मुझे यहाँ देखने को मिल रहा है। लोग विकलांगता के बारे में सीधे सपाट तौर पर पूछने से कतई नहीं कतराते। पश्चिमी देशों में ऐसा करना शिष्टाचार के खिलाफ़ माना जाता है क्योंकि इस बात से यह संदेश जाता है जैसे कि आपके लिए व्यक्ति कम और विकलांगता अधिक महत्त्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति की विकलांगता के बारे में आप पहली बार मिलते ही नहीं पूछ सकते। इस तरह के प्रश्न करने के लिए संबंध में प्रगाढ़ता का होना ज़रूरी होता है; लेकिन मेरे वर्तमान दफ़्तर के बहुत से कर्मचारियों ने मुझे बैसाखियों पर चलते देखकर सीधे-सीधे पहली ही बार में प्रश्न किया कि आप को क्या हुआ है? मेरे जवाब देने पर वे मुझे अपेक्षानुसार “कर्मों के विधान” और “भगवान की मर्ज़ी” का ज्ञान थमा देते हैं। कई लोग तो सीधे-सीधे विकलांगता को पिछले जन्मों में मेरे बुरे कर्मों का नतीजा बता देते हैं और साथ में सलाह भी दे देते हैं कि इस सज़ा को काट लो; आगे सब ठीक होगा।
भारत का आम आदमी जब तक विकलांगता को लेकर इस तरह असंवेदनशील बना रहेगा –तब तक भारत में विकलांगता एक अभिशाप ही बनी रहेगी और विकलांगों के जीवन में सुधार की संभावनाएँ कभी वास्तविकता का रूप नहीं ले पाएंगी। भारतीयों को इस सत्य से वाकिफ़ होना चाहिए कि किसी अंग का ना होना उतना ही स्वभाविक है जितना कि उस अंग का होना स्वभाविक है। स्वस्थ शरीर और विकलांगता के बीच आकस्मिकता नामक एक अत्यंत महीन रेखा होती है। किसके जीवन में यह रेखा कब कहाँ कैसे चटक जाती है इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। आकस्मिकता के इस खेल को कर्मों से जोड़कर देखना ना केवल मूर्खता है बल्कि अमानवीयता और संवेदनहीनता का उदाहरण भी है।

आज विश्व विकलांगता दिवस है… काश हमारा समाज विकलांगता को प्राकृतिक और विकलांग व्यक्ति को बराबर मानना सीख ले…

-ललित कुमार

मूल रचना का पठन यहां करें



Wednesday, November 25, 2015

है ये तो सुनी हुई आवाज़.......... फिराक गोरखपुरी

1896-1982
तमाम कैफ़ ख़मोशी तमाम नग़्म-ए-साज़ 
नवा-ए-राज़ है ऐ दोस्त या तेरी आवाज़ 

मेरी ग़ज़ल में मिलेगा तुझे वो आलमे-राज़ 
जहां हैं एक अज़ल से हक़ीक़त और मजाज़ 

वो ऐन महशरे-नज्‍़जारा हो कि ख़लवते-राज़
कहीं भी बन्द- नहीं है निगाहे-शाहिदबाज़

हवाएं नींद के खेतों से जैसे आती हों 
यहां से दूर नहीं है बहुत वो मक़तले-नाज़ 

ये जंग क्या है लहू थूकता है नज़्मे-कुहन 
शिगू़फ़े और खिलायेगा वक्‍़ते शोबदाबाज़

मशीअ़तों को बदलते हैं ज़ोरे-बाजू़ से 
'हरीफ़े-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़सूने-नेयाज़

इशारे हैं ये बशर की उलूहियत की तरफ़ 
लवें-सीं दे उठी अकसर मेरी जबीने-नेयाज़

भरम तो क़ुर्बते-जानाँ का रह गया क़ाइम 
ले आड़े आ ही गया चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़

निगाहे-चश्मे-सियह कर रहा है शरहे-गुनाह 
न छेड़ ऐसे में बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़

ये मौजे-नकहते-जाँ-बख्‍़श यूँ ही उठती है 
बहारे-गेसु-ए-शबरंग तेरी उम्र दराज़ 

ये है मेरी नयी आवाज़ जिसको सुनके हरेक 
ये बोल उठे कि है ये तो सुनी हुई आवाज़ 

हरीफ़े-जश्ने-चिरागाँ है नग़्म-ए-ग़मे-दोस्त 
कि थरथराये हुए देख उठे वो शोला-ए-साज़ 

‍फ़ि‍राक़ मंजि़ले-जानाँ वो दे रही है झलक 
बढ़ो कि आ ही गया वो मुक़ामे-दूरो-दराज़

-फिराक गोरखपुरी
(रघुपति सहाय)
1896-1982

ख़लवते-राज़ः गुप्त एकांत, निगाहे-शाहिदबाज़ः सौन्दर्य के प्रति आसक्त आँखें, 
शोबदाबाज़ः बाज़ीगर समय, फ़सूने-नेयाज़ः जादुई अदा, 
चर्खे़-तफ़र्का़-परदाज़ः वैमनस्य पैदा करने वाला आकाश। 
बहसे-जवाज़ो-गै़रे-जवाज़ःउचित-अनुचित का तर्क.


Monday, November 23, 2015

जो तुम आ जाते एक बार...........महादेवी वर्मा




कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार

हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार

-महादेवी वर्मा

Sunday, November 22, 2015

हम तुम एक नया जहां बना लें.......पुष्पा परजिया


चलो न मितरा कुछ सपने सजा लें, 
हम तुम एक नया जहां बना लें। 
आ जाओ न मितवा कभी डगर हमारी,  
तुमसे बतियाकर अपना मन बहला लें।

भर ले सांसो में महक खुशियों की, 
कुछ नाचे कुछ गाएं कुछ झूमें और खुशियां मना लें।  
मन की उमंगें संजोएं और एक अलख जगा लें।।

मिटा धरती से दुख-दर्द की पीड़ा,  
हर किसी के दामन को खुशियों से सजा लें।    
चलो न मितरा सोए को जगा लें,   
चलो न मितरा भूखों को खिला दें ।।

खा लें कसम कुछ ऐसी कि, 
हर आंख से दुख के आंसू मिटा दें। 
कर लें मन अपना सागर-सा 
जग की खाराश (क्षार) को खुद में समा लें।।

बुलंदियां हों हिमालय के जैसी हमारी,  
पर मानव के मन से रेगिस्तान को हटा दें। 
खुशियों के बीज बोकर इस,
नए वर्ष को और नया बना दें ।।

-पुष्पा परजिया 

Monday, November 16, 2015

फैसला इम्तिहान पर होगा..............चाँद शेरी


जब परिन्दा उड़ान पर होगा
तीर कोई कमान पर होगा

देश की एकता का सुर इक दिन
देखना हर जबान पर होगा

छिड़ गई फिर वही महाभारत
रक्स शकुनी की तान पर होगा

देश का हर जवान सरहद पर 
खेतवाला मचान पर होगा

कस्मे-वादे निभा के चल वर्ना,
हुस्न तेरा ढलान पर होगा

क्या पता था बुरी नजर का असर
हिन्द के खानदान पर होगा

तुझमें कितना है हौसला 'शेरी'
फैसला इम्तिहान पर होगा। 
-चाँद शेरी

Saturday, November 14, 2015

फिर से बचपन दे दे जरा.............. पुष्पा परजिया


निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में
कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हृदय की इस सृष्टि पर 
एक विहंगम दृष्टि कर जाए 







भीगी पलकें लिए नैनों में रैना निकल जाए 
विचार-पुष्प पल्लवित हो 
मन को मगन कर जाए 

दूर गगन छाई तारों की लड़ी 
जो रह-रह कर मन को ललचाए
ललक उठे है एक मन में मेरे 
बचपन का भोलापन 
फिर से मिल जाए

मीठे सपने, मीठी बातें, 
था मीठा जीवन तबका 
क्लेश-कलुष, बर्बरता का 
न था कोई स्थान वहां 

थे निर्मल, निर्लि‍प्त द्वंदों से, 
छल का नामो निशां न था 
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे ,
तू शांति के दीप जला, इंसा जूझ रहा 

जीवन से हर पल उसको 
तू ढांढस  बंधवा निर्मल कर्मी बनकर
इंसा के जीवन को 
फिर से बचपन दे दे जरा 

-पुष्पा परजिया 

Wednesday, November 11, 2015

दीप मेरे जल अकंपित घुल अचंचल..महादेवी वर्मा


सिंधु का उच्छवास घन है 
तड़ित तम का विकल मन है 
भीति क्या नभ है व्यथा का 
आँसुओं में सिक्त अंचल 

स्वर अकम्पित कर दिशाएँ 
मोड़ सब भू की शिराएँ 
गा रहे आँधी प्रलय 
तेरे लिए ही आज मंगल 

मोह क्या निशि के चरों का 
शलभ के झुलसे परों का 
साथ अक्षय ज्वाल सा 
तू ले चला अनमोल संबल 

पथ न भूले एक पग भी 
घर न खोए लघु विहग भी 
स्निग्ध लौ की तूलिका से 
आंक सब की छांह उज्ज्वल 

हो लिए सब साथ अपने 
मृदुल आहटहीन सपने 
तू इन्हें पाथेय बिन चिर 
प्यास के मधु में न खो चल 

धूप में अब बोलना क्या 
क्षार में अब तोलना क्या 
प्रात: हँस रो कर गिनेगा 
स्वर्ण कितने हो चुके पल 
दीप मेरे जल अकंपित घुल अचंचल 

-महादेवी वर्मा

परिचय: 
::महादेवी वर्मा:: 
आधुनिक युग की मीरा 
हिन्दी के साहित्याकाश में छायावादी युग के प्रणेता 'प्रसाद-पन्त-निराला' की अद्वितीय त्रयी के साथ-साथ अपनी कालजयी रचनाओं की अमिट छाप छोड़ती हुई अमर ज्योति-तारिका के समान दूर-दूर तक काव्य-बिम्बों की छटा बिखेरती यदि कोई महिला जन्मजात प्रतिभा है 
तो वह है ''महादेवी वर्मा''

रचना साभार अनहद कृति
(प्रस्तोता : पुष्पराज चसवाल)


Sunday, November 8, 2015

केसर-चंदन सा महकाने के लिए.... फाल्गुनी









रोज ही 
एक नन्ही सी 
नाजुक-नर्म कविता 
सिमटती-सिकुड़ती है 
मेरी अंजुरि में..
खिल उठना चाहती है 
किसी कली की तरह...
शर्मा उठती है 
आसपास मंडराते 
अर्थों और भावों से..
शब्दों की आकर्षक अंगुलियां 
आमंत्रण देती है 
बाहर आ जाने का. ..
नहीं आ पाती है 
मुरझा जाती है फिर 
उस पसीने में, 
जो बंद मुट्ठी में 
तब निकलता है 
जब जरा भी फुरसत नहीं होती 
कविता को खुली बयार में लाने की...
कविता.... 
लौट जाती है 
अगले दिन 
फिर आने के लिए... 
बस एक क्षण 
केसर-चंदन सा महकाने के लिए....
-स्मृति आदित्य 



Monday, November 2, 2015

नज़र आप ही से मिलाना भी है...........मजाज़ लखनवी


जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

महब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

ये दुनिया ये उक़्बा कहाँ जाइये
कहीं अह्ले -दिल का ठिकाना भी है?

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िये ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

मजाज़ लखनवी
1911- 1955

उक़्बाः परलोक : यमलोक, अह्ले -दिल : दिल वालों का


Sunday, November 1, 2015

इन तस्वीरों में शामिल हो जाऊँ....शुभ्रा ठाकुर












जीवन की आपा-धापी में
सोचा न था
पीछे छूट जाएंगे
कुछ सपने कुछ लम्हें
कुछ वादे कुछ इरादे
वक्त का दरिया बहते-बहते
बहा ले जाएगा सब कुछ
बचपन की यादें
युवा आँखों में तैरते सपने
बालों में नजर आती सफेदी
चश्में से झांकती कुछ आशाएं
शायद सब कुछ
मगर ऐसा न हो सका
वो सब जो पीछे छूटना था
आज भी साथ है
बस अपने ही पीछे छूट चले हैं
छूट चले हैं या छोड़ चले हैं
आहिस्ता-आहिस्ता
उम्र के मोड़ पर
अब साथ है तो सिर्फ
रिश्तों से बंधे कुछ नाम
और दीवारों में टंगी कुछ तस्वीरें
शायद कल
इन तस्वीरों में शामिल हो जाऊँ
मैं भी !!!
-शुभ्रा ठाकुर, रायपुर

Tuesday, October 27, 2015

कितने सागर कितनी नदियां कितनी नावें....शुभ्रा ठाकुर, रायपुर













एक तुम्हारी याद
चली आती है चुपचाप
दबे कदमों से
सहमी साँसों के साथ

कितने सागर
कितनी नदियां
कितनी नावें
टतबंध सारे तोड़कर
बंधन सारे छोड़कर

तय कर सारी दूरियां
सात समंदर पार से भी
नदियां नदियां
दरिया दरिया
सागर सागर
डगमगाती नावें

कंपकपाती-सी पतवारें
आशाओं के टिमटिमाते
जुगनू
अंधियारी - सी रात

और तुम्हारी याद
चली आती है चुपचाप
दबे कदमों से
सहमी साँसों के साथ
बस ! तुम नहीं आते
और मैं रह जाती हूँ
निःशब्द !!! चुपचाप !!!

-शुभ्रा ठाकुर, रायपुर

Sunday, October 25, 2015

मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए....... साहिर लुधियानवी

उनकी पुण्यतिथि पर विशेष
25 अक्टूबर,1980


मैं ज़िंदा हूँ ये मुश्तहर कीजिए 
मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए 
  
ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है 
बसर हो सके तो बसर कीजिए

सितम के बहुत से हैं रद्द-ए-अमल
ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए

वही ज़ुल्म बार-ए-दिगर है तो फिर
वही जुर्म बार-ए-दिगर कीजिए

क़फ़स तोड़ना बाद की बात है
अभी ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए

-साहिर लुधियानवी
1921-1980

मुश्तहरः घोषणा, रद्द-ए-अमलः प्रतिक्रिया, 
बार-ए-दिगरः दूसरे का भार,  क़फ़सः पिंजरा, 
ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-परः पंख आने का इन्तजार 

Sunday, October 4, 2015

चांद पर मेरी उदासी छा जाएगी...स्मृति आदित्य











कल पिघल‍ती चांदनी में 
देखकर अकेली मुझको 
तुम्हारा प्यार
चलकर मेरे पास आया था 
चांद बहुत खिल गया था। 

आज बिखरती चांदनी में 
रूलाकर अकेली मुझको 
तुम्हारी बेवफाई 
चलकर मेरे पास आई है 
चांद पर बेबसी छाई है। 

कल मचलती चांदनी में 
जगाकर अकेली मुझको 
तुम्हारी याद 
चलकर मेरे पास आएगी 
चांद पर मेरी उदासी छा जाएगी।

-स्मृति आदित्य

Tuesday, September 29, 2015

कोई रंगीन सी उगती हुई कविता.... फाल्गुनी

रख दो 
इन कांपती हथेलियों पर 
कुछ गुलाबी अक्षर 
कुछ भीगी हुई नीली मात्राएं 
बादामी होता जीवन का व्याकरण, 

चाहती हूं कि 
उग ही आए कोई कविता
अंकुरित हो जाए कोई भाव, 
प्रस्फुटित हो जाए कोई विचार 
फूटने लगे ललछौंही कोंपलें ...
मेरी हथेली की ऊर्वरा शक्ति

सिर्फ जानते हो तुम 
और तुम ही दे सकते हो 
कोई रंगीन सी उगती हुई कविता 
इस 'रंगहीन' वक्त में.... 

-स्मृति

Wednesday, September 16, 2015

मैं भी हूँ मुझको कुछ करने की इजाज़त दे दो.....नुरूलअमीन "नूर "


अब मेरे दिल को धडकने की इजाज़त दे दो 
अपने दिलकी तरफ चलने की इजाज़त दे दो

मांगकर देख लिया कुछ नहीं हुआ हासिल 
हमें भी आँखें मसलने की इजाज़त दे दो

तुम्हें लगता है के फैला है अँधेरा हम से 
खुशी खुशी हमें जलने की इजाज़त दे दो

अना की धूप से दिल में बहार आती नहीं 
खुश्क आँखों को बरसने की इजाज़त दे दो

भूल ना जाऊं कहीं मैं तेरे गम का सावन 
अपनी जुल्फों से लिपटने की इजाज़त दे दो

तुम हीं थीं जिसके लिए ताज बनाया उसने 
मैं भी हूँ मुझको कुछ करने की इजाज़त दे दो

अब के मैं तेरे आस्ताने पे सर रख दूंगा 
फिर अपने दर से गुजरने की इजाज़त दे दो

ये सच्चा चेहरा मुझे "नूर" दे गया धोका 
मुझे भी चेहरा बदलने की इजाज़त दे दो

-नुरूलअमीन "नूर "

Saturday, September 12, 2015

उम्मीद-ए-वफा रखता हूँ....... नुरूलअमीन "नूर "















ठोकर लगाकर जा रहे हो 
दिल को पत्थर जान कर 
जान भी लेजा मेरी 
एक छोटा सा एहसान कर

मुझको कया दिखलाते हो 
एहद ओ वफा के दायरे 
आया हूँ मैं सैंकडों 
गोलियों की खाक छान कर

हम वतन से आज भी 
उम्मीद-ए-वफा रखता हूँ 
दे रहा हूँ खुद को धोका 
खुद को नादाँ मानकर

ओस का उनको कभी 
एहसास भी होता नहीं 
शाम होते ही जो सो ~
जाते है चादर तानकर

बेवफाई के हर एक 
फन से हमे आगाह कर 
"नूर " अपनी बात कर 
या उनकी बात बयान कर

- नुरूलअमीन "नूर "

Thursday, September 10, 2015

लौट-लौट कर आएगा तुम्हारे पास..... स्मृति आदित्य








मन परिंदा है 
रूठता है 
उड़ता है 
उड़ता चला जाता है 
दूर..कहीं दूर 
फिर रूकता है 
ठहरता है, सोचता है, आकुल हो उठता है 
नहीं मानता 
और लौट आता है 
फिर... 
फिर उसी शाख पर 
जिस पर विश्वास के तिनकों से बुना 
हमारा घरौंदा है
मन परिंदा है 
लौट-लौट कर आएगा तुम्हारे पास 
तुम्हारे लिए...क्योंकि मन जिंदा है!

-स्मृति आदित्य

Saturday, August 29, 2015

सोचिए ज़रा...यशोदा

हार्दिक पटेल...

लोगों का हुजूम

टूट पड़ा है

हर कोई बनना चाहता है

हार्दिक पटेल


क्यों नहीं है ख्वाहिश

बनने की

पार्थिव पटेल


क्यों नहीं बनना चाहते

अक्षर पटेल..

जिसने कल 

भारत का नाम

रौशन किया


सोचिए ज़रा...

इस दिशा में भी

-यशोदा

Tuesday, August 25, 2015

तुम्हारी पलकों की कोर पर...........''फाल्गुनी''




कुछ मत कहना तुम
मैं जानती हूँ
मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर
और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे
समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि
और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...
जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की कि‍र्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ। 

----स्मृति जोशी ''फाल्गुनी''

धरोहर से.......
http://yashoda4.blogspot.in/2012/07/blog-post_10.html

Sunday, August 23, 2015

बार-बार जन्म लेती रहे बेटियां..."फाल्गुनी"










मुझे अच्छी लगती है 
दूसरे या तीसरे नंबर की वे बेटियां 
जो बेटों के इंतजार में जन्म लेती है....

और जाने कितने बेटों को पीछे कर आगे बढ़ जाती है, 
बिना किसी से कोई उम्मीद या अपेक्षा किए

क्या कहीं किसी घर में 
बेटी के इंतजार में जन्मे 
बेटे कर पाते हैं यह कमाल....

अगर नहीं 
तो चाहती हूं कि 
हर बार बेटों के इंतजार में 
जन्म लेती रहें बेटियां...

पोंछ कर अपने चेहरे से 
छलकता तमाम 
अपराध बोध... 
आगे बढ़ती रहे बेटियां... 
बार-बार जन्म लेती रहे बेटियां...

-स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"










Saturday, August 22, 2015

गुलमोहर की सिंदूरी छांव तले...... "फाल्गुनी"
















कल जब 
निरंतर कोशिशों के बाद, 
नहीं जा सकी 
तुम्हारी याद, 

तब
गुलमोहर की सिंदूरी छांव तले 
गहराती 
श्यामल सांझ के
पन्नों पर 
लिखी मैंने 
प्रेम-कविता, 
शब्दों की नाजुक कलियां समेट 
सजाया उसे 
आसमान में उड़ते 
हंसों की 
श्वेत-पंक्तियों के परों पर, 
चांद ने तिकोनी हंसी से 
देर तक निहारा मेरे इस पागलपन को, 
नन्हे सितारों ने 
अपनी दूधिया रोशनी में
खूब नहलाया मेरी प्रेम कविता को, 
कितने अभागे हो ना तुम 

जो 
ना कभी मेरे प्रेम के 
विलक्षण अहसास के साक्षी होते हो 
ना जान पाते हो कि 
कैसे जन्म लेती है कविता। 
लेकिन कितने भाग्यशाली हो तुम 
मेरे साथ तुम्हें समूची सांवल‍ी कायनात प्रेम करती है, 
और एक खूबसूरत कविता जन्म लेती है 
सिर्फ तुम्हारे कारण।

-स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"