Friday, July 19, 2013

मन बहक-बहक जाता है..................शकुंतला बहादुर

उलझनें उलझाती हैं
मन को भटकाती हैं।
कभी इधर, कभी उधर
मार्ग खोजने को तत्पर
भंवर में फंसी नाव-सा
लहरों में उलझा-सा
बेचैन डगमगाता-सा
मन बहक-बहक जाता है।
मंजिल से दूर...
बहुत दूर चला जाता है।

कभी लगता है कि रेशम के धागे
जब उलझ-उलझ जाते हैं
चाहने पर भी सुलझ नहीं पाते हैं
टूट जाने पर से गांठें पड़ जाती हैं
जो हमें रास नहीं आती हैं
किंतु, धैर्य से उन्हें सुलझाते हैं
तो सचमुच सुलझ जाते हैं

सोचती हूं, उलझना तो
चंचल मन की एक प्रक्रिया है
जो विचार शक्ति को कुंद करती है
मन को चिंतामग्न
और शिथिल करती है।

इस पार या फिर उस पार
जिसका निर्णय सुदृढ़ है
जो स्थिर-बुद्धि से बढ़ता है
उलझनों से वह बचता है
वही सफल होता है
और मंजिल पर पहुंचता है।

जीवन अगर सचमुच जीना है
तो उलझनों से क्या डरना है?
पथ के हैं जंजाल सभी ये
रोक सकेंगे नहीं कभी ये।

उलझन पानी का बुलबला है
चाहें उसे फूंक से उड़ा दो
या फिर उसके चक्रव्यूह में
अपना मन फंसा दो।

तभी तो ज्ञान कहता है
जिसने मन जीता
वही जग जीता है। 

- शकुंतला बहादुर

9 comments:

  1. वाह शकुन्तला जी, छिपी रुस्तम निकलीं आप तो - पूरा जीवन दर्शन कविता में पिरो दिया !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (19-07-2013) को स्वर्ग पिता को भेज, लिया पति से छुटकारा -चर्चा मंच 1311 पर "मयंक का कोना" में भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सच पूरा जीवन दर्शन दर्शाता है...
    अच्छी कविता पढ़ने के लिए
    धन्यवाद !!

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  4. वाह बहुत सुंदर जीवन दर्शन ....मार्गदर्शन भी ....
    शुभकामनायें ....

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    1. bahut sundar abhivyakti , choti bahan anand aa gaya padhkar sundar bhav

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  5. जीवन दर्शनयुक्त सुंदर कविता...

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  6. बहुत सुंदर रचना
    क्या बात


    मेरी कोशिश होती है कि टीवी की दुनिया की असल तस्वीर आपके सामने रहे। मेरे ब्लाग TV स्टेशन पर जरूर पढिए।
    MEDIA : अब तो हद हो गई !
    http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/media.html#comment-form

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  7. भावों से नाजुक शब्‍द को बहुत ही सहजता से रचना में रच दिया आपने.........

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  8. बहुत अच्छी रचना, बहुत सुंदर

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