Thursday, December 31, 2020

टाट का परदा ...परवीन शाकिर

टाट के परदे के पीछे से 
एक बारह तेरह साला चेहरा 
झांका 
वह चेहरा 
बहार के पहले 
फूल की तरह ताजा था 
और आँखे 
पहली मोहब्बत की तरह शफ्फाक 
लेकिन उसके हाथ में 
तरकारी काटते रहने की लकीरे थी 
और उन लकीरों में 
बर्तन मांजने की 
राख जमी थी 
उसके हाथ 
उसके चेहरे से 
बीस साल बड़े थे

 - परवीन शाकिर

Wednesday, December 30, 2020

कोई दुःख इतना बड़ा नहीं होता...अकिञ्चन धर्मेन्द्र

कोई दुःख
इतना बड़ा नहीं होता...
जितना
मन ने बढ़ा लिया धीरे-धीरे..;
पानी में पड़े
तेल की बूँद की तरह..!
न ही मन का ख़ालीपन
इतना विस्तृत..;
जिसमें समा जाए-पूरा पहाड़..!
कोई अनुभूति
इतनी गहरी नहीं होती कि
उसके मापन के लिए
असफल हो जाएँ-
सारे निर्धारित मात्रक..!
कोई रुदन
इतना द्रावक नहीं होता कि
बन जाए-
एक नया महासागर..!
कोई व्याकुलता
इतनी विवश नहीं होती कि
भरी दोपहरी भी
अमावस की
अँधेरी-आधी रात लगने लगे..!
न ही कोई सन्तोष
इतना फलदायी कि
बालू निचोड़कर
प्यास बुझायी जाए..!
पागलपन की
निर्मम भावुकता लिए
भटकते-भटकते...
अब तो केवल होंठ ही नहीं..;
जल जाती है-
आत्मा तक भी..!
काश!
हम दूध ही फूँक-फूँककर पिये होते..!
©अकिञ्चन धर्मेन्द्र

Tuesday, December 29, 2020

सोच की परिधि ....डॉ. ऋतु नरेन्द्र

कभी कभी,,,
लगता है
कहीं मेरे शब्द,,
न चल दें ,,
समापन रेखा की ओर,,
मेरी संवेदनाएं ,,
मेरे विरुद्ध ,,
ना खड़ी हो जाएं,,,
कदाचित,,
चेतना शून्य,,
ना हो जाए , मेरे भाव,,
तभी ।।
अचानक,,
हृदय पोखर में,,
समय का,,
कंकड़ गिरता है,,
तडाक,
और,,
सोच की परिधि,,
विशाल होती जाती है,,
इक छोटी वृत से,,,
बड़े वृत की ओर,,,
भागती हुई,,
और ,,
समझाती है,,
जब तक
संसार प्रकाशित है,,
नित्य नए समीकरण,
उदित होंगे,,
और ।।
नवीन प्रयोग,,
होते रहेंगे
और,,,
बनते रहेंगे,,
नवीन शब्द योग,,,
और होता रहेगा,,,
नयी ,,
कविताओं,,
का सृजन।
-ऋतु

Monday, December 28, 2020

प्रभात-सौंदर्य ....कौशल शुक्ला

प्रसन्न चित्त भावना, विषाद को निगल गयी।
नयी नयी उमंग देख, आत्मा उछल गई।।

निरख सुबह कि लालिमा, निशा प्रछन्न हो गयी
गगन की ओर देखकर, धरा प्रसन्न हो गयी
प्रभात में तरंग का, प्रवाह तेज हो गया
उषा ने आँख खोल दी, भ्रमर कली में खो गया

चमन में फूल खिल गया, बहार फिर मचल गयी।
नयी नयी उमंग देख, आत्मा उछल गई।।

किरण चली दुलारने, नए नए विहान को
खगों की झुंड उड़ चली, विशाल आसमान को
पुकारने लगा विहान, बाग दे रहा समय
उठो तुम्हे है जागना, कि सूर्य हो गया उदय

सुगंध संग ले पवन, कली को छू निकल गयी।
नयी नयी उमंग देख, आत्मा उछल गई।।

- कौशल शुक्ला

मूल रचना

Sunday, December 27, 2020

जो जलने के अभ्यस्त हैं.. ...अकिञ्चन धर्मेन्द्र



अँजुरी-भर जल की आवश्यकता
उन्हें होती है..;
जिन्हें प्यास लगी हो..!
जो जलने के अभ्यस्त हैं..;
वे पानी से भी जल सकते हैं..!
कविताएँ उनके लिए हैं..;
जिन्हें प्रिय है-नीला रंग..!
रिक्तताएँ
जन्मदात्री होती हैं..;
कलाओं की..!
आसन्नप्रसवा वेदना से
हूकता है-मन..!
किसी भयावह,निर्जन जंगल में
भटकते-भटकते
जो पागल हो जाते हैं..;
वे भी जन्म लेते होंगे-
किसी अग्निधर्मा,उर्वर गर्भ से ही..!
अभागे
आकाश फाड़कर नहीं आते..!
इस धरती के
दहकते हुए मञ्च पर
तुम्हें करना ही होगा-
अपने हिस्से का कत्थक..!
चुटकी-भर वातास में
भुनी जा सकती है-आत्मा भी..!
तुम
जिन्हें पा नहीं सकते..;
उन्हें गा सकते हो..!
जब समय के सींखचे से
झाँकने लगें-शताब्दियाँ..;
हृदय के बहुत गहरे धँसीं
ज़हरबुझीं,नुकीली कीलों को छूना...
कोई सम्बन्ध
किसी दर्द से बड़ा नहीं होता..!

©अकिञ्चन धर्मेन्द्र 

Saturday, December 26, 2020

प्यार का गणित ...रुचि बहुगुणा उनियाल


प्यार का गणित
और अनाड़ी मैं!
तुम्हारे आने के पहले भी
मैं एक थी
तुमसे मिलकर
जब खुद को तुमसे जोड़ा
तब भी…..
दो की जगह एक ही रही
तुम्हारे जाने के बाद
खुद को घटाया तो
ना जाने क्यों
सिफ़र हो गई ?
क्या करूँ
बहुत पेचीदा है
इश़्क का हिसाब
समझ ही नहीं आता!
©रुचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर 

Friday, December 25, 2020

हम हैं, हम रहेंगे, यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा ..अटलबिहारी वाजपेई

आज भारतरत्न अटल जी का जन्मदिन है
शत-शत नमन
..
पढ़िए उनकी एक रचना

जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।

जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।

होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,

हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।

सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।

मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।

किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।
प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।

सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?

हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

-अटलबिहारी वाजपेई


Thursday, December 24, 2020

रूह हूं मैं ...नीलम गुप्ता

 रूह हूं मैं
मुझे चांद ना कहना
उसमें तो दाग है
मुझे फूल भी ना कहना
मुरझाना उसका भाग्य है
मै कोई परी भी नहीं
जो आसमां मे उड़ जाऊं
मै कोई किताब भी नहीं
जो रद्दी में बेच दी जाऊं
मै तेरा आज नहीं
जो कल नजर ना आऊं
मैं कोई परछाई भी नहीं
जी अंधेरे से डर जाऊं
मै तो तेरे रूह का हिस्सा हूं
जिसे तू भी मिटा नहीं सकता
अपने नाम से मेरा नाम
हटा नहीं सकता
जब भी सांस लेगा तू
मुझे ही महसूस करेंगा
जाएगा कहां भागकर खुद से
मेरा अस्तित्व तो
हर जगह मौजूद रहेगा
स्वरचित 
©नीलम गुप्ता

 

Wednesday, December 23, 2020

बह चली नेह गंगा ....डॉ. अंशु सिंह


तुमको बाँहों के बन्धन में मैं बाँध लूँ
नेह से तेरे मस्तक पर मैं चूम लूँ

शुभ दिवस पर तुम्हें क्या मैं अर्पण करूँ
धड़कनों की मधुर तान पर झूम लूँ

अपनी झोली भरूँ तेरे आशीष से
भर दूँ तेरे हृदय को अमर प्यार से

मन तो आकुल बहुत है तेरी याद में
बाँध लू चाँद अंबर में मनुहार से

नव सृजन से मैं तेरी करूँ अर्चना
शब्द हैं मौन कह दूँ इशारों से मैं

तुम तो नयनों से उतरे हृदय में बसे
कल्पना को सजाती सितारों से मैं

चूम कर तेरे माथे की उलझी लटें
भर दिया प्यार से सांध्य आकाश है

बिखरी अलकों को सुलझा रही हूँ तेरी
भर गया आज तन मन में मधुमास है

बह चली नेह गंगा नयन कोर से
भीगते छोर आँचल किनारों से हैं

प्रीति भरके प्रवाहित हुई एक नदी
झूमती दस दिशाऐं बहारों से हैं

तब प्रणय गीत अधरों पे सजने लगे
बन्द पलकें सजल डबडबाने लगीं

लेखनी चल पड़ी तेरे अहसास कर
शब्द दर शब्द भर कंपकंपाने लगी

-डॉ. अंशु सिंह

Tuesday, December 22, 2020

सकुची, लिपटी, शरमाई सी रचना ..कवि कुलवंत सिंह

सकुची, लिपटी, 
शरमाई सी रचना

जाग जाग है प्रात हुई,
सकुची, लिपटी, शरमाई ।

अष्ट अश्व रथ हो सवार
रक्तिम छटा प्राची निखार

अरुण उदय ले अनुपम आभा
किरण ज्योति दस दिशा बिखार ।

सृष्टि ले रही अँगड़ाई,
जाग जाग है प्रात हुई ।

कण - कण में जीवन स्पंदन
दिव्य रश्मियों से आलिंगन

सुखद अरुणिम ऊषा अनुराग
भर रही मधु, मंगल चेतन

मधुर रागिनी सजी हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।

अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित
धरती अंचल रंजित शोभित

भृंग-दल गुंजन कुसुम-वृंद
पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित ।

उनींदी आँखे अलसाई
जाग जाग है प्रात हुई ।

रमणीय भव्य सुंदर गान
प्रकृति ने छेड़ी मद्धिम तान

शीतल झरनों सा संगीत
बिखरते सुर अलौकिक भान ।

छोड़ो तंद्रा प्रात हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।

उषा धूप से दूब पिरोती
ओस की बूँदों को सँजोती

मद्धम बहती शीतल बयार
विहग चहकना मन भिगोती ।

देख धरा है जाग गई
जाग जाग है प्रात हुई ।

-कवि कुलवंत सिंह



Monday, December 21, 2020

देर ना हो जाए ...नीलम गुप्ता

 

देर ना हो जाए

सिगरेट फूंकती लड़की

बदचलन कहलाती

और लड़का मर्द

कहा जाता

दोनों के गुर्दे क्या

अलग अलग ब्रांड के है

लड़की का भूगोल नापतें नापतें

इतिहास पर नजर अटक जाती 

उसका कौमार्य ही 

उसकी पहचान कहलाती

बड़े अजीब नजारे दुनिया ने दिखाए है

मर्द सुबह का भूला शाम को भी ना आता

फिर भी लड़की पर इल्जाम लग जाता

कैसी पत्नी, रूप में ना फंसा सकी

पति के दिल में ना समा सकी

इल्जाम हर बार आना ही है

बिना गुहार सुने, फैसला सुनाना ही है

तो फिर चोला क्यों हम पहन घूमते रहे

क्यों और कब तक बिना वजह सहे

बस यही से कहानी बदल गईं

आज लड़की हावी हो रही

जितना दबाया सताया था उसे

आज उतना ही वो भारी हो रही

समझ लो कहीं देर ना हो जाएं

आपका लडका भी कहीं

चाय की ट्रे लेकर ना जाए

ओर लड़की उसके

कौमार्य पर सवाल उठाएं 

स्वरचित 

-नीलम गुप्ता

कविताएं डॉ अंशु के साथ

Sunday, December 20, 2020

शीशा चुभे या कांटा ...पावनी दीक्षित जानिब

 गंवार हूं मेरा दर्द कुछ खास नहीं होता

शीशा चुभे या कांटा मुझे अहसास नहीं होता।


जब भी लगी ठोकर हम रोकर संभल गए

गैर क्या अपना भी कोई पास नहीं होता।


मुझे किसी के साने की कीमत क्या पता

गवार न होते तो ये कच्चा हिसाब नहीं होता।


महफिल थी काबिलों की हम खामोश हो गए

दिल है के नहीं दिलमें ये आभास नहीं होता।


ये हम मानते हैं अब हम मगरूर हो गए हैं

के मुझको ही मेरे दर्द पे विश्वास नहीं होता।


जानिब ये एक बात है अब भी कहीं दिल में

धरती अगर न होती तो आकाश नहीं होता।

-पावनी दीक्षित जानिब 

सीतापुर


Saturday, December 19, 2020

उसकी जुल्फों का था साया दोस्तों ..नवीन मणि त्रिपाठी

हासिल ग़ज़ल 

2122 2122 2112

कर   के  वादा  वो   निभाया  दोस्तो ।

बा  वफ़ा   फिर  याद  आया  दोस्तो ।।


वो  नज़र  पढ़  कर  गयी  जब से मुझे ।

नूर   रुख़   पर  लौट  आया  दोस्तो ।।


हैं   बहुत  मग़रूर  जानां  हुस्न   पर ।

आइना    किसने   दिखाया    दोस्तो ।।


अब  मुहब्बत  है   ज़रूरी  मुल्क   में ।

मत   कहो  अपना   पराया   दोस्तो ।।


इश्क़  में  मत  पूछना  ये  बात   अब ।

दिल ने कितना ज़ख्म खाया दोस्तो ।।


हाले  दिल  की  है ख़बर  सबको  यहां ।

किसने   कितना  है  रुलाया  दोस्तो ।।


बाद   मुद्दत   मैक़दे   में  आज   फिर ।

मुझको    साकी   ने  पिलाया  दोस्तो ।।


चीज़  क्या  है  मैकशी   समझा  तभी ।

जब  लबों  तक  जाम  लाया  दोस्तो ।।


ख़ुद  को  बस  तन्हा  ही पाया  भीड़ में ।

जब   भी   तुमको  आजमाया  दोस्तो ।।


चांदनी  रोशन  हुई   महफ़िल   में  तब।

चाँद   जब   भी   मुस्कुराया   दोस्तो ।।


दिन   अंधेरी   रात   सा  लगने    लगा ।

उसकी जुल्फों  का था साया दोस्तों ।। 

-नवीन मणि त्रिपाठी

Friday, December 18, 2020

उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल .... जौन एलिया




उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल

उस गली से गुमान की, उठ चल


मांगते हो जहाँ लहू भी उधार

तुने वां क्यों दूकान की, उठ चल


बैठ मत एक आस्तान पे अभी

उम्र है यह उठान की, उठ चल


किसी बस्ती का हो न वाबस्ता

सैर कर इस जहाँ की, उठ चल


जिस्म में पाँव है अभी मौजूद 

जंग करना है जान की, उठ चल

 

तू है बेहाल और यहाँ साजिश  

है किसी इम्तेहान की, उठ चल 


है मदारो में अपने सय्यारे 

ये घड़ी है अमान की, उठ चल 


क्या है परदेस को देस कहाँ  

थी वह लुकनत जुबां की, उठ चल 


हर किनारा खुर्म मौज थे 

याद करती है बान की, उठ चल 


- जौन एलिया

मूल रचना



Thursday, December 17, 2020

दुश्मनों के लिए तलवार बने बैठे ..... "मेहदी हल्लौरी "

 अपनी  क़ब्रों  के   ज़मीदार   बने   बैठे  हैं,

बेनियाज़ी  में  भी   दिलदार   बने   बैठे  हैं।


उन  को  ग़द्दारी की ऐनक से न  देखो प्यारे,

जो  अज़ल  से   ही  वफ़ादार  बने  बैठे  हैं।


आंधी  तूफ़ान  में  भी सीना  सिपर रहते हैं,

दुश्मनों    के    लिए    तलवार   बने   बैठे।


सारी तामीर की तहरीर को पढ़ कर आओ,

हर   ज़माने   के  ही   मेमार   बने   बैठे  हैं।


चाहने  से  तेरे   ग़रक़ाब   नहीं   हो  सकते,

डूबती    कश्ती   के   पतवार  बने   बैठे  हैं।


जो  कि  सन्नाटे  में  घुंघुरू  से  डरे  रहते  हैं,

सहमी  पाज़ेब   की   झंकार   बने   बैठे  हैं।


प्यार की बात समझ मे नहीं आती  जिनको,

राहे   उलफ़त   में  वो   दीवार   बने  बैठे हैं।


मुंह  की  खाते  रहे मैदान में जो जा जा कर,

दीन  व  दुनिया  के  वो  सरदार  बने बैठे  हैं।


सिर्फ़ बदकारी के अफ़सानों में मिलते हैं जो,

' मेहदी ' अब  साहबे  किरदार  बने  बैठे  हैं।


- मेहदी अब्बास रिज़वी

   " मेहदी हल्लौरी "


Wednesday, December 16, 2020

हर इरादा मोहब्बत का नाकाम आया है .....पावनी जानिब


 हर इरादा मोहब्बत का नाकाम आया है

राहें अपनी जुदा हुई हैं वो मकाम आया है।


सुना है दोस्ती से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता

मेरे दुश्मनों में दोस्तों का ही नाम आया है।


वो ख़त जो हमने लिखेथे उनको बेकरारी में

जवाब में हमारी मौत का फरमान आया है।


गुनाह ए इश्क दोनों ने ही किया था कभी

बस मुझपे ही क्यों इश्क का इलज़ाम आया है।


यह आखिरी है मुलाकात इसे कुबूल करो

बेवफा तेरे लिए आखिरी सलाम आया है।


मुझे हर हाल में जीना गंवारा है जानिब
जब जिसकी जरूरत थी वो कब काम आया है।


- पावनी जानिब सीतापुर

Tuesday, December 15, 2020

नेज़ों पे दौड़ने का हुनर ढूंढता रहा ....सचिन अग्रवाल



नेज़ों पे दौड़ने का हुनर ढूंढता रहा
हमको हमारे बाद सफ़र ढूंढता रहा..

जब साथ थे तो संजीदा वो ही था और न मैं
वो मुझको और मैं उसको मगर ढूंढता रहा..

सूरज ख़रीद डाले हैं लोगों ने और मैं
ताउम्र जुगनुओं में सहर ढूंढता रहा..

होने को यूं तो नाम वसीयत में था मगर
एक बाप अपना लख्ते जिगर ढूंढता रहा..

अफ़वाह में वो आंच थी अखबार जल गए
मैं इश्तिहारों में ही ख़बर ढूंढता रहा ......

ये देखिये कि कितनी थी शिद्दत तलाश में
मत पूछिए मैं किसको किधर ढूंढता रहा .

(क़तरा से)
- सचिन अग्रवाल

Monday, December 14, 2020

समर्पण ....अजनबी

 


अपनी मोहब्बत को इक नाम यह भी दे दो-
ये अजनबी सी आंखों का समर्पण है बस

ना तुम हो, ना मैं हूं, ना जमाने की भीड़-
हम दोनों के बीच खड़ा गूंगा दर्पण है बस।

क्या दूं, क्या है, पास मेरे बताओ तो जरा-
मेरा तो हर ख्वाइश तुझ पर अर्पण है बस।

सुनो जरा, समझो मुझे, झांक कर देखो तो-
मेरे मन के हर ख्वाब में तेरा ही दर्शन है बस।

भला दूं तुम्हें या, तुम भूल जाओ, "अजनबी"-
समझ लेना उसी दिन, हो गया तड़पन है बस।।
"अजनबी"

Sunday, December 13, 2020

क्यूं रूठे है सनम आप हमसे ....प्रीती श्रीवास्तव

 


नजरो से अपनी पिलाइये तो जरा।
हस कर करीब मेरे आइये तो जरा।।


क्यूं रूठे है सनम आप हमसे।
क्या वजह है बताइये तो जरा।।

दिल है मेरा कांच का सनम।
इस पर रहम खाइये तो जरा।।

 टूटकर बिखर न जाऊं कहीं।
दिल की दिल को सुनाइये तो जरा।।

 प्यासे ही रह गये जाकर मयखाने।
थोड़ी ही सही पिलाइये तो जरा।।

सबकी नजरें उठ रही बार बार।
हया को आँखों में लाइये तो जरा।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Saturday, December 12, 2020

तुम कैसी हो कुछ हाल कहो ..अमित 'केवल'

कुछ मेरी भी सुनती जाओ
और कुछ अपने सवाल कहो

अब मिले हो कितने सालों बाद
कैसे गुज़रे ये साल कहो

मेरे भी दिल की कुछ सुन लो
कुछ अपने भी हालात कहो

रहने दो ज़ुल्फों को यूँ ही
तुम ऐसे ही सब बात कहो

तुम देखो मत मेरी आँखों में
बस ज़रा अपनें जज़्बात कहो

थोड़ा तकल्लुफ तो लाज़िम है
पर बार बार मत आप कहो

अब भी बिल्कुल वैसे ही हो
इसका भी कुछ राज़ कहो

क्या याद तुम्हे अब भी है वो
अपनी पहली मुलाकात कहो

अपने मौसम का प्यारा सावन
अपनी भीगी बरसात कहो

क्या भूल चुकी हो अपना माज़ी
या याद तुम्हें है हर बात कहो

खत वो सारे जो तुमको लिखे
सूखे हुए वो गुलाब कहो।

मैं तो वही पुराना सा हूँ
फिर खड़े हो क्यूँ चुपचाप कहो।

तुम क्यों झिझक रही हो मुझसे
जो कहना है बेबाक कहो।

शिकवा कोई अगर मुझसे है तो
अपने दिल की भड़ास कहो।

इतने सालों में इक भी बार
क्या आई मेरी याद कहो।

मैं तो तुम्हे अब तक न भूला
तुम भी करती हो क्या याद कहो।

- अमित 'केवल'