ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ...........रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
(इस ब्लाग की दो सौ पचासवीं पोस्ट)
कटी है उम्र गीतों में, मगर लिखना नहीं आया।
तभी तो हाट में हमको, अभी बिकना नहीं आया।
ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ,
उन्हें तो एक डाली पर कभी टिकना नहीं आया।
सम्भाला होश है जबसे, रहे हम मस्त फाकों में,
लगें किस पेड़ पर रोटी, हुनर इतना नहीं आया।
मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं,
तभी तो देश की ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।
नहीं पहचान पाये "रूप" को अब तक दरिन्दों के,
पहाड़ा देशभक्ति का हमें गिनना नहीं आया।
-रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
फेसबुक में पोस्ट की गई रचना
शुभप्रभात छोटी बहना
ReplyDeleteकटी है उम्र गीतों में, मगर लिखना नहीं आया।
सच में ?
सार्थक अभिव्यक्ति
हार्दिक शुभकामनायें
बहुत खुबसूरत रचना....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (03-07-2013) को बुधवारीय चर्चा --- १२९५ ....... जीवन के भिन्न भिन्न रूप ..... तुझ पर ही वारेंगे हम ....में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ReplyDeleteसम्भाला होश है जबसे, रहे हम मस्त फाकों में,
लगें किस पेड़ पर रोटी, हुनर इतना नहीं आया।
बहुत ही बढ़िया गजल
आभार आदरणीय-
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
शास्त्री जी को पढना अपने आप मे सुखद अनुभव है। उनको पढ़ने से लगता है कि कविता हमारे आस पास है, बस उसे समझो और शब्दो में पिरो दो। खुद शास्त्री जी जितने सरल हैं उससे ज्यादा सरल उनकी रचनाएं।
ReplyDeleteयशोदा जी आपकी ये यात्रा यूं ही जारी रहे..
शुभकामनाएं..
TV स्टेशन ब्लाग पर देखें .. जलसमाधि दे दो ऐसे मुख्यमंत्री को
http://tvstationlive.blogspot.in/
गजब भाव है……अद्भुत रचना…… शास्त्री को बधाई!!
ReplyDeleteआप भी अनमोल रचनाएं खोज लाती है। 250 वी पोस्ट के लिए बधाई और ढेरों शुभकामनाएं
मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं,
ReplyDeleteतभी तो देश की ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।
नहीं पहचान पाये "रूप" को अब तक दरिन्दों के,
पहाड़ा देशभक्ति का हमें गिनना नहीं आया।
bahut sundar aur yatharth abhivykti ....gajal ka hr sher lajbab hai.
अति सुन्दर ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ,
ReplyDeleteउन्हें तो एक डाली पर कभी टिकना नहीं आया।
सम्भाला होश है जबसे, रहे हम मस्त फाकों में,
लगें किस पेड़ पर रोटी, हुनर इतना नहीं आया।
मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं,
तभी तो देश की ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।
नहीं पहचान पाये "रूप" को अब तक दरिन्दों के,
पहाड़ा देशभक्ति का हमें गिनना नहीं आया।
मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं,
ReplyDeleteतभी तो देश की ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।
...वाह! बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति....
हमेशा की तरह बहुत सुंदर
ReplyDeleteशास्त्री जी दवारा सुंदर सृजन,बहुत उम्दा प्रस्तुति,,,आभार
ReplyDeleteRECENT POST: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.
शास्त्री जी पढ़ना एक सुखद अनुभव है
ReplyDeleteकुछ सीखने मिलता है
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति की रचना
सादर
जीवन बचा हुआ है अभी---------
वाह लाजबाब रचना
ReplyDeleteभारती दास
कटी है उम्र गीतों में, मगर लिखना नहीं आया।
ReplyDeleteतभी तो हाट में हमको, अभी बिकना नहीं आया।
ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ,
उन्हें तो एक डाली पर कभी टिकना नहीं आया।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति की रचना
सादर