चेहरे बदलने का हुनर मुझमें नहीं,
दर्द दिल में हो तो हँसने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो आईना हूँ तुझसे, तुझ जैसी ही बात करूँ,
टूट कर सँवरने का हुनर मुझमें नहीं।
चलते-चलते थम जाने का हुनर मुझमें नहीं,
एक बार मिल कर छोड़ जाने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो दरिया हूँ, बहता ही रहा,
तूफान से डर जाने का हुनर मुझमें नहीं।
सरहदों में बँट जाने का हुनर मुझमें नहीं,
रोशनी में ना दिख पाने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो हवा हूँ महकती ही रही,
आशियाने में रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।
दर्द सुनकर और सताने का हुनर मुझमें नहीं,
धर्म के नाम पर खून बहाने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो इन्सान हूँ, इन्सान ही रहूँ,
सब कुछ भूल जाने का हुनर मुझमें नहीं।
मैं तो रात को ही दिखूँगा,
दिन में दिख पाने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो चाँद हूँ तन्हा ही रहा,
तारों की तरह साथ रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।
मैं तो जिन्दगी हूँ चलती ही रहूँ,
बेवक्त साथ छोड़ जाने का हुनर मुझमें नहीं।
मैं एक एहसास हूँ, मन में ही बसूँ,
भगवान की तरह पत्थर में रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।
-----------हेमज्योत्सना 'दीप'
ब्लाग "धरोहर" से
http://yashoda4.blogspot.in/2012/03/blog-post_20.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बृहस्पतिवार (25-07-2013) को हौवा तो वामन है ( चर्चा - 1317 ) पर "मयंक का कोना" में भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक एक शब्द प्रभाव छोडता हुआ .....बहुत सुंदर ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!बहुत सुंदर ....
ReplyDeleteमैं तो दरिया हूँ, बहता ही रहा,
ReplyDeleteतूफान से डर जाने का हुनर मुझमें नहीं। ..
बहुत खूब ... लाजवाब गज़ल है .. और हर शेर आपके हुनर का प्रतीक है ....
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete