Friday, June 27, 2014

जुगाड़...................मनीषा साधू




 











आज बुलाया है दोस्तों ने
"बैठेंगे मिल के चार यार.." स्टाईल में

सोच रहे हैं, क्या-क्या करेंगे तैयारियाँ
कोई बनायेगा बहानें घर में
’वर्कलोड’ के
कोई देगा और कारण ओवरटाईम का

लायेगा कोई ख़ास ब्रांड
विलायत से गिफ़्ट आया
और बड़ों का शरबत बताकर
बीवी के माध्यम से बच्चों से बचाया गया

किसी के खाली पड़े दफ़्तर में
पहले ही पहुँच चुके होंगे
दराज में काँच के गिलास
इसे करना है अब बाकी का ’जुगाड़’

ऑफ़िस खतम होने के इंतज़ार में
ये जिये जा रहा है बाद वाले पल
शर्ट की तरह
यह भी अस्त-व्यस्त हो गया है,
इन दिनों कि तरह
सोच रहा है, थोड़ा समय निकाल कर
टी-शर्ट डाल लेता, या डिओ ही मार आता थोड़ा
पर घर जा कर आने की कल्पना ही
उसका उत्साह खतम करती
वही बीवी, वही घर, वही बच्चें, वही माँगें,
और वही ’वह’.. खुशनसीब पापा बना हुआ
प्यारी सी बीवी का प्यारा सा पति..

वो हाथ से ही बाल ठीक करता है
टेबल पर रखे काँच में देखकर
हाथों से कमीज की सिलवटें साफ़ करता
जैसे मन की ही कर रहा हो

तसल्ली देता अपने आपको
कि आज भी वह
कॉलेज के दिन खतम करता
नौजवान ही तो है
तुलना करता है दोस्तों के ज़रा
ज़्यादा दिखाई देते गंजेपन से
अपने बढ़ते हुये माथे की

कल्पना से ही नाप लेता है
सब के पेट के घेरे इंचों में
और फिर
खुशनसीब दोस्त बना फिरने का
उत्साह बटोरता है मन में
एक-दूसरे को चिढ़ाने के
लिये वही पुराने नाम लडकियों के
दोहराता है मन में,
और वही एक-दूसरे को लजाते किस्से

और धीमे पड़ते ठहाके, शादी की बातें आते-आते
आज का दिन तो बातों में भी
दुबारा जीना नहीं चाहता कोई..
सब ठीक-ठाक कर
बस निकलने को उठता है
समय की इस जेल से

तो फोन बज उठता है

’सुनों पप्पू के पापा...
आज जल्दी घर आना होगा,
माँ-बापू आये है गाँव सें अचानक..’
अचानक ही तो हमेशा उसके अरमानों पर..
सोचते सोचते झटक देता है सर
कुर्सी में सुन्न सा बैठ
हाथ मुँह के सामने धर;
साँस छोड़कर देखता है..

नहीं छुपा सकेगा...
बापू की नाक
आज भी बड़ी तेज़ है!
बड़े यत्न से किया आज के दिन का ’जुगाड़’
वही दराज में बंद कर देता है

और खुशनसीब बापू का बेटा
एक बार फिर
घर की ही ओर मुड़ता है


-मनीषा साधू

Friday, June 20, 2014

फिर मैंने सब कुछ हारा...............फाल्गुनी
















तुमने रखा मेरी गुलाबी हथेली पर
एक जलता हुआ शब्द-अंगारा
और कहा कि चीखना मत
बस यही सच है रिश्ता हमारा।

तुमने चाहा कि तुम्हारे शब्द की
जलती हुई चटकन को भूल
तुम्हें एक मुस्कान का शीतल छींटा दूँ
पर कैसे करती मैं वह,
जब हथेली में दर्द के हरे छाले
निकल आए।
और मेरे सुलगते सवालों के
तुम्हारे तीखे जवाब चलकर आए।

रिश्तों की दहलीज पर आज
फिर मैंने सब कुछ हारा,
बस, एक शब्द तुम्हारा
और खेल खत्म हुआ सारा। 


-फाल्गुनी

Sunday, June 15, 2014

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा.....डॉ. विष्णु सक्सेना

 
 
रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा,
एक आई लहर तो कुछ बचेगा नहीं
तुमने पत्थर सा दिल कह तो दिया हमको
पत्थरों पर लिखोगे तो मिटेगा नहीं

मैं तो पतझर था फिर क्यूं निमंत्रण दिया
ऋतु बसंती को तन में लपेटे हुए
आस मन में लिए प्यास तन में लिए
कब शरद आई पल्लू समेटे हुए

तुमने फेरी निगाहें अंधेरा हुआ
ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं
मैं तो होली मना लूंगा सच मानिए
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो

मैं तुम्हें सौंप दूंगा तुम्हरी धरा
तुम मेरे पंखों को आकाश दो
उंगलियो पर दुपट्टा लपेटो न तुम
यूं करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं

आंख खोली तो तुम रुक्मिनी-सी लगी
बंद की तो राधिका लगी तुम
जब भी कभी तुम्हें शांत एकांत में
मीरा बाई-सी साधिका तुम लगी

कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो
मन कहीं भी रहे डिगेगा नहीं...

-डॉ. विष्णु सक्सेना
 
प्राप्ति स्रोतः रसरंग

Friday, June 13, 2014

लिख दूँ पाती बापू को....दिनेश प्रभात


फादर्स डे पर

रात-रात भर खांसी चलती, नींद न आती बापू को,
बिटिया जब से युवा हुई है, चिंता खाती बापू को.
ढेरों दर्द,हज़ारों ग़म, वे अपने दिल में पाले हैं,
इसलिए ईश्वर ने दी है, चौड़ी छाती बापू को.

किसी जाने आभा सेर वे अकेले खाते थे,
आज बड़ी मुश्किल से लगती है एक चपाती बापू को.
"धापू" फूल रही सरसों-सी, उफन रही है नदिया-सी,
कभी हंसती है जी-भर, कभी ढहाती बापू को.

एक अकेला बेटा वह भी गाँव छोड़कर चला गया
उसे शहर में कभी न सूझी, लिख दूँ पाती बापू को.
बूढ़ी आंखे लगता है, अब इसी आस पर जिन्दा है,
शायद आए कभी देखने, नन्हा नाती बापू को.

-दिनेश प्रभात

(वल्लभ डोंगरे के संयोजन में आए संकलन "पिता" से)
प्राप्ति स्रोतः मधुरिमा

Thursday, June 12, 2014

फादर्स-डे.....संकलन

जून माह के तीसरे रविवार को फादर्स डे के रूप में मनाया जाता है।
विश्व भर में देश और भाषा भले ही अलग हों 
लेकिन पिता का ओहदा सब जगह ऊंचा है।
विश्व में 130 भाषाओं में पिता के लिए अलग-अलग शब्द प्रयोग होते हैं।
कुछ प्रमुख भाषाओं में पिता के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द इस प्रकार हैं
हिंदी : पिता जी
संस्कृत : जनक
अफ्रीकन : वदर
अरब : अब्बी
बांग्लादेश : अब्बा
ब्राजील : पाई
डच : पापा, पानी
इंग्लिश : फादर, डैड, डैडी, पॉप
फ्रेंच : पापा
जर्मन : पपी
हंगेरियन : अपा
इंडोनेशिया : बापा, पैब
इटली : बब्बो
जापान : ओटोसान
लैटिन : पटर, अटटा
केन्या : बाबा
नेपाल : बुवा
पर्सियन : बाबा, पितर
पुर्तगाल : पाई
रशियन : पापा
स्पेनिश : टाटा
स्वीडिश : पप्पा
तुर्किश : बाबा 
संकलित
स्रोतः विकीपीडिया

 


Wednesday, June 11, 2014

मन कहीं खोना चाहता है............फाल्गुनी














  

खिले थे गुलाबी, नीले,
हरे और जामुनी फूल
हर उस जगह
जहाँ छुआ था तुमने मुझे,



महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,

बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,


और भीगी थी मेरे मन की तमन्ना
जब उठकर चल दिए थे तुम,

मैं यादों के भँवर में उड़ रही हूँ
अकेली, किसी पीपल पत्ते की तरह,
तुम आ रहे हो ना
थामने आज ख्वाबों में,


मेरे दिल का उदास कोना
सोना चाहता है, और
मन कहीं खोना चाहता है
तुम्हारे लिए, तुम्हारे बिना। 


-फाल्गुनी

Tuesday, June 10, 2014

तुम्हारी यादें....................फाल्गुनी

 














जब-जब मानसून बरसा
उसके साथ बरसे तुम
तुम्हारी यादें
तुम्हारी बातें
और मेरी आँखें।

जब-जब मानसून बरसा
उसके साथ बरसा मेरा वजूद
भीगा मेरा मन
और बढ़ उठी तपन।

जब-जब मानसून बरसा
उसके साथ बरसी
तुम्हारी तीखी बातों की किरचें
मन में जहाँ-तहाँ उग आई
बिन मौसम की मिरचें।

मानसून नहीं बरसा है यह
इसके साथ, बस बरसे हो तुम
कैसे बरसता मानसून
जब मेरी मन-धरा से तुम हो गए हो गुम। 


-फाल्गुनी

Thursday, June 5, 2014

पर्यावरण का पाठ............लालबहादुर श्रीवास्तव

पांच जून पर्यावरण दिवस पर विशेष
 

आओ आंगन-आंगन अपने

चम्पा-जूही-गुलाब-पलास लगाएं

सौंधी-सौंधी खूशबू से अपना

चमन चंदन-सा चमकाएं

हरियाली फैलाकर

ऑक्सीजन बढ़ाएं

फैले प्रदूषित वातावरण को मिटाएं

आओ, हम सब नन्हे-मुन्नो

घर-घर अलख जगाएं

पर्यावरण का पाठ

जगभर को पढ़ाएं।

- लालबहादुर श्रीवास्तव 

स्रोतः वेब दुनिया

Wednesday, June 4, 2014

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये...........दुष्यन्त कुमार


अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं
 

तव स्वागत में हिलता रहता
अंतर वीणा का तार प्रिये
 

इच्छाएं मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियां
मेरे हाथों से टूट चुकी
 

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
 
- दुष्यन्त कुमार
स्रोतः रसरंग