Wednesday, July 31, 2013

सावन मेरे................'वीर'


लौटे नहीं हैं परदेस से साजन मेरे,
तुम थोड़ी जल्दी ही आ गए सावन मेरे|

अब आये हो तो दर पर ही रुकना,
पांव ना  रखना तुम आँगन मेरे|
तुम थोड़ी जल्दी ही आ गए सावन मेरे…

तेरी ये गड़गड़ाहट, तेरी ये अंगडडाईयां,
इनसे मुख्तलिफ नहीं हैं मेरी तन्हाईयां,
चाहे तो बहा ले कुछ आंसूं दामन मेरे|
तुम थोड़ी जल्दी ही आ गए सावन मेरे…

तेरी बूंदों से मेरी तिश्नगी ना मिटेगी,
तेरी कोशिशों से ये आग और बढ़ेगी|
तुझसे ना संभलेंगे तन मन मेरे|
तुम थोड़ी जल्दी ही आ गए सावन मेरे…

--'वीर' 
श्री वीरेंद्र शिवहरे 'वीर' की एक काफी पुरानी रचना

Tuesday, July 30, 2013

भूल गया रोने के लिए अलग एक कमरा रखना..........निधि मेहरोत्रा


यूँ दिल चाहे कितनी ही तकलीफ़ों से भरा रखना
अपनों के आगे लबों पर हँसी का क़तरा रखना

आसान नहीं है यह दिल की अदला बदली दोस्त
तुमसे अरज यही है ख़्याल इस दिल का ज़रा रखना

कितने ही मौसम आये जाएँ हमारे दरमियां
उम्मीदों का शज़र मेरी जां तुम हरा भरा रखना

कोई मसला हो, किसी की कैसी भी बात क्यूँ न हो
पूछे जो कोई तुमसे कुछ तो राय को खरा रखना

मशहूर होकर अक्सर तनहा हो जाते हैं लोग
बुलंदी पर पहुँच आसपास अपनों का दायरा रखना

कम वक़्त में बहुत ज़्यादा पाने की ख़्वाहिश हो जिसे
लाजमी उस शख्स के लिए अपना ज़मीर मरा रखना

जिन ज़ख्मों की बदौलत ज़िन्दगी जीना आ जाता है
उन घावों को तुम अश्कों से हमेशा हरा रखना

कई आलिशान मकां बनाए इस ज़िन्दगी में मैंने
भूल गया रोने के लिए अलग एक कमरा रखना


-निधि मेहरोत्रा

Monday, July 29, 2013

तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ............अरुन शर्मा 'अनन्त'

 
जिसे अपना बनाए जा रहा हूँ,
उसी से चोट दिल पे खा रहा हूँ,

यकीं मुझपे करेगी या नहीं वो,
अभी मैं आजमाया जा रहा हूँ,

मुहब्बत में जखम तो लाजमी है,
दिवाने दिल को ये समझा रहा हूँ,

अकेला रात की बाँहों में छुपकर,
निगाहों की नमी छलका रहा हूँ,

जुदाई की घडी में आज कल मैं,
तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ..

--अरुन शर्मा 'अनन्त'



ओपन बुक्स ऑनलाईन के 
लाइव तरही मुशायरा अंक - ३७ वें में प्रस्तुत "अरुन शर्मा 'अनन्त'" की ग़ज़ल
(बह्र: बहरे हज़ज़ मुसद्दस महजूफ)

Sunday, July 28, 2013

क्या सोच रहे हो..कटोरा उठाओ और चल पड़ो...विशाल दास

क्या आप एक भिखारी से बेहतर हैं.......

नामः मस्सू उर्फ मालना, उम्र 60 वर्ष
मस्सू की जायदाद
अकेले की 30 लाख की जायदाद
प्रतिदिन की आय 1,000 से 1,500


भीख माँगने का ठीहा:
लोखण्डावाला.
मुख्यतः ऊँची दर वाले हॉटल के सामने
इस ह़ॉटल में मुख्यतः टीवी और फिल्म कलाकार आते हैं

काम का समय:
सायं 8 से 3 वजे सुबह तक

स्वयं का मकान: 
अंधेरी वेस्ट आम्बोली में खुद का एक एक बी.एच.के मकान
और नजदीक में ही एक और एक बी.एच.के मकान का मालिक है
 
आम्बोली में मस्सू काएक बी.एच.के मकान. दोनो मकान 
परिवार: पत्नी व दो लड़के और बहू साथ मे रहते हैं
प्रतिदिन आय:
रु.1000 से 1500.

:जायदाद: 
30 रु की जायदाद. एक लड़का झाड़ू बनाकर धूम-धूम कर अंधेरी स्टेशन के आस-पास बिक्री करता है और वह इससे अतिरिक्त आय प्राप्त करता है, एसका पूर्ण विवरण अप्राप्त है.
:रोज की दिनचर्या:  
मस्सू रोज शाम को दाग रहित चमकते कपड़ों में ऑचो में बैठकर लोखण्डावाला पहुँचता है, और अपने काम करने के कपड़े एड लैब के पास बदलता है, वह उस कपड़ों को काम के समय तक पहने रहता है..उसने अपने भीख माँगने के एरिया का पूर्ण निरीक्षण कर रखा है....पूरे क्षेत्र में उसके अलावा कोई और भिखारी नहीं फटकता..वह अपने घर के रास्ते में आगे चल कर ऑटो पर सवार होकर वापस घर पहुँचता है.... अपने कपड़े वह यशराज स्टूडियो के पास बदलता है. 
 
नामः कृष्ण कुमाल गीते, 42
कृष्ण की जायदाद
5 लाख रु. की जायदाद

प्रतिदिन की आय रु. 1,500 से 2,000 
 

 
भीख माँगने का ठीहा: सी सी टैंक, चर्नी रोड
काम का समय: 
अल सुबह से देर शाम तक
 स्वयं का मकान: 
नोल्लसोपारा में खुद का एक एक बी.एच.के मकान
खुद का एक एक बी.एच.के अपार्टमेन्ट नाल्लासोपारा में जिसमें वह अपने भाई के साथ रहता है
परिवार में भाई और भाई की पत्नी बच्चे सहित
 
नामः भरत जैन, उम्र 45
भरत की जायदादः लगभग 70 लाख की जायदाज उसकी खुद की है
प्रतिदिन आयः 2000 रुपये से 2500 रुपये तक


 
भीख माँगने की जगहः छत्रपति टर्मिनल्स और आजाद मैदान
काम का समयः अल सुबह से देर रात तक

भरत जैन की प्रापर्टी परेल मे दो एक बी.एच.के अपार्टमेन्ट, वहाँ उसके भाई का परिवार रहता है, 

और स्वयं भरत हफ्ते मे एक बार अपने घर जाता है..
उसके परिवार का अलग व्यवसाय है वे लोग स्कूली कॉपी किताबों की दुकान लगा रखे है 

 
भरत जैन का परेल स्थित मकान जिसमें वह खुद रहता है 
व सामने का हिस्सा जूस सेन्टर को किराये पर दे रखा है 
उसके परिवार में पत्नी व दो बच्चें हैं जो क्रमशः दसवीं और बारहवीं मे पढ़ते हैं

 
नामः हाज़ी, उम्र 26
हाज़ी की जायदादः लगभग 15 लाख की जायदाज उसकी खुद की है

प्रतिदिन आयः 1000 रुपये से 2000 रुपये तक


 
भीख माँगने की जगहः देवनार और चेम्बूर
अधिकतर मंदिर और मस्जिद के आसपासकाम का समयः आराम से... मंदिर व मस्जिद के समयानुसार
स्वयं का मकान: और मकान में उसकी माँ और ज़री गोटा का काम फैला रखा है और 15 लोगों को रोजगार भी दे रहा है 
परिवार में उसकी माँ और बहन है

           
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पर्याय  )>-----------------


Name: Doesn't matter , A Software Engineer 

S/W
Engineer 's Assets: Rented (shared by friends also) house 

Day's earning: for fresher less than 1000 

Works @ : Doesn't Matter .

Working Hours: Day and Night

Family: as normal one has

His worth: Kuchh bhi nahi
 
क्या सोच रहे हो..कटोरा उठाओ और चल पड़ो ... !!! ;o) 

 प्रस्तुतिकरणः विशाल दासsonuvishal@hotmail.com 

महफिल में तेरी तुझसे ही लड़ूँगा.....................दिव्येन्द्र कुमार 'रसिक' .


आज मैं अपनी हर बात पे अड़ूँगा,
महफिल में तेरी तुझसे ही लड़ूँगा,

जमाने गुजारे हैं मैने बन्दगी में तेरी,
शान में तेरी न अब कशीदे पढ़ूँगा,

बेदाग समझता है तेरे हुस्न को जमाना,
दोष मेरे सारे अब तेरे सर ही मढ़ूँगा,

जमीं के सफर में ठोकर जो दी है तूने,
साथ मैं तेरे अब न चाँद पे चढ़ूँगा,

थी मेरी तक़दीर पे तेरी ही हुकूमत,
अब आज तेरी किस्मत मैं ही गढ़ूँगा

----- दिव्येन्द्र कुमार 'रसिक'


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Saturday, July 27, 2013

न सुनती है न कहना चाहती है............मंजूर हाशमी



न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक़ राज़ रहना चाहती है

न जाने क्या समाई है कि अब की
नदी हर सम्त बहना चाहती है

सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली
सफ़र भी पा बरहना चाहती है

तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है
अब उस के दुख भी सहना चाहती है

उजाले की दुआओं की चमक भी
चराग़-ए शब में रहना चाहती है

भँवर में आँधियों में बादबाँ में
हवा मसरुफ़ रहना चाहती है

-मंजूर हाशमी

सौजन्यःअशोक खाचर

Friday, July 26, 2013

सिर्फ़ फूल हों तेरी राह में है मेरी बस दुआ.........रिकी मेहरा



जिन्हें याद करते हैं हम बस यूँ ही सदा
उन्हें मेरी भी चाहत हो ज़रूरी तो नहीं

फ़लसफ़ा मेरी मोहब्बत का मशहूर हो जहाँ
उस महफ़िल में मेरा नाम आए ज़रूरी तो नहीं

सिर्फ़ फूल हों तेरी राह में है मेरी बस दुआ
एक सी हम दोनों की फ़रियाद हो ज़रूरी तो नहीं

तमन्ना दिल में मेरे कई ख़्वाब जगा देती है
मगर किस्मत भी साथ मेरे दे ज़रूरी तो नहीं

मुस्कुरा के भी होते हैं बयाँ हाल इस दिल के
मुझ को रोने की भी आदत हो ज़रूरी तो नहीं

---रिकी मेहरा



ब्लाग "धरोहर" से
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Thursday, July 25, 2013

अपने दम पे जगमगाने का हुनर मुझमें नहीं.......हेमज्योत्सना 'दीप'

चेहरे बदलने का हुनर मुझमें नहीं,
दर्द दिल में हो तो हँसने का हुनर मुझमें नहीं,


मैं तो आईना हूँ तुझसे, तुझ जैसी ही बात करूँ,
टूट कर सँवरने का हुनर मुझमें नहीं।


चलते-चलते थम जाने का हुनर मुझमें नहीं,
एक बार मिल कर छोड़ जाने का हुनर मुझमें नहीं,

मैं तो दरिया हूँ, बहता ही रहा,
तूफान से डर जाने का हुनर मुझमें नहीं।

सरहदों में बँट जाने का हुनर मुझमें नहीं,
रोशनी में ना दिख पाने का हुनर मुझमें नहीं,

मैं तो हवा हूँ महकती ही रही,
आशियाने में रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।

दर्द सुनकर और सताने का हुनर मुझमें नहीं,
धर्म के नाम पर खून बहाने का हुनर मुझमें नहीं,

मैं तो इन्सान हूँ, इन्सान ही रहूँ,
सब कुछ भूल जाने का हुनर मुझमें नहीं।


मैं तो रात को ही दिखूँगा,
दिन में दिख पाने का हुनर मुझमें नहीं,

मैं तो चाँद हूँ तन्हा ही रहा,
तारों की तरह साथ रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।

मैं तो जिन्दगी हूँ चलती ही रहूँ,
बेवक्त साथ छोड़ जाने का हुनर मुझमें नहीं।

मैं एक एहसास हूँ, मन में ही बसूँ,
भगवान की तरह पत्थर में रह पाने का हुनर मुझमें नहीं।

-----------हेमज्योत्सना 'दीप'

ब्लाग "धरोहर" से
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Wednesday, July 24, 2013

कोई तो महक है...........मनीष गुप्ता




यूँ ही..... बेखबर ..... हैराँ तो नहीं मैं
कोई तो ख़लिश है जो चुभती है मुझको

बेबसी का आलम .... यूँ ही तो नहीं
कोई तो तड़फ है जो डँसती है मुझको

तेरी मौजूदगी का इल्म यूँ ही तो नहीं
कोई तो खबर है जो रहती है मुझको

तेरी बेरुखी के सितम यूँ ही तो नहीं
कोई तो कसक है जो उठती है मुझको

तेरी चाहत में मदहोश यूँ ही तो नहीं
कोई तो नज़र है जो लगती है मुझको

तेरी बातों में गुम दिल यूँ ही तो नहीं
कोई तो असर है जो करती है मुझको

तेरे हुस्ने दीदार का शौक यूँ ही तो नहीं
कोई तो महक है..जो चढ़ती है मुझको

-मनीष गुप्ता

शरारत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे.....मनीष गुप्ता



यूँ ना इस अंदाज़ में हमको देखा करो
मुहब्बत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

ये शोख अदाएं अक्सर बहकाती हैं दिल को
शरारत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

इन निगाहों में घर बसा लो हसीन ख्याबों के
कयामत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

सुना है बहुत नाज़ुक दिल रखते हैं आप
इनायत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

बड़ा हुजूम है इश्क़ के मारों का आपके शहर में
बगावत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

बहुत बेताब है वस्ले शब की तमन्ना दिल में
मुखातिब हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

कभी लगती है खुदाया सी आपकी नवाजिशें
इबादत हो गयी तो फिर ना कहना हमसे

--मनीष गुप्ता

Tuesday, July 23, 2013

काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं................जिगर मुरादाबादी



दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं

फर्द-ए-अमल सियाह किये जा रहा हूं मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं

ऎसी भी एक निगाह किये जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को महर-ओ-माह* किये जा रहा हूँ मैं

गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं

यूं ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
[*महर-ओ-माह: सूरज और चाँद]

--जिगर मुरादाबादी 

मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 
पने आप को गर्वित महसूस करता है कि 
बीसवीं सदी सन् 1890 में यहां 
मशहूर श़ायर अली सिकंदर ज़िग़र मुरादाबादी ने जन्म लिया
उन्होंने श़ायरी की राह में ख्याति अर्जित की विशेषकर 
वे बेहतरीन ग़ज़लों के ग़ज़लगो थे...वे मुश़ायरों में ज़ान डाल देते थे
ज़िगर साहब 70 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के 
गोण्डा शहर में  1960 में ज़न्नतनशी हुए
सौजन्यः बेस्ट ग़ज़ल

Monday, July 22, 2013

अपनी बेईमानी भूल मत जाना ...........सचिन अग्रवाल





नए मौसम में सब बातें पुरानी भूल मत जाना
कई आँखों में जो उबला है पानी, भूल मत जाना

अदावत मरते दम तक है निभानी, भूल मत जाना
रिवायत है हमारी खानदानी, भूल मत जाना

चिता तो जल के कुछ ही देर में बुझ भी गयी लेकिन
किसी की मर गयी बेटी सयानी, भूल मत जाना

ये ज़ुल्मत और ये चीखें कभी बेशक़ न याद आयें
मगर इन मुन्सिफों की बेज़ुबानी भूल मत जाना

सियासी आँधियों के सामने जलते दिये लेकर
बहुत बेबस खड़ी थी नौजवानी, भूल मत जाना

तमाशा बन चुके जम्हूरियत के नूर की खातिर
जो हमने मुद्दतों तक खाक़ छानी, भूल मत जाना

रखेंगे याद हम तो हादसों को जीते जी अपने
कि रहबर तू भी अपनी बेईमानी भूल मत जाना

शुभकामनाओं सहित
सचिन अग्रवाल

Sunday, July 21, 2013

लेकिन दिमाग ने साथ दिया...........श्रीमती आशा मोर


आज अचानक उनका आना रद्द हो गया
और हम निराश हो गए
जितने मंसूबे बनाए थे, दो हफ्तों में
सब धराशायी हो गए

दिमाग ने कुछ सकारात्मक सोचने को
प्रोत्साहित किया
और मन में कुछ उमंग का
प्रवाह हुआ

दिल उदास था
लेकिन दिमाग ने साथ दिया
मन के किसी कोने में
थोड़ा-सा आराम दिया

दिमाग ने कहा, अरे पागल मन
याद कर वह बीते दो हफ्ते
जो प्रिय के आने की खुशी में
बिता दिए खुशी-खुशी

कौन-सा पलड़ा ज्यादा भारी है
न आने का दुख किया।
या उनके आने की खुशी में
बिताए वो खुशगवार दो हफ्ते

मन को दिमाग की सोच पर
असीमित गर्व हुआ
और मन ने दिमाग को

किया.....
दिल से नमन। 


- श्रीमती आशा मोर

Saturday, July 20, 2013

बहुत-सी यादें हैं..............सुदर्शन प्रियदर्शिनी


बहुत-सी यादें हैं
तुम्हारे आंगन की
मेरी छनकती
पायल की
रुनझुन-तुम्हें
सुहाती थी
जैसे बेटी थी
मैं तेरे घर की।

लुटाते थे
आंखों से
सारे बाग-बगीचे
की संपदा
तुम मुझ पर
मैं कौतुक और भौंचक
देखी करती।

कैसे होते हैं
रिश्ते-नाते
या संबंध
जो अपनों की
बिलकुल
अपनों की
देहरियां
लांघकर भी
बना लेते
हैं घर और
ठिकाना।

दूसरों के घर
और पता
नहीं चलता
कौन-सा घर-
कौन-सा आंगन-
और उस एक
शब्द में
घुल-मिल
जाती है
सारी वसुधा
जिसे कहते
हैं- अपनापन।
- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
(अप्रवासी भारतीय)

Friday, July 19, 2013

मन बहक-बहक जाता है..................शकुंतला बहादुर

उलझनें उलझाती हैं
मन को भटकाती हैं।
कभी इधर, कभी उधर
मार्ग खोजने को तत्पर
भंवर में फंसी नाव-सा
लहरों में उलझा-सा
बेचैन डगमगाता-सा
मन बहक-बहक जाता है।
मंजिल से दूर...
बहुत दूर चला जाता है।

कभी लगता है कि रेशम के धागे
जब उलझ-उलझ जाते हैं
चाहने पर भी सुलझ नहीं पाते हैं
टूट जाने पर से गांठें पड़ जाती हैं
जो हमें रास नहीं आती हैं
किंतु, धैर्य से उन्हें सुलझाते हैं
तो सचमुच सुलझ जाते हैं

सोचती हूं, उलझना तो
चंचल मन की एक प्रक्रिया है
जो विचार शक्ति को कुंद करती है
मन को चिंतामग्न
और शिथिल करती है।

इस पार या फिर उस पार
जिसका निर्णय सुदृढ़ है
जो स्थिर-बुद्धि से बढ़ता है
उलझनों से वह बचता है
वही सफल होता है
और मंजिल पर पहुंचता है।

जीवन अगर सचमुच जीना है
तो उलझनों से क्या डरना है?
पथ के हैं जंजाल सभी ये
रोक सकेंगे नहीं कभी ये।

उलझन पानी का बुलबला है
चाहें उसे फूंक से उड़ा दो
या फिर उसके चक्रव्यूह में
अपना मन फंसा दो।

तभी तो ज्ञान कहता है
जिसने मन जीता
वही जग जीता है। 

- शकुंतला बहादुर

Thursday, July 18, 2013

सावन का महीना हो...............वज़ीर आग़ा



सावन का महीना हो
हर बूंद नगीना हो


क़ूफ़ा हो ज़बां उसकी
दिल मेरा मदीना हो

आवाज़ समंदर हो
और लफ़्ज़ सफ़ीना हो

मौजों के थपेड़े हों
पत्थर मिरा सीना हो

ख़्वाबों में फ़क़त आना
क्यूं उसका करीना हो

आते हो नज़र सब को
कहते हो, दफ़ीना हो

- वज़ीर आग़ा 

सौजन्य भाई अशोक खाचर

फिर भी यह घर अच्‍छा नहीं लगता.................श्रीमती आशा मोर



हमें इस घर में रहना अच्‍छा नहीं लगता
आंगन है, छत है, दरवाजा है, चारदीवारी है


आंगन में एक झूला भी है लटकता
फिर भी यह घर अच्‍छा नहीं लगता

नहलाने को, खाना देने को आंटी हैं
यूनिफॉर्म, नाश्ता, खाना, दूध
समय पर सभी है मिलता
फिर भी यह घर अच्‍छा नहीं लगता

समय पर सोना, समय पर उठना
समय पर स्कूल जाना और होमवर्क करना
समय पर टीवी देखने को भी मिलता
फिर भी यह घर अच्‍छा नहीं लगता

खेलने को खिलौने भी हैं
बहुत सारे हमउम्र दोस्त भी हैं
पर यहां नहीं हैं, मेरे माता-पिता
इसलिए यह घर हमें अच्‍छा नहीं लगता। 

-श्रीमती आशा मोर
(अप्रवासी भारतीय)

Wednesday, July 17, 2013

जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है..........मिर्ज़ा ग़ालिब


हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'?
तुम्ही कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क  में ये अदा
कोई  बताओ कि वोह शोख-ए-तुंदखू क्या है

ये रश्क है कि वोह होता है हमसुखन तुमसे
वगर न खौफ-ए-बद-आमोज़ी-ए-उदू* क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैरहन
हमारे जेब को अब हाजत-ए-रफू क्या है

जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा!
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तुजू क्या है

रगों  में दौड़ते फिरने के हम नहीं काएल
जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है

मिर्ज़ा ग़ालिब 


*उदू - दुश्मन

असदुल्लाह खाँ 'गालिब '  सन् 1797 आगरा में जन्में...वे मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की अदालत में भी आपनी उपस्थिति दर्ज करवाई.....
आपका निधन सन् 1869 में हुआ
यह ग़ज़ल सौजन्यः बेस्ट ग़ज़ल

Monday, July 15, 2013

मगर ये दिल अब उस को आज़माना चाहता है.............हुमैरा राहत



फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
तअल्लुक टूटने को इक बहाना चाहता है

जहाँ इक शख्स भी मिलता नहीं है चाहने से
वहाँ ये दिल हथेली पर ज़माना चाहता है

मुझे समजा रही है आँख की तहरीर उस की
वो आधे रास्ते से लौट जाना चाहता है

ये लाज़िम है कि आँखे दान कर दे इश्क को वो
जो अपने ख़्वाब की ताबीर पाना चाहता है

बहुत उकता गया है बे-सुकूनी से वो अपनी
समंदर झील के नजदीक आना चाहता है

वो मुझ को आजमाता ही रहा है जिंदगी भर
मगर ये दिल अब उस को आज़माना चाहता है

उसे भी ज़िन्दगी करनी पड़ेगी 'मीर' जैसी
सुखन से गर कोई रिश्ता निभाना चाहता है

- हुमैरा राहत

सौजन्यः अशोक खाचर
 

Saturday, July 13, 2013

चाँद-तारे निगल गया सूरज........अन्सार कम्बरी


चाँद-तारे निगल गया सूरज
आग ऐसी उगल गया सूरज

सर पे चड़ने का नतीजा देखा
किस तरह मुँह के बल गया सूरज

इसलिये मैं दिये जलाता हूँ
मेरे घर से निकल गया सूरज

शाम होते मुझे ये लगता है
आस्माँ से फिसल गया सूरज

उसको दिनभर नहीं मिला कुछ भी
अपने हाथों को मल गया सूरज

चाँद-तारों को रौशनी देकर
शाम चुपके से ढल गया सूरज

‘क़म्बरी’ ये बता नहीं पाया
जाने किस शै से जल गया सूरज

-अन्सार कम्बरा

Thursday, July 11, 2013

तमाम उम्र का वादा मैं तुम से कैसे करूँ ..........आदिल रशीद तिलहरी



ये चन्द रोज़ का हुस्न ओ शबाब धोका है
सदाबहार हैं कांटे गुलाब धोका है

मिटी न याद तेरी बल्कि और बढती गई
शराब पी के ये जाना शराब धोका है

तुम अपने अश्क छुपाओ न यूँ दम ए रुखसत
उसूल ए इश्क में तो ये जनाब धोका है

ये बात कडवी है लेकिन यही तजुर्बा है
हो जिस का नाम वफ़ा वो किताब धोका है

तमाम उम्र का वादा मैं तुम से कैसे करूँ
ये ज़िन्दगी भी तो मिस्ल ए हुबाब धोका है

पड़े जो ग़म तो वही मयकदे में आये रशीद
जो कहते फिरते थे सब से "शराब" धोका है

--आदिल रशीद तिलहरी

Tuesday, July 9, 2013

कभी सूखे से डरते हैं, कभी पानी से डरते हैं..........सर्वत एम जमाल


 अजब हैं लोग थोड़ी सी परेशानी से डरते हैं
कभी सूखे से डरते हैं, कभी पानी से डरते हैं

तब उल्टी बात का मतलब समझने वाले होते थे
समय बदला, कबीर अब अपनी ही बानी डरते हैं

पुराने वक़्त में सुलतान ख़ुद हैरान करते थे
नये सुलतान हम लोगों की हैरानी से डरते हैं

हमारे दौर में शैतान हम से हार जाता था
मगर इस दौर के बच्चे तो शैतानी से डरते हैं

तमंचा,अपहरण,बदनामियाँ,मौसम,ख़बर,कालिख़
बहादुर लोग भी अब कितनी आसानी से डरते हैं

न जाने कब से जन्नत के मज़े बतला रहा हूँ मैं
मगर कम-अक़्ल बकरे हैं कि कुर्बानी से डरते हैं

-सर्वत एम जमाल

मैं उसको पढ़ रहा हूँ सादगी से............सचिन अग्रवाल



यही एक इल्तिजा है ज़िन्दगी से
हमें मरने न देना खुदखुशी से

वफ़ा, चाहत, मुहब्बत, दोस्ती से
मैं आजिज़ आ गया हूँ आजिज़ी से

मैं तेरे फैसले का मुन्तजिर हूँ
बहुत उकता गया हूँ बेबसी से

वो जिससे कुछ भी अब तक कह न पाए
हमें कहना भी सब कुछ है उसी से

सवाल अब भी मेरा तुमसे वही है
मुहब्बत मुझसे है या बांसुरी से ?

तुम्हारे बारे में कुछ लिख रहा हूँ
महक सी आ रही है डायरी से

मुनासिब है ग़ज़ल हो जाए वो भी
मैं उसको पढ़ रहा हूँ सादगी से

-सचिन अग्रवाल
sachin.agrawal.330@facebook.com
 

Monday, July 8, 2013

नज़्मः 'निसार करूँ'....................मेहबूब राही


   
हसीन फूलों की रानाइयाँ निसार करूँ
सितारे चाँद कभी, कहकशाँ निसार करूँ
बहार पेश करूँ गुलसिताँ निसार करूँ
जहाने-हुस्न की रंगीनियाँ निसार करूँ
ज़मीं निसार करूँ आसमाँ निसार करूँ
तेरे शबाब पे सारा जहाँ निसार करूँ

ये सबज़ाज़ार ये बदमस्त चाँदनी रातें
ये रंग-ओ-नूर ये रानाइयों की बारातें
ये इत्र इत्र हवाएँ ये भीगी बरसातें
शबाब-ओ-हुस्न की सारी हसीन सौग़ातें
निशात-ओ-नूर में डूबा समाँ निसार करूँ
तेरे शबाब पे सारा जहाँ निसार करूँ

ये मेरे ख़्वाब मेरी हसरतें मेरे अरमाँ
ये मेरा हुस्ने-तख़य्युल ये मेरा ज़ोरे-बयाँ
मेरे जहाने-ख़्यालात की मताए गिराँ
ये मेरे गीत मेरी शायरी मेरा दीवाँ
मैं अपने ज़हन की जोलानियाँ निसार करूँ
तेरे शबाब पे सारा जहाँ निसार करूँ

ग़ज़ल है साज़ है या साग़र-ए-शबाब है तू
गुलों की बज़्म में खिलता हुआ गुलाब है तू
मता-ए-हुस्न है तू पैकर-ए-शबाब है तू
किसी अज़ीम म्सव्विर का एक ख़्वाब है तू
तख़ैयुलात की परछाइयाँ निसार करूँ
तेरे शबाब पे सारा जहाँ निसार करूँ

मैं क्या हूँ मेरे अशआर की बिसात है क्या
मेरे ख़ुलूस मेरे प्यार की बिसात है क्या
मेरी वफ़ा मेरे ईसार की बिसात है क्या
मेरी मता-ए-दिले-ज़ार की बिसात है क्या
तेरी हसीन अदाओं पे जाँ निसार करूँ
तेरे शबाब पे सारा जहाँ निसार करूँ 

-शायर मेहबूब राही





Sunday, July 7, 2013

मुद्दतोँ बाद मेरी आँखोँ में आँसू आए............शायर ज़नाब बशीर बद्र

 
रात आँखों में ढली पलकों पे जुगनू आए
हम हवाओँ की तरह जा के उसे छू आए

बस गई है मेरे अहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊँ तेरी ख़ुशबू आए

उसनेँ छू कर मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतोँ बाद मेरी आँखोँ में आँसू आए

उसकी आँखें मुझे मीरा का भजन लगती हैं
पलकेँ झपकाए तो लोबान की ख़ुशबू आए

उन फ़कीरोँ को ग़ज़ल अपनी सुनाते रहियो
जिनकी आवाज़ में दरगाहोँ की ख़ुशबू आए

--
शायर ज़नाब बशीर बद्र

Saturday, July 6, 2013

उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो...........परवीन श़कीर

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो

खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो

उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो

अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो

दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो

रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो


-श़ाय़रा  परवीन श़कीर
जन्म वर्षः1952
ज़न्नतनशीं वर्षः 1994

परवीन शकीर की शायरी आम जनता बीच में अच्छी तरह पढ़ी गई
सौजन्यः BESTGHAZALS
 

Friday, July 5, 2013

दर्द को दर्द कहिये न हमदर्द है....................अन्सार कम्बरी

 
चेहरा-चेहरा यहाँ आज क्यों ज़र्द है
जिस तरफ़ देखिये दर्द – ही - दर्द है

अपने चेहरे में कोई ख़राबी नहीं
आपके आईने पर बहुत गर्द है

इस क़दर हम जलाये गए आग में
अब तो सूरज भी अपने लिये सर्द है

साथ देता रहा आख़िरी साँस तक
दर्द को दर्द कहिये न हमदर्द है

बोझ है ज़िन्दगी, इसलिए ‘क़म्बरी’
जो उठा ले इसे बस वही मर्द है
----अन्सार कम्बरी

Thursday, July 4, 2013

तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है............श़ायर जनाब सलीम कौसर



मैं  ख़याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मेरा अक्स है, पास-ए-आईना कोई और है


अजब एतबार-ओ-बेएतबारी के दरमियाँ है ज़िन्दगी
मैं करीब हूँ किसी और के, मुझे जानता कोई और है


मेरी रोशनी तेरे खाद-ओ-ख़ाल से मुख्तलिफ तो नहीं मगर
तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है


तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं
तेरी दास्ताँ कोई और थी मेरा वाक़ेआ कोई और है


वही मुन्सिफों की रवायतें, वही फैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था, पर मेरी सज़ा कोई और है


कभी  लौट आयें तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से
जिन्हें रास्ते में खबर होई की ये रास्ता कोई और है


-
श़ायर जनाब सलीम कौसर

श़ायर जनाब सलीम कौसर का जन्म पानीपत में सन 1947 में हुआ
विभाजन का पश्चात वे पाकिस्तान मे बस गए...
ये उनकी बेहतरीन ग़ज़लों मे एक है
स्व. जगजीत सिंह ने इस ग़ज़ल को स्वरों में बांधा है

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Wednesday, July 3, 2013

ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ...........रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"

 
(इस ब्लाग की दो सौ पचासवीं पोस्ट)
कटी है उम्र गीतों में, मगर लिखना नहीं आया।
तभी तो हाट में हमको, अभी बिकना नहीं आया।

ज़माने में फकीरों का नहीं होता ठिकाना कुछ,
उन्हें तो एक डाली पर कभी टिकना नहीं आया।

सम्भाला होश है जबसे, रहे हम मस्त फाकों में,
लगें किस पेड़ पर रोटी, हुनर इतना नहीं आया।

मिला ओहदा बहुत ऊँचा, मगर किरदार हैं गिरवीं,
तभी तो देश की ख़ातिर हमें मिटना नहीं आया।

नहीं पहचान पाये "रूप" को अब तक दरिन्दों के,
पहाड़ा देशभक्ति का हमें गिनना नहीं आया।

-रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
फेसबुक में पोस्ट की गई रचना

सभी के जवाब छोड़ गया.................सैयद सादिक अली



शरीफ चोर था कुछ तो जनाब छोड़ गया
कबाब खा गया लेकिन शराब छोड़ गया

जो रास्ते में बहुत मेहरबान था मुझ पर
सफर के अंत में सारा हिसाब छोड़ गया

पढ़ीं तो निकलीं कविताएं अर्थहीन सभी
वह अपनी याद में ऐसी किताब छोड़ गया

मुकदमे, कर्जे, रहन-जायदाद के झगड़े
मरा तो देखिए क्या-क्या नवाब छोड़ गया

सवाल जितने उठाए थे पत्रकारों ने
वह गोल-मोल सभी के जवाब छोड़ गया। 

-सैयद सादिक अली

Monday, July 1, 2013

धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा...............मुनव्वर राना




कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्‍टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

जो भी दौलत थी वह बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

जिस्म पर मेरे बहुत शफ्फाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्‍टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा


भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्‍छा नहीं लगता

धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

---मुनव्वर राणा