Tuesday, July 31, 2018

ख़्वाब आते रहे!.....डॉ. अनिल चड्ढा

ख़्वाब आते रहे, ख़्वाब जाते रहे,
तुमसे मिलने को थे तरसाते रहे!

बात हर ओर तेरी ही होती रही,
हम भी संग-संग तेरे गीत गाते रहे!

बीत जायेगा हर पल तुम्हारे बिना,
फिर भी हर पल तुम्हे क्यों बुलाते रहे!

एक जीवन मिला, एक तुम थे मिले,
सात जन्मों के रिश्ते निभाते रहे!

बात होती रही, बात बोले बिना,
उनसे जब-जब थे नज़रें मिलाते रहे!
-डॉ. अनिल चड्ढा

Monday, July 30, 2018

ख़्वाबो मेरे ख़्वाबो......विभा नरसिम्हन

ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो 
कितना और उड़ोगे कहीं तो अब शाम करो 

थक कर बैठी हूँ मैं पीछे तुम्हारे भागते-भागते 
आँख-मिचोली के इस खेल में तुम हाथ कभी न आते
इतनी ऊँची पींगे तुम्हारी कभी तो ढलान करो 
ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो 

आँखों में तुम जब सजते हो रोशन हो जाता है जग मेरा 
पर पल में ग़ायब होने की ज़िद में टूट ही जाता है मन मेरा 
अपने सतरंगी मौसम से जीवन मेरा गुलफ़ाम करो 

ख़्वाबों मेरे ख़्वाबों कभी तो आराम करो 
कितना और उड़ोगे कहीं तो अब शाम करो
-विभा नरसिम्हन

Sunday, July 29, 2018

आदत..........श्यामल सुमन

मेरी यही इबादत है।
सच कहने की आदत है।।

मुश्क़िल होता सच सहना तो।
कहते इसे बग़ावत है।।

बिना बुलाये घर आ जाते।
कितनी बड़ी इनायत है।

कभी ज़रूरत पर ना आते।
इसकी मुझे शि्क़ायत है।।

मीठी बातों में भरमाना।
इनकी यही शराफ़त है।।

दर्पण दिखलाया तो कहते।
देखो किया शरारत है।।

झूठ कभी दर्पण न बोले।
बहुत बड़ी ये आफत है।।

ऐसा सच स्वीकार किया तो।
मेरे दिल में राहत है।।

रोज विचारों से टकराकर।
झुका है जो भी आहत है।।

सत्य बने आभूषण जग का।
यही सुमन की चाहत है।।
-श्यामल सुमन

Saturday, July 28, 2018

आशा की किश्ती...डॉ. कुशल चंद कटोच

आशा की किश्ती को
हम ले चले हैं
हिम्मत की पतवार से
वक़्त की विपरीत धारा में
नहीं पता हमें
पाएँगे मंज़िल
यह फिर
हो जाएँगे शिकार
लालच, बेईमानी, ख़ुदगर्ज़ी
के पत्थरों का
और डूब जाएँगे
अपनी ही आशा के 
दरिया के भँवर में।
-डॉ. कुशल चंद कटोच

Friday, July 27, 2018

यही मेरी मुहब्बत का सिला है.....मोहन जीत ’तन्हा’

यही मेरी मुहब्बत का सिला है 
मिला है दर्द दिल तोड़ा गया है 

हुआ जो कुछ भी मेरे साथ यारो
“ज़माने में यही होता रहा है”

उसे मालूम है मैं बेख़ता हूँ 
न जाने फिर भी क्यों मुझसे ख़फ़ा है

ये जिस अंदाज़ से झटका है दामन
बिना बोले ही सब कुछ कह दिया है

बहा जिस के सुरों से दर्द दिल का 
वो साज़ अब बेसुरा सा हो गया है

हुए बरसों में उन से रु-ब-रु हम 
कोई ज़ख्म-ए-कुहन फिर खिल गया है

ये मेरी खोखली सी ज़िंदगी है 
गले में ढोल जैसे बज रहा है

मैं "तन्हा" चल रहा हूँ कारवाँ में
नहीं कोई किसी से वास्ता है
-मोहन जीत ’तन्हा’

ज़ख्म-ए-कुहन = पुराना घाव

Thursday, July 26, 2018

उस रात......डॉ मधु त्रिवेदी


तुमने लिखा था;
उस रात
खींचकर मेरा हाथ,
बना उंगली कलम से 
प्यार नाम तुमने!
फ़ासला था हममें;
उस रात,
चारों ओर नीरवता
बेसुध सो रही थी।
तारिकाएँ ही जानती
दशा मेरे दिल की 
उस रात।
मैं तुम्हारे पास होकर 
दूर तुमसे जा रही थी।
अधजगा-सा, अलसाया-
अधसोया हुआ-सा मन,
उस रात।

तुमने खींच कर 
मुझे अपनी ओर, फिर
से प्रस्ताव  लिखा था,
साथ निभाने का जीवन
उस रात।

बिजली छूई तनमन को
सहसा जग कर देखा मैं
इस करवट पड़ी थी, तुम...
कि आँसू चुप बह रहे थे 
उस रात।

जला दूँ उस संसार को
प्यार जो कायरता दिखाता,
पता.. उस समय क्या कर
और न कर गुज़रती मैं
उस रात।

प्रात ही की ओर को
हमेशा है रात चलती,
उजाले में अंधेरा डूबता,
शहर  ही पूरा कि सारा
उस रात।

बदलता कौन? ऐसी
एक नया चेहरा सा 
लगा लिया तुमने 
था निशा का अद्भुत स्वप्न 
उस रात।

मेरा पर ग़ज़ब का था 
किया अधिकार तुमने।
और उतनी ही दूरियाँ..
पर, आज तक अन्तिम!
सौ बार मुड़ करके भी 
न आये फिर कभी हम,
उस रात!

लौटा चाँद ना फिर कभी
और अपनी वेदना मैं,
आँखों की भाषा स्वयं 
ख़ुद मुझमें बोलती हैं!!

-डॉ मधु त्रिवेदी

Wednesday, July 25, 2018

एक दुनिया का उजड़ना है....गोपालदास "नीरज"


सड़क विस्तार के लिए 
सारे पेड़ों के कटने के बाद 
बस बचे हैं एक नीम और बरगद 
जो अस्सी साल के साथ में 
शोकाकुल हैं पहली बार 

नीम बोला 
परसों जब हरसिंगार कटा था 
तो बहुत रोया बेचारा 
सारे पक्षियों ने भी शोर मचाया 
गिरगिट ने रंग बदले  
गिलहरयां फुदकी 
मगर कुल्हाड़ी नहीं पसीजी 
और फिर वो मेरे से दो पौधे छोड़कर 
जब शीशम कटा ना 
तो लगा कि मैं भी रो दूँगा 
चिड़िया के घौसलो से अंडे गिर गए
गिलहरियों को तो मैंने जगह दे दी 
मगर तोते के बच्चे कोटर से गिरते ही मर गए

बरगद कराहा 
वो मेरे पास में आम, गुंजन और महुआ थे ना 
बेचारे गिड़गिड़ाए कि
हमारी सड़क वाली तरफ की टहनियां काट दो 
सारे पक्षियों ने भी 
चीं-चीं कर गोल-गोल चक्कर काटकर गुज़ारिश की 
कि मत छीनो हमारा घर 
पर पता नहीं ये आदमलोग 
कौनसी ज़बान समझते हैं 
धड़ाम करके कटकर ये नीचे गिरे 
तो ज़मीन कंपकंपाई 
मानो अपनी छाती पीट रही हो 

नीम और बरगद बोले आपस में 
ख़ैर जो हुआ सो हुआ 
अब हम दोनों ही सम्भालेंगे 
पक्षियों से लेकर 
छाया में रूकने वालों को 

अचानक बरगद बोला 
ये विकास करने वाले फिर लौट आए 
कहीं हमें तो नहीं काटेंगे
कहकर बरगद ने जोर से झुरझरी ली 
नीम ने भरोसा दिलाया 
अरे, ऐसे ही आए होंगे 
सड़क तो बन गई है ना 
अब भला क्यों काटेंगे हमें

थोड़ी देर में निशान लगने लगते हैं 
आदमलोग कह रहे हैं 
कि बसस्टॉप के लिए यही सबसे सही जगह हैं 
इन दोनों को काट देते हैं 
छोटा-सा शेड लग जाएगा 
लिख देंगे प्रार्थना बस-स्टैंड 

नीम चिल्लाया 
अरे, मत काटो 
हमारी छाया में बेंच लगा दो 
हवा दे देंगे हम टहनियां हिलाकर 
निम्बोली भी मिलेगी 
और अच्छा लगेगा पक्षियों को देखकर 

बरगद ने हामी भरी 
सारे पक्षी आशंकित से नीचे ताकने लगे 
आर्तनाद बेकार गया 
पहले नीम की बारी आई
आँख में आँसू भर नीम ने टहनियाँ हिलाई
बरगद ने थामा क्षण भर नीम को 
गलबहियाँ डाली दोनों ने 
और धड़ाम से ख़त्म हो गया एक संसार 
अब बरगद देख रहा है 
उन्हें अपने पास आते 
सिकुड़ता है 
टहनियां हिलाता है 
कातर नज़रों से ताकता है इधर-उधर 
पक्षी बोलते-डोलते हैं 
मगर नाशुक्रे आरी रखते हैं 
और फिर सब ख़त्म 

ये नीम और बरगद का क़त्ल नहीं है 
एक दुनिया का उजड़ना है 
बेज़ुबान जब मरते हैं 
तो बदले में 
बहुत कुछ दफ़न हो जाता है !!

-गोपालदास "नीरज"

अंतिम कविता

Tuesday, July 24, 2018

किस्मत से हम नहीं...देवेन्द्र सोनी

अक्सर ही हम
रोना रोते रहते हैं
अपनी फूटी किस्मत का
चाहे हमको मिला हो
कितना भी, अधिक क्यों न !

नही होता आत्म संतोष
कभी भी हमको
चाहते ही हैं -
और अधिक, और अधिक ।

ये कैसी चाहत है, सोचा है कभी !
मिलता है जितना भी हमको
वह सदा ही होता है
हमारी सामर्थ्य के अनुरूप।

मानना होगा इसे और
करना होगा संतोष
क्योंकि - वक्त से पहले और
किस्मत से ज्यादा नहीं मिलता
किसी को भी, कभी भी कुछ।

किस्मत भी बनाना पड़ता है -
सदैव कर्मरत रहकर।
कर्मों का यही हिसाब देता है
हमको वह फल, जो आता है
इस लोक और परलोक में
दोनों ही जगह काम।

बनती है जिससे फिर
नए जन्म की किस्मत हमारी।

समझ लें इसे और करें -
निरंतर मेहनत, सद्कर्म ।

खें संतोष, मानकर यह
किस्मत से हम नहीं
हमसे है किस्मत।
-देवेन्द्र सोनी

Monday, July 23, 2018

प्रेम संगिनी..तीन क्षणिकाएँ...डॉ. शालिनी यादव

नमक की डली
जैसी होती है प्रेम-संगिनी
प्रेम करने वाली 
पल में गुस्सा हो
बन जाती है कठोर
फिर पिघल भी जाती है दूसरे ही पल
जीवन के हर साग में 
डलकर पिघलती-घुलती रहती है
बेस्वाद जीवन को 
स्वादिष्ट बनाने के लिए...

-*-*-

प्रेम में
दर्द झेलती हैं 
परन्तु दवा प्रेम की ही पीती हैं
वो जीती जाती है
चेहरे पर अभिमान लिए
साबित करने 
जुनूनी प्रेम की महत्ता 
जो होता है उसके लिए
आरती के सजे थाल सा सुंदर
कुरान की आयतों सा पाक...

-*-*-*-

आकार हो
या निराकार
सजीव हो
या निर्जीव हो
जीव हो
या जन्तु
सब जगह हर सूरत में
हर मूरत में
दिखती है उसे छवि
अपने मन में बसे पुरूष की...
-डॉ. शालिनी यादव

Sunday, July 22, 2018

चंद हाईकू...आभा खरे


मन बगिया 
सुख दुख के पुष्प 
साथ खिलते 

-*-
खिला गुलाब 
कांटों बीच मुस्काता 
जीना सिखाता 

-*-
जीवन रीत 
तप के ही मिलते 
सोने से दिन ..!!!

-*-
आशा की डोरी 
हौंसलों के मनके 
पिरोई जीत 

-*-
बेटी की हँसी 
महके अंगनारा 
फूलों सी खिली 
- आभा खरे
१ जून २०१८



Saturday, July 21, 2018

उत्तर प्रदेश की कजरी.....उर्मिला सिंह

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हिंडोला झूल रही राधा प्यारी 
झुलावे कृष्ण मुरारी ना......
छाई काली घटा मतवारी
झुलावें कृष्ण मुरारी ना...

पी..पी..पपिहा सुर में गावे
कोयल प्यारी कुक सुनावे
मादक स्वर बंसी के बाजे
सुध बुध खोवें राधा रानी ना....
झुलावें कृष्ण मुरारी ना.....

ऊंची पेंग अम्बर को छुवे
प्रेम मगन राधे ..मोहन देखें
रुनझुन बाज रही पैजनिया
हँसि हँसी हरि झूला झुलावे ना...

झूला झूल रही राधे प्यारी
झुलावें कृष्ण मुरारी ना...

गोप गोपी हँसी हँसी नाचे
हर्षित मेघा जल बरसावे
देव मुनी बलि बलि जावें
देख के अनुपम जोड़ी ना....
झुला झूल रहीं राधा प्यारी
झुलावें कृष्ण मुरारी ना.....
-उर्मिला सिंह

Friday, July 20, 2018

हिंडोला....उर्मिला सिंह

मोह माया से सजा हिंडोला,
सांसों की लागी डोरी!
तृष्णा रह रह पटेंग मारती,
हिंडोला झूल रही है काया!!

तन की तृष्णा तनिक है!
मन की तृष्णा है अनन्त !!
धन दौलत धरी रह जाये,
बुलावा जब पी का आये!!

काम क्रोध का है मेला,
जिसमें बिचरत नश्वर काया!
टूटी जब साँसों की डोरी,
टूट गया सजा हिंडोला !
मिट्टी का तन रह गया अकेला!!
#उर्मिला सिंह

Thursday, July 19, 2018

कहीं मन रीता न रह जाये.....निधि सक्सेना


बारिशें थोड़ी जमो अभी
बादल थोड़े थमो अभी
मुस्कुराहटें थोड़ी तिरो अभी
हँसी थोड़ी झरो अभी
अनुभूतियाँ थोड़ी रुको अभी
उम्मीदें थोड़े ठिठको अभी
रंग थोड़े ठहरो अभी
उमंग थोड़ा ठौर अभी
प्रेम थोड़ा संग अभी!!

कि अब तक बहुत होश में थी
अब कुछ बेख्याल तो हो लूँ
जिन्दगी के सिरहाने बैठ
उसे थोड़ा जी तो लूँ!!

कहीं मन रीता न रह जाये!

~निधि सक्सेना

Wednesday, July 18, 2018

पुरवा............डॉ. दीप्ति गुप्ता

पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए
पेड़ों, लताओं, कलियों और फूलों को
चूमे सहलाए लाड़ लड़ाए !
पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए

पीढ़े पे बैठी फुलकारी गढ़ती
नानी के माथे पे झलके
पसीने को पोंछे सुखाए,
हवा झलती जाए !
पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए

कपड़े फैलाती भाभी के घूँघट को
फर - फर उड़ाए,
पीछे गिराए भाभी को
छेड़े और सताए
पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए 

खीझी सी भाभी,
जब घूँघट को कसके सिर पे जमाए
तो तीखे से झेकि से पल्लू झपटती
पूरा का पूरा गगन में उड़ाए
पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए

बन्टी न सोए, चीखे और रोए तो
फर - फर फहराती
उसको दुलराती
मीठी सी थपकी दे-दे सुलाए
पुरवा की जब-जब चुनरी लहराए

जब - जब शन्नो छुपती
ठिठकती पिया के खत को
हँस – हँस के पढ़ती
पीछे से आके, 
शैतान की नानी सी पन्ने बिखराए 
पुरवा की जब - जब चुनरी लहराए

जब - जब धरती भट्टी सी तपती 
चटकती गर्मी में ला के बौछारे, 
शीतल फुहारे तन मन को, 
सबके ठन्डक पहुँचाए !!

-डॉ. दीप्ति गुप्ता

Tuesday, July 17, 2018

चोर कोतवाल..कुसुम कोठारी

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मईया बोली सुन मोरे लला
काम पड़्यो अति भारी
मै आऊँ तब तक तू ही
कर माखन रखवारी 
तू कहत सदा ,
ग्वाल बाल ही है माखन के चोर
चोरी करत सब ,
और मेरे लल्लन पर
डालत दोष
आज तू ही संभाल माखन मोरो,
दूंगी तूझे घनेरो
सुन मईया की बात
मनमोहन पड़्यो घणे संकट मे
माखन भरो पड़्यो कटोरो
नही चख पाऊँ मै
निगरानी मे डारयो मईया
कैसी अनीति मचाई
सच माँ तू मोसे सयानी
चोर कू ही कोतवाल बनाई 
मै तो जग को ठाकुर हूं,
पर तू मोरी भी माई।
-कुसुम कोठारी 

Monday, July 16, 2018

पथ न भूले एक पग भी ....महादेवी वर्मा

सिंधु का उच्छवास घन है 
तड़ित तम का विकल मन है 
भीति क्या नभ है व्यथा का 
आँसुओं में सिक्त अंचल 

स्वर अकम्पित कर दिशाएँ 
मोड़ सब भू की शिराएँ 
गा रहे आँधी प्रलय 
तेरे लिए ही आज मंगल 

मोह क्या निशि के चरों का 
शलभ के झुलसे परों का 
साथ अक्षय ज्वाल सा 
तू ले चला अनमोल संबल 

पथ न भूले एक पग भी 
घर न खोए लघु विहग भी 
स्निग्ध लौ की तूलिका से 
आंक सब की छांह उज्ज्वल 

हो लिए सब साथ अपने 
मृदुल आहटहीन सपने 
तू इन्हें पाथेय बिन चिर 
प्यास के मधु में न खो चल 

धूप में अब बोलना क्या 
क्षार में अब तोलना क्या 
प्रात: हँस रो कर गिनेगा 
स्वर्ण कितने हो चुके पल 
दीप मेरे जल अकंपित घुल अचंचल 
-महादेवी वर्मा

परिचय: महादेवी वर्मा: 
आधुनिक युग की मीरा 
हिन्दी के साहित्याकाश में छायावादी युग के प्रणेता 'प्रसाद-पन्त-निराला' की अद्वितीय त्रयी के साथ-साथ अपनी कालजयी रचनाओं की अमिट छाप छोड़ती हुई अमर ज्योति-तारिका के समान दूर-दूर तक काव्य-बिम्बों की छटा बिखेरती यदि कोई महिला 
जन्मजात प्रतिभा है तो वह है 'महादेवी वर्मा'

Sunday, July 15, 2018

क्षणिकाएँ....सविता चड्ढा


पेंचर हुए टायर में
हवा भरते देखने की साक्षी 
बचपन में रह चुकी हूँ।

इसलिए आजतक 
किसी के नुकीले शब्द,
किसी की बेवजह घूरती निगाहें,
बेवजह के ठहाके और रुदन भी
मेरा आत्मबल-मनोबल नहीं गिरा सके।  

-*-*-
तूफ़ानों में  हवा का रुख देखा है, देखा है 
तो तूफ़ानों में हवा बन जाओ,  लहराओ ऊंचे ऊंचे
जितना ऊंचे जा सकें जाओ।
तूफ़ान ख़त्म होने पर 
धीरे धीरे ज़मीन पर आ जाओ
अगले तूफ़ान की तैयारी में
अपने भीतर उड़ने की क्षमता लाओ 
जब भी आ जाए तूफ़ान 
बस हवा बन जाओ। 

-*-*-
एक समय था,
कुछ न था,
बस अरमान ही थे।

एक समय है,
सब कुछ है,
अरमान नदारद हैं। 

-सविता चड्ढा

Saturday, July 14, 2018

अनलिखी नज़्में.....प्रियंका सिंह

जब नींद 
नहीं आती रातों को 
अक्सर न जाने कितनी ही 
अनलिखी नज़्में 
मेरे साथ 
करवट बदला करती हैं 

कई बारी आँखों के 
दरवाज़े खटखटाती 
आँसू बन 
गालों को चूमती हैं 

कभी तकिये पर 
सीलन सी महकती हैं 
नर्म पड़ जाता है जब 
यादों से 
ख़ामोशी का बिछोना 
नज़्में 
तन्हाई को सहलाती है 
धकेलती है, लफ्ज़ों को 
ज़बां तक बिछने को 
सफ़हे तलाशती है 

वरक फैले होते है ख़्यालों के 
उन्हें चुनती, चूमती 
गले लगाती हैं 
मेरे ऐसे 
कितने ही पुलिंदे 
ये बाँध रख जाती हैं 

रंजो ग़म से घबराती नहीं 
मेरा साथ निभाए जाती हैं 
यूँही रात भर 
अक्सर जब कभी 
मुझे नींद नहीं आती 
न जाने 
कितनी अनलिखी 
मेरे साथ करवट बदला करती हैं ……..
-प्रियंका सिंह