Thursday, May 29, 2014

सही बात कहने के सुख के अपने कतरे हैं.......यश मालवीय


लोग भी अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं
राजमार्ग भी,पगडण्डी से ज्यादा संकरे हैं।

हर उपसर्ग हाथ मलता है, प्रत्यय झूठे हैं
पता नहीं औषधियों के दर्द अनूठे हैं
आँखे मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं।

पेड़ धुएं का लहराता है अंधियारों जैसा
है भविष्य भी बीते दिनों के गलियारों जैसा
आँखे निचुड़ रहे से उजियारे के क़तरे हैं।

उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं
देख मजारों को हम शीश झुकाया करते हैं
सही बात कहने के सुख के अपने कतरे हैं।
-यश मालवीय
स्रोतः मधुरिमा

Saturday, May 24, 2014

उल्लू हम हैं.............मोनालिसा मुखर्जी











मायाजाल हुए तो?
कभी सोचती हूँ
ये सब छल ही हुए तो?
मृत्योपरान्त के प्रलोभन
कहीं निराधार हुए तो?
स्वर्ग, नर्क, मोक्ष ही स्वयं
मायाजाल हुए तो?

धर्म आचरण संवरण
कर्म प्रार्थना आवरण
सब मिथ्या हुए तो?

ऐसा भी तो सम्भव है
कि ये कहानियाँ हैँ बस
बहला फुसलाकर व्यवस्था बनाये रखने की-
हमारी मान्यताओं को रंगकर
अपना उल्लू सीधा करने की

जहाँ
उल्लू हम हैं
और सीधा कुछ भी नहीं।


-मोनालिसा मुखर्जी

तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।...........स्पन्दन

 



 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोजाना भोजन
पकाती थी और एक रोटी वह वहां से ...गुजरने वाले
किसी भी भूखे के लिए पकाती थी ,
वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी जिसे
कोई भी ले सकता था । एक कुबड़ा व्यक्ति रोज उस रोटी को ले जाता और वजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बडबडाता "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और
जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा "
दिन गुजर...ते गए और ये सिलसिला चलता रहा ,वो कुबड़ा रोज रोटी लेके
जाता रहा और इन्ही शब्दों को बडबडाता
"जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम
अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा "
वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन
खुद से कहने लगी कि "कितना अजीब व्यक्ति है ,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या क्या बडबडाता रहता है ।
मतलब क्या है इसका "।  
एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और
बोली "मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी "।
और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में जहर मिला दीया जो वो रोज उसके लिए बनाती थी और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने की कोशिश की.. अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह
बोली "हे भगवन मैं ये क्या करने जा रही थी ?" और उसने तुरंत उस
रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दीया। एक ताज़ा रोटी बनायीं 
और खिड़की के सहारे रख दी ,
हर रोज कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी लेके "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा " बडबडाता हुआ चला गया इस बात से बिलकुल बेखबर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है ।
हर रोज जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह
भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर
वापसी के लिए प्रार्थना करती थी जो कि अपने सुन्दर
भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ
था .महीनों से उसकी कोई खबर नहीं थी। 
शाम को उसके दरवाजे पर एक दस्तक होती है ,वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है , 
अपने बेटे  को अपने सामने खड़ा देखती है.वह दुबला-पतला  हो गया था. उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था ,भूख से वह कमजोर हो गया था. जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा, उसने कहा, "माँ, यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ. जब मैं एक मील दूर था, मैं इतना भूखा था कि मैं गिर पड़ा. मैं मर
गया होता, लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था ,उसकी नज़र
मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लिया,
भूख के मारे मेरे प्राण निकल रहे थे
मैंने उससे खाने को कुछ माँगा ,उसने नि:संकोच
अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि "मैं हर रोज
यही खाता हूँ लेकिन आज मुझसे ज्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है
सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो " .
जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी माँ का चेहरा पीला पड़ गया 
और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाजे का सहारा लिया ,
उसके मस्तिष्क में वह बात घूमने लगी कि कैसे उसने सुबह
रोटी में जहर मिलाया था। अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट
नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौत और इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चुका था।

"जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम
अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।

" निष्कर्ष "
~हमेशा अच्छा करो और अच्छा करने से अपने आप
को कभी मत रोको फिर चाहे उसके लिए उस समय
आपकी सराहना या प्रशंसा हो या न हो ।
 

Sunday, May 18, 2014

रात ढले तक चलना होगा अनजाने फुटपाथों पर........नसीम आलम नारवी

 
माना आज अंधेरों में हैं काशाने फुटपाथों पर।
कल का सबेरा लायेगा सूरज चमकाने फुटपाथों पर।।

नया सबेरा जगमग करती शाहराह दिखलायेगा,
रात ढले तक चलना होगा अनजाने फुटपाथों पर।।

फिरने दे मजनूं को सहरा-सहरा, साथी देख इधर,
सरगर्दां हैं पेट की खातिर दीवाने फुटपाथों पर।।

सरमाये की चोर गली से अपना लेना-देना क्या,
आओ चलें हम मेहनत के जाने-माने फुटपाथों पर।।

धर्म, जात, भाषा के चर्चे उठने लगे फिर ज़ोरों से,
कौन फरेबी आन बसा है क्या जाने फुटपाथों पर।।

मुल्ला, पंडित, ज्ञानी, फादर घूम रहे गलबाहें डाल,
उलझ रहे हैं दीवानों से दीवाने फुटपाथों पर।।

मस्ती-ए-मय की जाने क्या तफसील बयाँ की वाइज़ ने,
गलियों से आ गये हैं, उठकर मयखाने फुटपाथों पर।।

-नसीम आलम नारवी

Thursday, May 15, 2014

थक गया हर शब्द.........तारादत्त निर्विरोध



 











थक गया हर शब्द
अपनी यात्रा में,
आँकड़ों को जोड़ता दिन
दफ़्तरों तक रह गया।

मन किसी अंधे कुएँ में
खोजने को जल
कागज़़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई अबोली साँझ के
कान में यह बात आकर कह गया,
एक पूरा दिन, दफ़्तरों तक रह गया।

सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियाँ
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ़्तरों तक रह गया।


-तारादत्त निर्विरोध

Monday, May 5, 2014

केवल प्रवाहित होती है............नीरज मनजीत















नदी.....
शिला खण्डों पर बहता
नदी का उद्दाम यौवन
नहीं है
नदी की जय-गाथा
और न ही
किनारों से बंधा
शांत प्रवाह
पराजय की
शिथिल पग-यात्रा.
किसने देखे
शिव की जटाओं में
विशाल पाषाण-खण्ड
और गंगा के
अवतरण नृत्य के
पद-क्षेप उन पर.
कूल की मिट्टी में धंसी
प्रस्तर शिलाएं
मर्यादित जिनसे रही नदी.
नदी और पाषाण का संग
नदी की नियति नही है
नदी का भाग्यक्रम भी नहीं
केवल यह
प्रकृति का स्वाभाविक
निर्धारण.
विजयी नहीं होती नदी
पराजित नहीं होती
केवल प्रवाहित होती है
नदी.


-नीरज मनजीत

Sunday, May 4, 2014

"दसवाँ ग्रह".............यशोदा



 "हँसी में है,,, दुनिया को जोड़ने की माद्दा !!"
आज विश्व हास्य दिवस है..
विश्व दिवस के रूप में प्रथम आयोजन 11जनवरी,1998 में किया गया
तब से "विश्व हास्य दिवस" प्रत्येक वर्ष मई महीने के 
पहले रविवार को मनाया जाता है
"विश्व हास्य दिवस" का लोकप्रियता 
हास्य योग आंदोलन के माध्यम से पूरी दुनिया में फैल गई
 
मैं भी अनजान थी आज नवभारत के अवकाश अंक के "कव्हर स्टोरी" में दिखा तो प्रेरित होकर आप लोगों को अवगत कराने के उद्देश्य से यह पोस्ट कर रही हूँ...

"दसवाँ ग्रह"
घर का दामाद है
जो सदा
वक्र व क्रूर
रहा करता है
और पूजा भी
जाता है सदा
और तो और
निवास करता है
कन्या राशि में
सदा..... 

"कुर्सी"
अरे मेरे बाप
कहाँ भागे जा रहे हैं आप
क्या कोई आफत आने वाली है
नहीं भाई ! सुना नहीं आपने
उधर एक कुर्सी खाली है 


"चुनाव"
शेर ने हिरण से कहा
हम सब जानवर भाई हैं
मिल-जुल कर रहना है
हिरण ने सोचा क्या बात है
लगता है चुनाव पास है


श्री शैलेन्द्र चौहान
गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश
के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है उपरोक्त रचना
आभार उनको
सादर...
यशोदा
 





Saturday, May 3, 2014

बात सीधी है और गहरी है...........अंसार क़म्बरी.


मुझपे वो मेहरबान है शायद
फिर मेरा इम्तेहान है शायद

उसकी ख़ामोशियाँ ये कहती हैं
उसके दिल में ज़बान है शायद

मुझसे मिलता नहीं है वो खुलकर
कुछ न कुछ दरमियान है शायद

उसके जज़्बों की क़ीमते तय हैं
उसका दिल भी दुकान है शायद

मेरे दिल में सुकून पायेगा
दर्द को इत्मिनान है शायद

फिर हथेली पे रच गई मेंहदी
फिर हथेली पे जान है शायद

बात सीधी है और गहरी है
‘क़म्बरी’ का बयान है शायद
- अंसार क़म्बरी

Friday, May 2, 2014

आवाज़............दीप्ति शर्मा




 









आवाज़ जो
धरती से आकाश तक
सुनी नहीं जाती
वो अंतहीन मौन आवाज़
हवा के साथ पत्तियों
की सरसराहट में
बस महसूस होती है
पर्वतों को लाँघकर
सीमाएँ पार कर जाती हैं
उस पर चर्चायें की जाती हैं
पर रात के सन्नाटे में
वो आवाज़ सुनी नहीं जाती
दबा दी जाती है
सुबह होने पर
घायल परिंदे की
अंतिम साँस की तरह
अंततः दफ़न हो जाती है
वो अंतहीन मौन आवाज़


-दीप्ति शर्मा
प्राप्ति स्रोतः साहित्य कुंज

ये रिश्ता अपना नाकामियों के साथ............अमित हर्ष



रुसवाई .. थोड़ी बदनामियों के साथ
कीजिये कुबूल हमें खामियों के साथ

भगवान, तो किसी को शैतान बना देना
सुलूक अच्छा नहीं ये आदमियों के साथ

सियासत ने ज्यादा मज़हबी बना दिया
सुबह सनातनी शाम नमाज़ियों के साथ

ख्वाहिशें, ख्वाब इफरात में मिलेगें
गुज़ारा कीजिये तो कमियों के साथ

कामयाबी से निभाया है ‘अमित’ ने
ये रिश्ता अपना नाकामियों के साथ

-अमित हर्ष