Sunday, September 30, 2018

दृष्टि और रंगों की गाथा.....सुमन रेणु

बस आँखों को बंद करो
सोचो क्या रंग जो तुमने देखे
पहली नीमिलित पलकों के
नीचे रंग कौन से थे वो

एक अन्धेरा दूर दूर तक
आवाजों की एक दुनिया है
कितनी परत चढी है तम की
शब्दों का बस साज बजा है

दो तूलिका उसे भी तुम अब
देखो क्या तस्वीर बनाता
छवि का क्या आकार उकेरे
कैसा चिंतन हार बनाता

...........

फैला कर रंगों को पथ में
चल देगा पग उस पर रख कर
निशाँ बनेगे, दिशा दिखेगी
चीरेगी उस तम के तन को


कोई रूप जन्म तब लेगा
मन की आशा से जब मन में
दृष्टि और रंगों की गाथा
लिखी ना जाए बहु बचनो में




बड़ी ही गहरी सोच तूलिका 
और आँखों का संयम पल पल
सांस दिशा और पथ ही जीवन
रूप नहीं कोई इस रंग का

जल जैसा बहता ही जाता
हर आकार में ढलता जाता
नयन द्वार अलकें और पलकें
बंद खोल कर कुछ दुःख गाता

...............

शायद .......
खुल जायेंगे तम की परतें
बंद तालों के द्वार जो टूटे 
चिंतन और मंथन की वाणी 
तम पर कर प्रहार ये  टूटे 

रंग बिखर जायेंगे तो क्या
जीवन से बढ़कर तो नहीं है
गति है मन में चलो सूर्य तक
लिखो रोशनी कम तो नहीं है 

शब्दों की माला हो अर्पित
रंगों की भाषा भी लिक्खो
बरसेंगे बादल से छन छन
रंग यहाँ हर मन में घुलकर

-सुमन रेणु
बेंगलोर


Saturday, September 29, 2018

और रूह रिस रही है....पूजा प्रियंवदा

तुम तक पहुँचने का रास्ता
बहुत अकेला था
लम्बा भी
कड़ी धूप थी
और तुम्हारे इश्क़
की गर्मी
झुलसाती रही मेरी रूह को
मुसलसल

एक लाल रेशमी छाते से
सालों की बर्फ को
अचानक पिघलने से
बचाते हुए
गीले आँखों के पोरों को
छुपाते हुए
तुम तक पहुँची तो ....

तो तुम जा चुके थे
अपने जिस्म को
कर चुके थे
किसी और के नाम
रूह को
नीलाम कहीं कर चुके थे

तुम्हारे गिलास में
बची हुई दो घूँट व्हिस्की
एक आधी जली सिगरेट
थोड़ी ठंडी चाय चखी
और लौट आयी

अब पाँव के छालों के
मरहम का नाम याद नहीं
पीठ पर सूर्यदाह का धब्बा है
और रूह
रिस रही है !
-पूजा प्रियंवदा
पार्श्व स्वर

Friday, September 28, 2018

आँख का रंग तुलु होते हुए देखा...गुलज़ार

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

~~~ गुलज़ार साब

Thursday, September 27, 2018

मन के भी तो कितने हैं रंग....देवयानी


हरे के कितने तो रंग हैं
एक हरा जो पेड की सबसे ऊँची शाख से झाँकता है
एक जिसे छू सकते हैं आप
बढ़ाते ही अपना हाथ
एक दूर झुरमुटों के बीच से दिखाई देता है
एक नयी फूटती कोंपल का हरापन है
एक हरा बूढ़े पके हुए पेड़ का
एक हरा काई का होता है
और एक
पानी के रंग का हरा

कितने ही तो हैं आसमानी के रंग
रात का आसमान भी आसमानी है
सुबह के आसमान का भी नहीं है कोई दूसरा रंग
ढलती साँझ का हो
या हो भोर का आसमान
अपनी अलग रंगत के बावजूद
आसमानी ही होता है उसका रंग

मन के भी तो कितने हैं रंग
एक रंग जो डूबा है प्रेम में
एक जो टूटा और आहत है
एक पर छाई है घनघोर निराशा
फिर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता
एक तलाशता है खुशी
छोटी छोटी बातों में
छाई रहती है एक पर उदासी फिर भी
एक मन वो भी है
जिसे कुछ भी समझ नहीं आता है
जो कहिं सुख और दुख के बीच में राह भटका है

-देवयानी

Wednesday, September 26, 2018

साजिश में शामिल नहीं हूँ......एकान्त श्रीवास्तव


इस रंग के बारे में
कोई भी कथन इस वक़्त
कितना दुस्‍साहसिक काम है
जब जी रहे हैं इस रंग को
गेंदे के इतने और इतने सारे फूल

जब हँस रहे हों
पृथ्‍वी पर अजस्र फूल
सरसों और सूरजमुखी के 
सूर्य भी जब चमक रहा हो
ठीक इसी रंग में
और यही रंग जब गिर रहा हो
सारी दुनिया की देह पर

यह रंग हल्‍दी की उस गाँठ का है
जो सिल पर लोढ़े के ठीक नीचे
पिसी जाने के इंतजार में है

यह एक बहुत नाजुक रंग है
जिससे रंगी है
लड़कियों की चुन्‍नी और नींद

सुनो! मुझे खुशी है 
कि मैं इस रंग से चीजों को जुदा करने की
साजिश में शामिल नहीं हूँ।

-एकान्त श्रीवास्तव

Tuesday, September 25, 2018

आज की हकीकत.....अज्ञात


ये इंसा है केवल चमन देखता है,
सरेराह बेपर्दा तन देखता है।

हवस का पुजारी हुआ जा रहा है,
कली में भी कमसिन बदन देखता है।

जलालत की हद से गिरा इतना नीचे,
कि मय्यत पे बेहतर कफन देखता है।

भरी है दिमागों में क्या गंदगी सी,
ना माँ-बाप,भाई-बहन देखता है।

बुलंदी की ख्वाहिश में रिश्ते भुलाकर,
मुकद्दर का अपने वजन देखता है।

ख़ुदी में हुआ चूर इतना,कहें क्या,
पड़ोसी के घर को 'रहन' देखता है।

नहीं "तेज" तूफानों का खौफ़ रखता,
नहीं वक्त की ये चुभन देखता है।

हर इक शख्स इसको लगे दुश्मनों-सा,
फ़िजाओं में भी ये जलन देखता है।

हवस की हनक का हुनर इसमें उम्दा,
जमाने को खुद-सा नगन देखता है।
रचनाकार अज्ञात...
इस रचना के बारे में कैफियत...
ये रचना फेसबुक में दो ग्रुप मे दिखाई दी
यूकोट में  सिद्धांत पटेल ने इसे प्रकाशित किया
गूगल+ में भी ये रचना देखी गई
एक ब्लॉग मे भी दिखी

Monday, September 24, 2018

गर रूठ कर यूँ चल दिए....नीना पॉल

दे गया झरनों को फिर आवाज़ कौन
पत्थरों के हाथ में ये साज़ कौन

ले गईं मेरी उम्मीदें फिर वहीं
दूर से बजा रहा ये साज़ कौन

बर्फ़ को फिर-फिर पिघलने का नया
धूप को सिखला गया अंदाज़ कौन

मैं उड़ी तो दूर तक उड़ती रही
हौंसलों को दे गया परवाज़ कौन

आप भी गर रूठ कर यूँ चल दिए
फिर उठाएगा हमारे नाज़ कौन


-नीना पॉल

Sunday, September 23, 2018

क्या सोचती होगी धरती ........अनुराधा सिंह

मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पंद्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे

मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में

धरती से सब छीन मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
एक नदी चुराई, बाँध रखी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में।
-अनुराधा सिंह 

Saturday, September 22, 2018

तृष्णा...... भूरचन्द जयपाल( मधुप बैरागी)

धरा पर ना जल है मन-मीन विकल है
आतुर अतृप्त – सा मानव तन है

तृष्णाओं – सी बढ़ती जाती
तन-तरुवर की छांया लम्बी

धोरों की धरती पर ललनाओं का चलना
पांवों का जलना, जीवन को छलना

कितना दुष्कर है जीवन
मीलों पैदल ही चलना
तप्त रेत पांवों का जलना
जल-बिन हाथों का मलना

कैसा जीवन …………..?
जहां छलना ही छलना
कैसे मृगमरिचिकाओं से
अपनी गागर को भरना
रेत के सागर को तरना

कैसी विडम्बना है जीवन की
तृषित क्षुधायुक्त मानव को
फिर सूर्य-रश्मियां तप्त-उत्तप्त
जीना और दूभर कर जाती।।
?मधुप बैरागी

Friday, September 21, 2018

तृष्णा...वन्दना सिंह


अकेलेपन की मुझको आदत नही
पर अकेले रहना बन गई है फितरत मेरी

भीड़ से बचने का चाहत नहीं
पर तन्हाइयाँ मुझको भाने लगी है

रिश्तों की ज़िन्दगी में कमी नहीं
पर सबका प्यार मेरे नसीब में नहीं

ख़ुशियाँ तो बहुत मिली ज़िन्दगी में
पर गम भी मुझसे ज़ुदा नहीं


हर ख़्वाहिश को मंजिल मिली
पर अधूरी तमन्नाओँ की कमी नहीं

पूरी हुई है हर ख़्वाहिश
पर मन की तृष्णा बुझी नहीं

ज़िन्दगी में दोस्त तो अनगिनत मिले
पर नकाबपोश़ दुश़्मनों की कमी नहीं

लुभाती है ज़िन्दगी की रंगीनियाँ
पर श्वेत-श्याम बन गई है मेरी संगिनियाँ

हसींन लगती है सपनों की दुनिया
पर मेरी दुनियावालोंं का अपना एक जहां है

रास्ते की मुश्किलों को पारकर खुश होता है मन मेरा
पर दुविधाओँ से बचने को जी चाहता है मेरा
-वन्दना सिंह 

Thursday, September 20, 2018

तृष्णा से मर जाएगा....मधु गुप्ता

बिन पानी के जीवन तेरा 
तृष्णा से मर जाएगा 
बोलो मानव फिर तुझको 
ईश्वर कौन बचेगा ?
शुष्क धरा और सूखा अंबर 
बूंद न टपकाइएगा 
जल जल के जीवन तेरा 
त्राहि त्राहि मचाएगा 
गोधूलि की भोर बेला 
सूखा सूरज रह जाएगा 
किनारों पर लिखने कविता 
तट कहाँ से लाएगा 
दूषित गंगा जल से कैसे 
तू भगवान नहलाएगा 
जो तूने सुंदर धरती देखी
क्या बच्चों को दिखलाएगा ?
बोलो मानव उनकी प्यास 
कैसे तू बुझाएगा ?
जब पूछेंगे नदियां क्या है 
उनको क्या बतलाएगा ?
जो तुम आज बचालो इसको 
कल सुंदर हो जाएगा 
कल कल का संगीत मधुर 
कानो में घुल जायगा
जीवन देता हर पौधा
धरती पर लहराएगा 
धरती का हर एक कोना 
फिर सुंदर हो जाएगा....
-मधु गुप्ता

Wednesday, September 19, 2018

तुम …-मंजू मिश्रा

अक्सर 
सोचती हूँ... 
तुम्हे 
शब्दों में समेट लूँ 
या फिर
बाँध दूँ ग़ज़ल में 
न हो तो 
ढाल दूँ 
गीत के स्वरों में ही 
मगर 
कहाँ हो पाता है 
तुम तो 
समय की तरह 
फिसल जाते हो 
मुट्ठी से...

- मंजू मिश्रा



Tuesday, September 18, 2018

असीम प्रणय की तृष्णा...अज्ञेय

(1)
आशाहीना रजनी के अन्तस् की चाहें,
हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें
जल-जल कर जब बुझ जाती हैं,
जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित

अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित
व्रीडा की लाली आती है,
भर देती हैं मेरा अन्तर जाने क्या-क्या इच्छाएँ-
क्या अस्फुट, अव्यक्त, अनादि, असीम प्रणय की तृष्णाएँ!

भूल मुझे जाती हैं अपने जीवन की सब कृतियाँ :
कविता, कला, विभा, प्रतिभा-रह जातीं फीकी स्मृतियाँ।
अब तक जो कुछ कर पाया हूँ, तृणवत् उड़ जाता है,
लघुता की संज्ञा का सागर उमड़-उमड़ आता है।

तुम, केवल तुम-दिव्य दीप्ति-से, भर जाते हो शिरा-शिरा में,
तुम ही तन में, तुम ही मन में, व्याप्त हुए ज्यों दामिनी घन में,
तुम, ज्यों धमनी में जीवन-रस, तुम, ज्यों किरणों में आलोक!

(2)

क्या दूँ, देव! तुम्हारी इस विपुला विभुता को मैं उपहार?
मैं-जो क्षुद्रों में भी क्षुद्र, तुम्हें-जो प्रभुता के आगार!
अपनी कविता? भव की छोटी रचनाएँ जिस का आधार?
कैसे उस की गरिमा में भर दूँ गहराता पारावार?

अपने निर्मित चित्र? वही जो असफलता के शव पर स्तूप?
तेरे कल्पित छाया-अभिनय की छाया के भी प्रतिरूप!
अपनी जर्जर वीणा के उलझे-से तारों का संगीत?
जिसमें प्रतिदिन क्षण-भंगुर लय बुद्बुद होते रहें प्रमीत!

(3)

विश्वदेव! यदि एक बार,
पा कर तेरी दया अपार, हो उन्मत्त, भुला संसार-
मैं ही विकलित, कम्पित हो कर-नश्वरता की संज्ञा खो कर,
हँस कर, गा कर, चुप हो, रो कर-
क्षण-भर झंकृत हो-विलीन हो-होता तुम से एकाकार!
बस एक बार!
1911-1987
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

Monday, September 17, 2018

मौसम बदलने लगा.....नीना पॉल

वफ़ाओं का मौसम बदलने लगा
मुक़द्दर भी अब हाथ मलने लगा

तेरी ख़्वाहिशें दिल में हसरत लिए
पलकों पे सावन मचलने लगा

मिले हादसे मुझको हर मोड़ पर
सम्भलने से पहले फिसलने लगा

तेरी याद में खो गया इस क़दर
उम्मीदों का इक दीप जलने लगा

मिलने से पहले जुदाइयों का ग़म
पल-पल दिलों में ही पलने लगा

तुझे ढूँढता हूँ मैं यूँ दर -ब- दर
पैरों का छाला भी जलने लगा

दीवाना समझ लोग यूँ डर गए
हाथों में पत्थर उछलने लगा
-नीना पॉल

Sunday, September 16, 2018

आँखों में मेरे एक सपना है .....योगेश राठौर

आँखों में मेरे एक सपना है,
दिल कहता है वो मेरा अपना है.

ख्वाब में जलता हूँ मैं जिसके लिए,
आज फिर उसे सरे राह तकना है.

रोज़ रोज़ की शरारतें खुद से ही,
अब खुद से ही बच निकलना है.

मैं डर जाता हूँ परछाई देखकर,
इस अंधेरे को भी मुझे छलना है

सारे आईने तोड़ दिए हैं मैंने,
क़दमों को फूँक फूँक के चलना है.

गुलाबों से ख़ुशबूँ आती नहीं है,
किताबों को भी अब संभलना है।

ज़िंदगी सूरज की मोहताज नहीं,
शाम से कहो मुझे अब ढलना है

-यश-


Saturday, September 15, 2018

नींद की बातें..... कंचनप्रिया

नींद तुम ये ख़ता नहीं करना
हमें उनसे जुदा नहीं करना
ख़्वाब में भी यक़ीनन वो आये
मिलकर उनसे ये गुफ्तगू करना

वास्ता देना मेरी चाहत का
मेरे खामोश दिल की धड़कन का
मेरे इन्तज़ार के हरेक पल का
हिसाब उनसे रूबरू करना

खामख्वाह बात ना बहुत बढ़ जाये
ख्वाब बदख्वाब में ना बदल जाये
ये गरज मेरी है उनकी नहीं
गोया इसका ख्याल भी करना

चंद अल्फाज मेरे जुस्तजू के 
जज्बेहालात मेरे आरजू के
उनसे एकपल जुदाई गवारा नहीं
जिक्रे ख़ास ये ज़रूर करना !!!
-कंचनप्रिया


Friday, September 14, 2018

तेरी दोस्ती......विनीता तिवारी


कुछ तो पाया है मिरे दिल ने तेरे जाने में।
रात भर रोए थे, कुछ मोतियों को पाने में।।

फिर न कहना कि मुझे दोस्तों का मोल नहीं,
उम्र  गुज़री  है,  तेरी  दोस्ती  भुलाने  में।।

तुमने पूछा ही नहीं मुझसे मेरा हाल-ए-जिगर,
मैं  बताने  तो गया था,  तिरे  बुलाने में।।

कैसे कह दूं कि तेरा साथ मुझको ख़ास नहीं, 
ख़ुद को भूले हुए  हैं हम,  क़रीब लाने में।।

झुकती उठती है नज़र इक नज़र चुराने को,
जा के आती है, हमें साँस फिर ज़माने में।।

झूठ सब बातें हुई, बेख़ौफ़, मगर चूँ न हुई,
कितना कोहराम मचा है, ये सच बताने में।।

-विनीता तिवारी

Thursday, September 13, 2018

क्षितिज....गोपाल कृष्ण शुक्ल

दूर, बहुत दूर पर कहीं
हमने अक्सर देखा।

अम्बर के
नीलाभ पटल पर
मटमैली धरती
अपना रंग घोलती।

ये दृष्य देख कर
मेरा मन हुलस उठा
मष्तिष्क में
प्रश्न कौंधा
कैसे पावन-बन्धन में
बाँध रही है
धरती और अम्बर को
यह क्षितिज रेखा।

दूर, बहुत दूर पर कहीं
हमने अक्सर देखा।।

-गोपाल कृष्ण शुक्ल


Wednesday, September 12, 2018

जाने के ख्वाहिश हैं.....एस. नेहा

क्षितिज के उस पार 
जहाँ  मेरी जाने के ख्वाहिश हैं

वहां न ख्वाहिशों की  बेड़ियाँ हैं 
और न ही रिश्तों का दोहरापन 
वहाँ न ही उम्मीदें हैं 
और न ही किसी प्रकार का सूनापन 

वहां बसता है गर कुछ तो 
बस शांति का एहसास ....
मेरे चेहरे पे अब थकान दिखने लगी हैं 
मेरे आवाज में बेबसी सजने लगी है 
की मुझे ये दुनिया पसंद नहीं 
की मै थक गई हूँ।

अब मुझे इस थकान  को मिटाना है 
आवाज से इस बेबसी को मिटाना है 
कि मैं  जिन बन्धनों में बंध  गई हूँ 
तोड़ देना है उन्हें 
कि मुझे अब चीखना है  जोरों से   
कि मेरा खुदा  सुन सके 

और मेरा मसीहा मुझसे  मिल सके 
की अब तो मुझे क्षितिज के पार ही जाना है 
-एस. नेहा
दस साल पुरानी रचना

Tuesday, September 11, 2018

कमरे में बन के नूर रहना..........सतलज राहत


तुम्हारे रास्तों से दूर रहना 
कहा तक ठीक है मजबूर रहना

सभी के बस की बात थोड़ी है 
नशे में इस कदर भी चूर रहना

ना जाने किस कदम में छोड़ेगी
हमारे साथ होके दूर रहना

तुम्हारी याद ही तो जानती है
मेरे कमरे में बन के नूर रहना

सच तो ये है मेरी तमन्ना थी
तुम्हारी मांग का सिंदूर रहना

जो मेरे पास आना चाहती है
वो ही कहती है मुझसे दूर रहना

तो क्या ये ठीक है मेरे दिल में
तुम्हारा बन के यूँ नासूर रहना

मुझसे पूछो इतने पत्थरों में
कितना मुश्किल है कोहिनूर रहना

उसकी आदत मै आ गया है अब
हमारे नाम से मशहूर रहना

मैंने तो सिर्फ इतना जाना है
बड़ा मुश्किल है तुझसे दूर रहना

कभी इस्सा कभी सुकरात बनना
कभी सरमद कभी मंसूर रहना

ये शायरी नहीं तज्जली है
ज़ेहन ऐसे ही कोहेतूर रहना

सतलज हम तुझे पहचानते है
तुझे हक है युँही मगरूर रहना 
- सतलज राहत