Saturday, February 29, 2020

काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं ...गुलज़ार

ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता 
मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता 

यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता 
कोई एहसास तो दरिया की अना का होता 

साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती 
कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता 

काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं 
काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता 

क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए 
एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता
-गुलज़ार

Friday, February 28, 2020

बेस्वाद ज़िंदगी......साधना वैद


कैसी विचित्र सी मनोदशा है यह ! 
भूलती जा रही हूँ सब कुछ इन दिनों ! 
इतने वर्षों का सतत अभ्यास 
अनगिनत सुबहों शामों का 
अनवरत श्रम 
सब जैसे निष्फल हुआ जाता है 
अब अपनी ही बनाई रसोई में 
कोई स्वाद नहीं रहा 
मुँह में निवाला देते ही 
खाने वालों का मुँह 
किसकिसा जाता है !
कितने भी जतन से मिष्ठान्न बनाऊँ 
जाने कैसा कसैलापन 
जिह्वा पर आकर 
ठहर जाता है !
नहीं जानती मैं ही सब कुछ 
भूल चुकी हूँ या 
खाद्य सामग्री मिलावटी है 
या फिर पहले बड़े सराह-सराह कर 
खाने वालों के मुँह का 
ज़ायका बदल गया है ! 
पकवानों की थाली की तरह ही 
ज़िंदगी भी अब उतनी ही 
बेस्वाद और फीकी हो गयी है जैसे ! 
बिलकुल अरुचिकर, नीरस, निरानंद !


लेखिका परिचय - साधना वैद
मूल रचना

Thursday, February 27, 2020

एक ज़िंदा भारतीय....अनीता लागुरी "अनु"


क्यों   दिखता  नहीं 
एक  ज़िंदा  भारतीय
क्यों दिखती  नहीं
भूख  से कुलबुलाती
उसकी  अतड़ियाँ  ..!
उसकी  आशायें ,
उसकी हसरतें  ,
दिखती  कब  हैं 
  जब .....?
 वो  मर  जाता  है  !
लोगों  की  आँखों  पर 
चढ़   जाता है  ..
एक  अंजुरीभर  चावल  के  बदले ..!
घर  बोरों   से  भर   जाता   है ...
टूटी खाट आँगन  में  सज  ज़ाती है 
बन  सूर्खियां अख़बारों  की
बाक़ियों  की जुगाड़ कर जाता है !!


लेखिका परिचय - अनीता लागुरी "अनु"


Wednesday, February 26, 2020

तेरी महफिल में ...प्रीती श्रीवास्तव

तेरी महफिल में आना चाहता हूं।
गजल तुझको सुनाना चाहता हूं।।

मोहब्बत की कहानी इस शहर में।
सनम सबको बताना चाहता हूं।।

कभी रोकर कभी सबको रूलाकर।
कभी हँसकर हँसाना चाहता हूं।।

जमाना चाहे मुझको या न चाहे।
तुझे मैं आजमाना चाहता हूं।।

मुझे मेरी मुहब्बत की कसम है।
तुझे अपना बनाना चाहता हूं।।

तेरे दिल में ठहर कर अपने लिये।
मुहब्बत फिर जगाना चाहता हूं।।

तेरी ही आरजू में जानेजां मैं।
ये दुनिया भूल जाना चाहता हूं।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Tuesday, February 25, 2020

जाना, फिर जाना ...केदारनाथ सिंह

जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
-केदारनाथ सिंह
मूल रचना


Monday, February 24, 2020

ज्येष्ठ की तपिश और प्यासी चिड़िया....सुधा देवरानी


सुबह की ताजी हवा थी महकी
कोयल कुहू - कुहू बोल रही थी....
घर के आँगन में छोटी सी सोनल
अलसाई आँखें खोल रही थी....
चीं-चीं कर कुछ नन्ही चिड़ियां
सोनल के निकट आई......
सूखी चोंच उदास थी आँखें
धीरे से वे फुसफुसाई....
सुनो सखी ! कुछ मदद करोगी ?
छत पर थोड़ा नीर रखोगी ?

बढ़ रही अब तपिश धरा पर,
सूख गये हैं सब नदी-नाले
प्यासे हैं पानी को तरसते,
हम अम्बर में उड़ने वाले.....
तुम पंखे ,कूलर, ए.सी. में रहते
हम सूरज दादा का गुस्सा सहते
झुलस रहे हैं, हमें बचालो !
छत पर थोड़ा पानी तो डालो !!
जेठ जो आया तपिश बढ गयी
बिन पानी प्यासी हम रह गयी....

सुनकर सोनल को तरस आ गया
चिड़ियों का दुख दिल में छा गया
अब सोनल सुबह सवेरे उठकर
चौड़े बर्तन में पानी भरकर,
साथ में दाना छत पर रखती है....
चिड़ियों का दुख कम करती है ।

मित्रों से भी विनय करती सोनल
आप भी रखना छत पर थोड़ा जल ।।

लेखिका परिचय - सुधा देवरानी 

Sunday, February 23, 2020

बात कह दे खामोशियां शायद ....अरुणिमा सक्सेना

प्रतिभा मंच 
फिलबदीह 1018
मापनी ...
2122..1212..22

वस्ल की रात आज आई है
बज उठीं है ये चूड़ियां शायद..।।

आग दिल में लगी बुझे कैसे
उठ रहा इस लिये धुआं शायद।।

उनके आने से बहार भी आई
खूब मचले ये शोखियाँ शायद।।

मतला...
बढ़ रही है ये दूरियाँ शायद
काम आतीं मजबूरियों शायद।।

दिल की बातें नज़र से कहती हैं
बात कह दे खामोशियां शायद।।
- अरुणिमा सक्सेना

Saturday, February 22, 2020

इक हाँ के इंतिज़ार में ....ज़नाब मेंहदी अब्बास रिज़वी

आज आपको एक ग़ज़ल पढ़वा रहे हैं
फेसबुक से उठा लाए हैं हम
आपको ज़रूर पसंद आएगी
...
वादा किया है जो भी निभाएंगे रात दिन
हर रस्में वफ़ादारी दिखाएँगे रात दिन।

नज़रों से तेरी आँख का काजल निकाल कर,
चेहरे को अपने ख़ूब सजाएँगे रात दिन।

हर इक क़दम पे रूसवा हुए ठोकरें मिलीं,
फिर भी तेरी गली में ही आएंगे रात दिन।

आग़ोशे एहतिजाज के पाले हुए है हम,
ज़ुल्मों सितम को आँख दिखाएँगे रात दिन।

मंज़िल मिलेगी मुझ को भरोसा रहा सदा,
नारा - ए इंक़लाब लगाएंगे रात दिन।

इक हाँ के इंतिज़ार में सदियां गुज़र गईं,
मिलते जवाब नाज़ उठाएंगे रात दिन।

बाद-ए-सबा के आते अंधेरा भी जायेगा,
फिर अज़्म का चराग़ जलाएंगे रात दिन।

जो कुछ दिया है उस के लिए शुक्रिया जनाब,
हर ज़ख़्में दिल सभी को दिखाएँगे रात दिन।

' मेंहदी ' उदास न हो गुलूकार हर तरफ़,
नग़में तुम्हारे झूम के गाएंगे रात दिन।
 -ज़नाब मेंहदी अब्बास रिज़वी
" मेंहदी हल्लौरी "

Friday, February 21, 2020

कविता प्यासी रह गई.....संध्या आर्य

हम बादल थे 
बरस गये 
पर 
जमीन सूखी रह गई 

तेरे समान के तह में 
दुनिया जहान सब था 
शरीर कुछ भी ना था 
हमारे लिये 
इक रुह की प्यास में 
हम जुदा रह गये 

ओंस थे घास पर 
और नमी आंखों की 
शब्द शब्द पिघले 
पर 
पंक्तियों की कतार में 
कविता प्यासी रह गई !!


Thursday, February 20, 2020

मेरा कुछ सामान ......पूजा प्रियंवदा

ईसा पूर्व और पश्चात जैसे
भावनाओं को बाँटने की सुविधा
देती नहीं हैं ज़िन्दगी

किसी पुरातत्त्व अवशेष जैसे
अचानक उभर आती हैं स्मृतियाँ
कुछ पाषाण हो चुकीं
कुछ अभी भी कंकाल

वो जो पहली बार दरका था विश्वास
अब भी किसी पर नहीं हो पाता
वो जो पेचीदा तरीकों से घुलनशील हैं यादें
उनका एक रंग हो चुका है
धूसर, मटमैला , काला

डॉक्टर कहते हैं "फैंटम लिंब "
कट जाने के बाद भी महसूसता है
टीसता है, रात भर जिसके दर्द ने
नींद की चोरी की है
तुम वो हिस्सा हो जो अब है ही नहीं

मेरा कुछ सामान ..
-पूजा प्रियंवदा

Wednesday, February 19, 2020

भीड़ में अकेला.....नीलेश माथुर

एक दिन मैं 
अपने सारे उसूलों को 
तिजोरी में बंद कर 
घर से खाली हाथ निकलता हूँ 
और देखता हूँ कि अब मैं 
भीड़ में अकेला नहीं हूँ,
अब मुझे 
दुनियादारी का कुछ सामान 
बाज़ार से खरीदना होगा
और अपने अंतर को
उससे सजाना होगा,
या फिर 
भीड़ में अकेले चलने का 
साहस जुटाना होगा !


Tuesday, February 18, 2020

सिगरेट के धुये मे....पंकज उपाध्याय


सिगरेट के धुये मे,
कुछ शक्ले दिखती है,
मुझसे बाते करती हुयी,
कुछ चुप चाप.....
और सिगरेट जलती जाती है...
जैसे वक्त जल रहा हो,


गये वक्त को मै,
ऎश की तरह झाड देता हू
और वो माटी के साथ मिल जाता है,
खो जाता है उसी मे कही......

बस होठो पर एक रुमानी
अहसास होता है,

कहते है कि वक्त को जलाने का भी
अपना ही मज़ा है......


                                  

Monday, February 17, 2020

दानव ....अलका गुप्ता 'भारती'

जंगल की कंदराओं से निकल तुम ।
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम ।
क्यूँ हो अभी भी दानव इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?

मानवता आज भी इतनी निढाल क्यूँ ?
बलात्कार हिंसा यह लूटमार क्यूँ ?
साथ थी विकास में संस्कृति के वह ।
उसका ही इतना तिरस्कार क्यूँ ?

प्रकट न हुआ था प्रेम-तत्व तब ।
स्व-स्वार्थ निहित था आदिमानव तब ।
एक माँ ने ही सिखाया होगा प्रेम तब ।
उमड़ पड़ा होगा छातियों से दूध जब ।

संभाल कर चिपकाया होगा तुझे तब ।
माँस पिंड ही था ..एक तू इंसान तब ।
न जानती थी फर्क..नर-मादा का तब |
आज मानव जानके भी अनजान क्यूँ ?

जंगल की कंदराओं से निकल..तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम ।
क्यूँ हो अभी भी ..दानव इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
-अलका गुप्ता 'भारती'

Sunday, February 16, 2020

आइना मत दिखाओ.... नवीन मणि त्रिपाठी


2122 1212 22
इक ग़ज़ल गुनगुनाओ सो जाओ ।
फ़िक्र दिल से उड़ाओ सो जाओ ।।

शमअ में जल गए पतंगे सब ।
इश्क़ मत आज़माओ सो जाओ ।।

यादें मिटतीं नहीं अगर उसकी ।
ख़त पुराने जलाओ सो जाओ ।।

रात काफ़ी गुज़र चुकी है अब ।
चाँद को भूल जाओ सो जाओ ।।

उसने तुमको गुलाब भेज दिया ।
गुल को दिल से लगाओ सो जाओ ।।

उल्फ़तें बिक रहीं करो हासिल ।
दाम अच्छा लगाओ सो जाओ ।।

ख़ाब में वस्ल है मयस्सर अब ।
रुख़ से चिलमन हटाओ सो जाओ ।।

बेवफ़ा की तमाम बातों का ।
यूँ न चर्चा चलाओ सो जाओ ।।

बारहा माँगने की आदत से ।
काहिलों बाज़ आओ सो जाओ ।।

है सियासत का फ़लसफ़ा इतना ।
आग घर में लगाओ सो जाओ ।।

इतनी जल्दी भी क्या मुहब्बत में ।
तुम ज़रा सब्र खाओ सो जाओ ।।

स्याह रातों में बेसबब मुझको ।
आइना मत दिखाओ सो जाओ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी

Saturday, February 15, 2020

बेड़ियाँ......शेफाली

अंतर्मन के किसी कोने में
एक आत्मा उर भी है
जो आकाश की असीमित
उचाईयों को छूना चाहती है
जो पंख लगा कर उड़ने को 
व्याकुल है
प्यार की गहराईयों में उतर कर
पवित्रता के मोती चुनना चाहती है
जो जीवन की गंगा संग
मंत्रमुग्ध हो बहना चाहती है
फिर क्यूँ नहीं उसे उड़ने दिया जाता
क्यों नहीं प्यार की गंगा में बहने 
दिया जाता
क्यूंकि शायद यही दुनिया की रस्मे हैं
हर आत्मा को बेड़ियों में जकड़
दिया जाता है
और तब तक तड़पाया जाता है
जब तक अरमानो की वो आत्मा
दम तोड़ नहीं देती


Friday, February 14, 2020

वेदना और कलम ....योगेश सुहागवती गोयल

वेदना और कलम
जब सारे रास्ते बंद हो जायें, कोई राह नहीं सूझे
मन में दबी वेदना, कलम से, आंसू छलकाती है

कभी रिश्तों की मजबूरी, कभी उमर के बीच दूरी
अपनी जुबान बंद रखने को, मजबूर हो जाते है
अदब की मांग और कभी, तहज़ीब झुका देती है
कभी वक़्त गलत मान, खुद ही चुप रह जाते हैं

कुछ, औरों की ख़ुशी जलाके, घर रौशन करते हैं
दिखाते अपना हैं, पर मन से हमेशा दूर रखते हैं
चुप्पी साध अपनी खामीयों पर, आवरण ढकते हैं
अपनी बातें मनवाने को, नित नये ढोंग रचते हैं

लेकिन जब कभी, किसी भ्रम का भांडा फूटता है
अचानक आई सुनामी से सबके तोते उड़ जाते हैं
शांति से चलती ज़िंदगी से किस्मत रूठ जाती है
हकीकत सामने आते ही, सभी बेहाल हो जाते हैं

असहनीय स्थिति और मुमकिन नहीं काबू रखना
कवि वेदना व्यक्त करने को कलम पकड़ लेते हैं
पीड़ा ऐसे अंदाज़ से अपने अंजाम तक पहुँचती है
शब्द इंसानों को नहीं, कागजों में दम तोड़ देते हैं

“योगी” वेदना का कलम के साथ अजब संयोग है
कहीं कोई आहत नहीं, गुबार भी निकल जाता है।

-योगेश सुहागवती गोयल

Thursday, February 13, 2020

वो गुल्लक फ़ोड आया....पंकज उपाध्याय


कुछ दुआएँ
मैं एक गुल्लक मे
रखता था..
चन्द कौडिया थी,
रहमतो मे लिपटी हुयी..
बुजुर्गो ने बरकते दी थी..



उस बूढे फ़कीर ने,

जब सर पे हाथ रखा,
दुआ दी कि एक अच्छे इन्सा
बने रहना…
वो सारी कौडिया मै
उसके कासे मे डाल आया…..



आज…

आज मै वो गुल्लक फ़ोड आया…



Wednesday, February 12, 2020

'कलम' ...ओम प्रकाश अत्रि

हर गरीब
बेबस जनता के
बहते हुए
आँसुओं को
पोछती कलम,

बेजुबान की
जुबान बनकर
उसके हकों को
दिलाती कलम।

छोटी सी छोटी
कमजोरियों को
बड़ी सी बड़ी
खूबियों को
उजागर करती कलम,

ज़िन्दगी के
धूमिल
हर मोड़ पर
साथ देती कलम।

प्रेम की
भाषा भी  लिखती
दुखित के
दुख को परखती,
द्वेष का सैलाब
मिटाकर
शिष्टता लाती कलम।

दूर करती
नीचता को
नष्ट करती
काले बाज़ार को,
देश के हित
आग बनकर
क्रान्ति को लाती कलम।

पूंजीपति की
कटुरता को
देखकर
उनके कहर को
दहक उठती
शोला बनकर,
श्रमिक जन को
सन्देश देती
हौंसला बनकर कलम।

मुल्क के हित
सैनिकों में
ओज का संचार
करती,
पाठ सच्चाई का
सिखाकर
कोरे कागद पर
एक नया
इतिहास लिखकर
सद्भावना लाती कलम।
-ओम प्रकाश अत्रि

Tuesday, February 11, 2020

आदमी जो सोचता है.... प्रताप नारायण सिंह

यूँ तो अपनी ओर से कोई कसर कब छोड़ता है
पर कहाँ होता भला वो, आदमी जो सोचता है

नींद रातों की, सुकूँ दिन का नहीं बिकता कहीं भी
इन को पाने का हुनर तो बस फ़कीरों को पता है

एक पल में है बुरा; अच्छा बहुत ही दूसरे पल
क्या अजब फितरत, कभी दानव, कभी वो देवता है

ज़िन्दगी के नाव की पतवार रिश्तों का यकीं है 
डूब जाती एक दुनिया, जब भरोसा टूटता है  

धूप या छाया मिले, स्वीकारना पड़ता सभी को
पर रखे समभाव कैसे, कोई विरला जानता है 

दर्द भी, आनंद भी, सौगात भी, संघर्ष भी है
बात ये कि ज़िन्दगी को कौन कैसे देखता है !!

Monday, February 10, 2020

पदचाप ...श्वेता सिन्हा

सरल अनुभूति के जटिल अर्थ,
भाव खदबदाहट, झुलसाते भाप।
जग के मायावी वीथियों में गूँजित
चीन्हे-अनचीन्हे असंख्य पदचाप

तम की गहनता पर खिलखिलाते,
तप तारों का,भोर के लिए मंत्रजाप।
मूक परिवर्तन अविराम क्षण प्रतिक्षण, 
गतिमान काल का निस्पृह पदचाप

ज्ञान-अज्ञान,जड़-चेतन के गूढ़ प्रश्न,
ब्रह्मांड में स्पंदित नैसर्गिक आलाप।
निर्माण के संग विनाश का शाप,
जीवन लाती है मृत्यु की पदचाप।

सृष्टि के कण-कण की चित्रकारी,
धरा-प्रकृति , ब्रह्म जीव की छाप।
हे कवि!तुम प्रतीक हो उजास की,
लिखो निराशा में आशा की पदचाप।
-श्वेता