Thursday, September 30, 2021

चढ़ती उम्र के साथ .....नीलम गुप्ता

 

चढ़ती उम्र के साथ
बुढ़ापे की तरफ
जब राह हो जाती
अपनी औलाद ही
जब आंखे दिखाती
तब पतियों को
बदलते देखा है
पत्नियों की कदर
करते देखा है।

सारी दुनिया घूम ली जब
कोई रिश्ता सगा ना दिखा
भाई बहन सब रुठ गएं
मां, बाप के हाथ छूट गएं
तब जीवनसाथी का हाथ
सड़क पे पकड़े देखा है।

जवानी जब बीत गई
कमाने की इच्छा भी ना रही
भागने का जब दम ना बचा
घुटनों का दर्द जब बढ़ गया
तब पत्नी के घुटनों में
बाम लगातें देखा हैं।

पार्क में जब
किसी का दर्द सुन लिया
साथी किसी का गुजर गया
उसकी आंख का आंसू देख
घर आकर,जीवन साथी को 

हिलते हाथों से
गजरा लगाते देखा है।
चढ़ती उम्र के साथ
प्यार को भी चढ़ते देखा है।

Wednesday, September 29, 2021

जिंदगी का सफर ....मनोरमा सिंह

 रश्क-ए-जन्नत बने जिंदगी का सफर।
फूल उस पर खिले जो डगर हो तेरी।

तुम जो मिले वक्त थम सा गया।
मुझको जन्नत लगे रहगुज़र हो तेरी।

कौन सा था नशा, हम बहकते गए।
सुरूर छाये गर, वो नज़र हो तेरी।

तुम जो बदले, दुनिया बदल सी गई।
हम न समझे नज़र किधर हो तेरी।

हवाओं का झोंका उड़ा ले गया।
अब न अपनी ख़बर न ख़बर हो तेरी।

खूब गुनाहों को मेरे मुझसे कहा।
कब तल भला, दिल में फिकर हो तेरी।

शाम सुबहा तेरी याद आये चली।
लब हिले न मगर जब जिकर हो तेरी।
-मनोरमा सिंह _ बल्लू सिंह
आजमगढ

Tuesday, September 28, 2021

चौराहा और पुस्तकालय ...खेमकरण ‘सोमन’

चौराहा और पुस्तकालय 
चौराहे पर खड़ा आदमी 
बरसों से, खड़ा ही है चौराहे
पर टस से मस भी नहीं हुआ ! 

जबकि पुस्तकालय में
खड़ा आदमी 
खड़े-खड़े ही पहुँच गया
देश-दुनिया के 
कोने-कोने में

जैसे हवा-सूरज, 
धूप-पानी और बादल 
फिर भी देश में
सबसे अधिक हैं चौराहे ही।  

  









 




Monday, September 27, 2021

बहुत बुरा महसूस किया .....खेमकरण ‘सोमन’


डिकैथनॉल,
ट्रेंड्स,
बिग बाजार और विशाल मेगा मार्ट की धरती से
खरीदारी करने के बाद उन्होंने
महसूस किया रंग–रंगा
चाँद–तारों को बता–बतियाकर
उतनी ही ऊँचाई पर पाया अपने आपको
पाया अपने सम्मान में बढ़ोत्तरी
महसूस किया बहुत–बहुत अच्छा
बस…बहुत–बहुत बुरा महसूस किया
सब्जी वाले, राशन वाले और
रिक्शे वाले के साथ लेन–देन करके। 

-खेमकरण ‘सोमन’


Tuesday, September 21, 2021

किसी के समक्ष प्रिय…मत खुलना ...खेमकरण ‘सोमन’

विदा हो रहा हूँ
चाबी ने बस 
इतना ही कहा
जब तक आ न जाऊँ–


किसी के समक्ष प्रिय…मत खुलना
फिर कई चाबियाँ आईं- 
चली गईं
लेकिन न खुला ताला
न ताले का मन
यहाँ तक कि
हथौड़े की मार से टूट गया
बिखर गया
लहूलुहान हो गया
मर गया पर अपनी ओर से खुला नहीं !
पर उसके अंतिम शब्द
दुनिया के सामने खुलते चले गए–
प्रिय… तुमसे जो भी कहा, 
मैंने सुना
बस उसी कहे–सुने की 
लाज रखते हुए
विदा हो रहा हूँ!
प्रेम आकंठ डूबा हुआ
यकीनन… 
लाज रखता है
कहे–सुने गए,
अपने शब्दों की ।
-खेमकरण ‘सोमन’ 

Thursday, September 16, 2021

झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी ...आरज़ू लखनवी

किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी

कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी बहा ले गया बरसात का पहला पानी

टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ
कही खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी

बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका
आरजू देखते ही मुँह में भर आया पानी

ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम
"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी

-आरज़ू लखनवी

Friday, September 3, 2021

चराग़ाँ हर एक घर के लिये ....दुष्यंत कुमार


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.
-दुष्यंत कुमार

मयस्सर=उपलब्ध, मुतमईन=संतुष्ट, मुनासिब=ठीक 

Thursday, September 2, 2021

मैं तुझे फिर मिलूँगी ....अमृता प्रीतम


मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!! 
-अमृता प्रीतम