बहुत-सी यादें हैं
तुम्हारे आंगन की
मेरी छनकती
पायल की
रुनझुन-तुम्हें
सुहाती थी
जैसे बेटी थी
मैं तेरे घर की।
लुटाते थे
आंखों से
सारे बाग-बगीचे
की संपदा
तुम मुझ पर
मैं कौतुक और भौंचक
देखी करती।
कैसे होते हैं
रिश्ते-नाते
या संबंध
जो अपनों की
बिलकुल
अपनों की
देहरियां
लांघकर भी
बना लेते
हैं घर और
ठिकाना।
दूसरों के घर
और पता
नहीं चलता
कौन-सा घर-
कौन-सा आंगन-
और उस एक
शब्द में
घुल-मिल
जाती है
सारी वसुधा
जिसे कहते
हैं- अपनापन।
- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
(अप्रवासी भारतीय)
(अप्रवासी भारतीय)
शुभप्रभात छोटी बहना
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
लाजवाब पोस्ट
हार्दिक शुभकामनायें ...।
bhaut khubsurat se bhaavo ko sanjoya hai apne...
ReplyDeleteनमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21 -07-2013) के चर्चा मंच -1313 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteउस एक
ReplyDeleteशब्द में
घुल-मिल
जाती है
सारी वसुधा
जिसे कहते
हैं- अपनापन।-------
सुंदर अनुभूति, सुखद अहसास
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आग्रह है---
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए शुक्रिया!
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteलाजवाब पोस्ट
सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसुन्दर ..!!!
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