Saturday, July 20, 2013

बहुत-सी यादें हैं..............सुदर्शन प्रियदर्शिनी


बहुत-सी यादें हैं
तुम्हारे आंगन की
मेरी छनकती
पायल की
रुनझुन-तुम्हें
सुहाती थी
जैसे बेटी थी
मैं तेरे घर की।

लुटाते थे
आंखों से
सारे बाग-बगीचे
की संपदा
तुम मुझ पर
मैं कौतुक और भौंचक
देखी करती।

कैसे होते हैं
रिश्ते-नाते
या संबंध
जो अपनों की
बिलकुल
अपनों की
देहरियां
लांघकर भी
बना लेते
हैं घर और
ठिकाना।

दूसरों के घर
और पता
नहीं चलता
कौन-सा घर-
कौन-सा आंगन-
और उस एक
शब्द में
घुल-मिल
जाती है
सारी वसुधा
जिसे कहते
हैं- अपनापन।
- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
(अप्रवासी भारतीय)

9 comments:

  1. शुभप्रभात छोटी बहना
    बहुत ही सुंदर
    लाजवाब पोस्ट
    हार्दिक शुभकामनायें ...।

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  2. bhaut khubsurat se bhaavo ko sanjoya hai apne...

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  3. नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21 -07-2013) के चर्चा मंच -1313 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  4. उस एक
    शब्द में
    घुल-मिल
    जाती है
    सारी वसुधा
    जिसे कहते
    हैं- अपनापन।-------

    सुंदर अनुभूति, सुखद अहसास
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है---
    केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------

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  5. सुन्दर प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए शुक्रिया!

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  6. बहुत ही सुंदर
    लाजवाब पोस्ट

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  7. सुन्दर प्रस्तुति!

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