Wednesday, January 31, 2018

क्षणिकाएँ.......अनिता ललित


प्रेम की बेड़ियाँ... 
फूलों का हार,
विरह के अश्रु...
गंगा की धार,
समझे जो वेदना
प्रिय के मन की... 
योग यही जीवन का...
है यही सार !
..............
दिल की मिट्टी थी नम...
जब तूने रक्खा पाँव...,
अब हस्ती मेरी पथरा गयी..
बस! बाकी रहा .. तेरा निशाँ !
..............
सपने दिखाए तुमने...
पंख दिए तुमने...
और कह दिया मुझसे...
उड़ो! खूब ऊँचा उड़ो!
मगर मैं कैसे उड़ती?
उन सपनों के पंखों पर....
पाँव रखकर...
तुम्हीं खड़े थे...
और तुम्हें एहसास ही नहीं था...!
.................
खिलखिलाती, मुस्कुराती बहारें..., 
वो सावन की पुलकित बौछारें...! 
भिगो जाती थीं तन मन को जो... 
कहाँ गुम गयीं वो.....
रिमझिम-रुनझुन फुहारें....?
बनकर परछाईं...आज भी दिल में....
बरसता है वो सावन.....! 
भीगता नहीं मगर अब.... सूखा मन...! 
फिर क्यों ... कहाँ से... कैसे..... महक उठे...... 
आँखों में..... ये सोंधापन....???
...................
कैसी ये दुनिया !
क्या इसकी तहज़ीब में जीना !
बढ़ाए जो हाथ कोई ...
समझ ले उसी को ज़ीना...!
.....................
ज़िंदगी की सुबह...
जिनके हौसलों से आबाद हुई,
शाम ढले क्यों ज़िंदगी...
उनसे से ही बेज़ार हुई....?
....................
कितनी पाक होगी वो इबादत... 
कितना ख़ूबसूरत होगा वो नज़ारा.. 
ख़ुदा के सजदे से जो सिर उठे.... 
सामने आँखों के हो सूरत-ए-यारा.....!
-अनिता ललित

Tuesday, January 30, 2018

अनुभूतियों के कच्चे फूल....स्मृति आदित्य


कच हरी दूब सा 
कोमल रिश्ता 
दंड भुगतता है 
नरम होने का 
और 
रौंदा जाता है जब-तब 
चाहे-अनचाहे... 
वक्त के पैरों तले।
मुझसे तुम्हारा रिश्ता
कच हरी दूब सा...
रौंद दोगे तो चलेगा 
पर सूखने मत देना 
नफरत की 
चिलचिलाती धूप में,
मन के सूरज को 
कभी इतना मत तपने देना कि 
झुलस जाए 
अनुभूतियों के कच्चे फूल...
कच हरी दूब सा 
रिश्ता हमारा 
क्या रहेगा सदा हरा...


-स्मृति आदित्य

Monday, January 29, 2018

ललछौंही कोंपलें ...स्मृति आदित्य


रख दो 
इन कांपती हथेलियों पर 
कुछ गुलाबी अक्षर 
कुछ भीगी हुई नीली मात्राएं 
बादामी होता जीवन का व्याकरण, 
चाहती हूं कि 
उग ही आए कोई कविता
अंकुरित हो जाए कोई भाव, 
प्रस्फुटित हो जाए कोई विचार 
फूटने लगे ललछौंही कोंपलें ...
मेरी हथेली की ऊर्वरा शक्ति
सिर्फ जानते हो तुम 
और तुम ही दे सकते हो 
कोई रंगीन सी उगती हुई कविता 
इस 'रंगहीन' वक्त में.... 
-स्मृति आदित्य

Sunday, January 28, 2018

बाग जैसे गूँजता है पंछियों से......ममता किरण

बाग जैसे गूँजता है पंछियों से
घर मेरा वैसे चहकता बेटियों से

घर में आया चाँद उसका जानकर वो
छुप के देखे चूड़ियों की कनखियों से

क्या मेरी मंज़िल मुझे ये क्या ख़बर
कह रहा था फूल इक दिन पत्तियों से

दिल का टुकड़ा है डटा सीमाओं पर
सूना घर चहके है उसकी चिट्ठियों से

बंद घर देखा जो उसने खोलकर
एक क़तरा धूप आयी खिड़कियों से

एक शजर ख़ुद्दार टकराने को था
थी चुनौती सामने जब आँधियों से

ख़्वाब में देखा पिता को य़ूँ लगा
हो सदाएँ मंदिरों की घंटियों से

फोन वो खुशबू कहाँ से लाएगा
वो जो आती थी तुम्हारी चिट्ठियों से
-ममता किरण

Saturday, January 27, 2018

एक स्पर्श.....मीना चोपड़ा


यहीं से उठता है
वह नगाड़ा
वह शोर
वह नाद
जो हिला देता है
पत्थरों को
झरनों को
आकश को
वही सब जो मुझमें
धरा है।
सिर्फ़ नहीं है
तो एक स्पर्श
जहाँ से यह सब
उठता है।

-मीना चोपड़ा
नैनीताल

Friday, January 26, 2018

मन कहीं खोना चाहता है............स्मृति आदित्य




खिले थे गुलाबी, नीले,
हरे और जामुनी फूल
हर उस जगह
जहाँ छुआ था तुमने मुझे,



महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,

बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,


और भीगी थी मेरे मन की तमन्ना
जब उठकर चल दिए थे तुम,

मैं यादों के भँवर में उड़ रही हूँ
अकेली, किसी पीपल पत्ते की तरह,
तुम आ रहे हो ना
थामने आज ख्वाबों में,


मेरे दिल का उदास कोना
सोना चाहता है, और
मन कहीं खोना चाहता है
तुम्हारे लिए, तुम्हारे बिना। 


-
स्मृति आदित्य

Thursday, January 25, 2018

प्रेम और स्पर्श..............अमिता प्रजापति


प्रेम और स्पर्श
मेरे दो बच्चे हैं
स्पर्श कुछ अधिक चंचल है
दौड़ता है दूर-दूर तक
पूछ-पूछ कर
परेशान रखता है

दूसरा- प्रेम, जरा
गम्भीर है
बहुत संकट में ही मां
पुकारता 
है
और अधिकतर समय
खुद ही अपनी
मां बना रहता है।

-अमि
ता प्रजापति

...... नायिका से

Wednesday, January 24, 2018

सपने सुहाने नही आते .....मनोज पुरोहित

उठ जाता हूं भोर से पहले सपने सुहाने नही आते ,
अब मुझे स्कूल न जाने वाले बहाने बनाने नही आते ,

कभी पा लेते थे घर से निकलते ही मंजिल को ,
अब मीलों सफर करके भी ठिकाने नही आते ,

मुंह चिढाती है खाली जेब महीने के आखिर में ,
अब बचपन की तरह गुल्लक में पैसे बचाने नही आते ,

यूं तो रखते हैं बहुत से लोग पलको पर मुझे ,
मगर बेमतलब बचपन की तरह गोदी उठाने नही आते ,

माना कि जिम्मेदारियों की बेड़ियों में जकड़ा हूं ,
क्यूं बचपन की तरह छुड़वाने वो दोस्त पुराने नही आते ,

बहला रहा हूं  बस दिल को बच्चों की तरह ,
मैं जानता हूं फिर वापस बीते हुए जमाने नही आते.....!!
-मनोज पुरोहित
ब्रांच मैनेजर 
एस बी आई लाइफ 
नाहन

Tuesday, January 23, 2018

सखि, वसन्त आया....सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’


सखि, वसन्त आया।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी-पिक-स्वर
नभ सरसाया।

लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर,
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छूटे
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।

-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

Monday, January 22, 2018

इक न इक दिन.......निर्मल सिद्धू

इक न इक दिन जनाब बदलेंगे
जब होगा, बेहिसाब बदलेंगे

यादे माज़ी जो मुस्कुरायेगा
दिल के सारे जवाब बदलेंगे

ख़ौफ़ अपनों का डर ज़माने का
झूठे उनके नक़ाब बदलेंगे

दिल में डर काँटों का लगा पलने
हाथों के अब गुलाब बदलेंगे

कौन जीता वक़्त से निर्मल यां
जो बने हैं नवाब बदलेंगे
-निर्मल सिद्धू

Sunday, January 21, 2018

आपसे जब दोस्ती होने लगी.....’गुमनाम’ पिथौरागढ़ी


आपसे जब दोस्ती होने लगी
हाँ ग़मों में अब कमी होने लगी

रोज़ की ये दौड़ रोटी के लिए
भूख के घर खलबली होने लगी

आप मेरे हम सफ़र जब से हुए
ज़िन्दगी मेरी भली होने होने लगी

रख दिए कागज़ में सारे ज़ख्म जब
सूख के वो शायरी होने लगी

शहर भर में ज़िक्र है इस बात का
पीर की चादर बड़ी होने लगी

फूल तितली चिड़िया बेटी के बिना
कैसे ये दुनिया भली होने लगी

सर्द दुपहर उम्र की है साथ में
याद स्वेटर ऊनी सी होने लगी

सीख देता है नई वो इसलिए
हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी

ज़ख्म अब कहने लगे 'गुमनाम' जी
आपसे अब दोस्ती होने लगी
-’गुमनाम’ पिथौरागढ़ी
(नवीन विश्वकर्मा)

Saturday, January 20, 2018

बोसा या पान.....डॉ. मुफज़्ज़ल ज़ुल्फेक़ार

हीरा बना के दिल को उसमें देनी जान है
वरना तो क्या है ज़िन्दगी कोयले की खान है

चाँद सी सूरत को ही आना है उतर कर
तारे सा मैंने दिल पे बनाया निशान है

शीरीं है, बू-ए-गुल है जो छोड़े है लाल रंग
बोसा है या गुलकंद से भरा मीठा पान है

लाता है तबस्सुम अगर चहरे पे चार चाँद
ग्रहण वहीं लग जाता जब चलती ज़बान है

लेने खड़े हैं ना जाने कितने ही खरीदार
दर तेरा हसीना है या दिल की दुकान है

मुश्क़िल बता के इश्क़ को गुमराह कर रखा
जीतेजी है मरना कहो कितना आसान है

माशूक़ की बाहों में निकले दम वो सच्चा इश्क़
सरहद पे वतन की खड़ा कहता जवान है

मौत होती पहले, ज़िन्दगी फिर ‘मुफज़्ज़ल’
ख़ौफ़ में जी-जी के दी कितनों ने जान है !!
-डॉ. मुफज़्ज़ल ज़ुल्फेक़ार

Friday, January 19, 2018

कोशिशें मिट गईं दर्द मिटता नहीं....पावनी दीक्षित "जानिब"


आप की बात दिल पर असर कर गई 
हां लड़खड़ाई जुबां आंख भी भर गई।

कब कहां आपने हमको अपना कहा
कब कहां आपने हांथ थामा मेंरा
एक तरफा मोहब्बत तडपती रही
बस मैं ज़िंदा रही ज़िंदगी मर गई।

आप की बात दिल पर असर कर गई 
हां लड़खड़ाई जुबां आंख भी भर गई।

दिल में कांटे चुभे ज़ख़्म दिखता नही
कोशिशें मिट गईं दर्द मिटता नहीं
अब ये जाना के चाहत बुरी चीज़ है
ज़िंदगी मौत से बेख़बर कर गई।

आप की बात दिल पर असर कर गई 
लड़खड़ाए कदम आंख भी भर गई।

किसी उम्मीद से न मिला तू नज़र 
अब जुदा है हमारा तुम्हारा सफ़र
दर्द चाहत में मिलना तो दस्तूर है
आह दिल की ये जानिब खबर कर गई।

आप की बात दिल पर असर कर गई 
लड़खड़ाए कदम आंख भी भर गई।

पावनी दीक्षित "जानिब" 
सीतापुर

Thursday, January 18, 2018

सवाल बेशुमार लिये बैठें हैं.....कुसुम कोठारी

जो फूलों सी जिंदगी जीते कांटे हजार लिये बैठे हैं
दिल मे फरेब और होटो पे झूठी मुस्कान लिये बैठे हैं। 

खुला आसमां ऊपर,ख्वाबों के महल लिये बैठें हैं
कुछ, टूटते अरमानो का ताजमहल लिये बैठें हैं। 

सफेद दामन वाले भी दिल दागदार लिये बैठे हैं
क्या लें दर्द किसी का कोई अपने हजार लिये बैठें हैं। 

हंसते हुए चहरे वाले दिल लहुलुहान लिये बैठे हैं
एक भी जवाब नही, सवाल बेशुमार लिये बैठें हैं। 

टूटी कश्ती वाले हौसलों की पतवार लिये बैठे हैं
डूबने से डरने वाले साहिल पर नाव लिये बैठे हैं।
-कुसुम कोठारी


Wednesday, January 17, 2018

इन शब्दों ने हमें असहाय किया....निधि सक्सेना


कितना अच्छा होता अगर शब्द न होते
शब्दकोश न होते
उनके निहित अर्थ न होते!!

भावनाओं के पैरहन मात्र हैं शब्द
केवल ध्वनियाँ हैं
शोर हैं
जो दूसरे के ध्यान के आधीन है
उनकी समझ पर आश्रित हैं!!

हम जितना अपने भावों को शब्दों में लपेट पाते हैं
सामने वाला केवल उतना ही समझ पाता है!

इन शब्दों ने हमें असहाय किया
कि हम अबोला पढ़ सकें
मौन सुन सकें
मन के उद्गारों को महसूस कर सकें!

जैसे नेत्रहीन विकसित कर लेता है 
हाथों का स्पर्श और आहटें देखना
और देख पाता है बिना देखे!!
बधिर विकसित कर लेता है 
अधरों के कंपन
और आँखो के उद्बोधन सुनना
और सुन पाता है बग़ैर सुने
वैसे ही बगैर शब्द 
निसंदेह हम भी 
अधिक सक्षम होते!!
विकसित कर ही लेते
मन का पढ़ना
मौन समझना!!

~निधि सक्सेना

Tuesday, January 16, 2018

इस वक्त की ज़ंजीर में हैं......पावनी दीक्षित जानिब

इस वक्त की ज़ंजीर में हैं सब बंधे हुए 
खुदके बिछाए जाल में खुद ही फंसे हुए।

अपनी जुवां से आज हर कोई मुक़र गया
दिल की दिलों में खांईंयां है सब धंसे हुए ।

इश्क़ की गलियों से बेदाग निकल जाना
मुमकिन नहीँ दामन मिलें बिना रंगे हुए।

न होशियार बन इस शहर ए मोहब्बत में
फंसते है दिल की क़ैद शिकारी मंझे हुए।

दिल कह रहा है आज तमाशा बना मेंरा 
मुद्दत हुई है हमको खुलकर कर हंसे हुए।

कुछ कद्र कर हमारी जानिब ख़याल कर
हां हम हैं दुआ के जैसे यूं रब से मंगे हुए।
-पावनी दीक्षित जानिब

Monday, January 15, 2018

दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा​...प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा​
​मैं बैचैन था रात भर लिखता रहा !!​

​छू रहे थे सब बुलंदियाँ आसमान की​
​मैं सितारों के बीच, चाँद की तरह छिपता रहा !!​

​दरख़्त होता तो, कब का टूट गया होता​
​मैं था नाज़ुक डाली, जो सबके आगे झुकता रहा !!​

​बदले यहाँ लोगों ने, रंग अपने-अपने ढंग से​
​रंग मेरा भी निखरा पर, मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा !!​

​जिनको जल्दी थी, वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,​
​मैं समन्दर से राज गहराई के सीखता रहा !​
प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

Sunday, January 14, 2018

शब्दों तुम बरसो....डॉ. प्रभा मुजुमदार

चुपचुप धीमे-से रुकते, 
झिझकते मत बुदबुदाओ।
डर और सन्नाटे में
संगीत बन मत गुनगुनाओ।
शब्दो! तुम बन जाओ
हथौड़ों की गूंज।
ठक-ठक कर हिलाते रहो;
जंग लगे बन्द दरवाज़ों की चूल।

बजो तो तुम नगाड़ों की तरह,
कि न कर पाये कोई बहरेपन का स्वांग।   
शब्दों तुम बरसो, 
बारिश की फुहार बन कर;
अरसे से बंजर पड़ी 
धरती पर, अरमान बन लहलहाओ।
ठस और ठोस
संकीर्ण और सतही,
मन की जड़ता को
तुम पंख दो शब्दो।

आकाश की तरलता में उड़ते रहें स्वप्न।
विस्तारती रहे सोच।
धूमकेतुओं की तरह
पड़ताल करती रहें नक्षत्रों की।

शब्दो! तुम काग़ज़ पर उकेरी गई
बेमतलब रेखाएं नहीं।
गढ़ो नई परिभाषाओं को।
-डॉ. प्रभा मुजुमदार

Saturday, January 13, 2018

पुरानी हुई कहानी...डॉ. इन्दिरा गुप्ता

ज़िंदगी का फलसफा 
कुछ इस तरह समझा रही 
उम्र की क्या बिसात जो रोके 
जब हिम्मते जवानी छा गई !  

पोपली मुस्कान देखो 
हँस के यू फरमा रही 
जोश कब रोके रुका है 
हमको भी इबारत आ गई !  

जर्जर  बँधन खोल रही है 
अब ये वृद्ध जवानी 
घर से हमको बेघर करदे 
ये ....पुरानी हुई कहानी ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता

Friday, January 12, 2018

त्रिवेणी.....विभा रानी श्रीवास्तव

बड़ी दीदी की लिखी त्रिपदियाँ
चातक-चकोर को मदमस्त होते भी सुना है !
ज्वार-भाटे को उसे देख उफनते भी देखा है !

यूँ ही नहीं होता माशूकों को चाँद होने का गुमाँ !!
......
रब एक पलड़े पर ढेर सारे गम रख देता है !
दूसरे पलड़े पर छोटी सी ख़ुशी रख देता है !

महिमा तुलसी के पत्ते के समान हुई !!
......
टोकने वाले बहुत मिले राहों के गलियारों में !
जिन्हें गुमान था कि वही सयाने हैं टोली में !

कामयाबी पर होड़ में खड़े दे रहे बधाई मुझे !!
......
नफ़रत सुलगाती हैं ख़ौफ़ ए मंज़र
उल्फ़त मोड देती है नोक ए खंजर

क्यूँ बुनता है ताने बाने साज़िशों के हरदम

- विभारानी श्रीवास्तव

Thursday, January 11, 2018

अलाव....प्रतिमा भारती


हर तरह कर ली कोशिश
कि गुज़र जाए रात......
फिर भी ज़रूरत पड़ ही गयी
बुझती यादों के सायों की।
इन्हीं को जला के अलाव
की कोशिश
कुछ गरमाहट दें एहसासों को
कि नई किरण के साथ 
जग जाएँ रिश्ते ....
नई सुबह के लिए।।

-प्रतिमा भारती

Wednesday, January 10, 2018

जीवन और तुषार बूंद!! ....कुसुम कोठारी


निलंबन हुवा नीलाम्बर से 
भान हुवा अच्युताका कुछ क्षण
गिरी वृक्ष चोटी, इतराई 
फूलों पत्तों दूब पर देख 
अपनी शोभा मुस्काई, 
गर्व से अपना रूप मनोहर 
आत्म प्रशंसा भर लाया 
सूर्य की किरण पडी सुनहरी 
अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
भाव अभिमान के थे अब उर्धमुखी 
हाँ, भूल गई "मैं "
अब निश्चय है अंतःपास मे 
मै तुषार बूंद नश्वर, भूली अपना रूप 
कभी आलंबन अंबर का 
कभी तृण सहारे सा अस्तित्व 
पर आश्रित नाशवान शरीर 
"मैं"आत्मा अविनाशी 
भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप। 
-कुसुम कोठारी


Tuesday, January 9, 2018

कुछ क्षणिकाएँ.....प्रतिमा भारती

सोंधी खुशबू
......................
शब्द गुमसुम हों तो क्या...।
हँसी की धूप दिखाओ ...
जितनी भी ...।
दर्द बरसेगा जब भी
मन के आँगन में...
हवा में होगी
उसकी सोंधी खुशबू...।।

नियति
.........................
जानती हूँ 
पहचानती भी हूँ
’नियति’
फिर भी ...

शब्दों का लबादा ओढ़े
वह...।
जल्लाद सी नज़र आती है ।।

दिल की बातें
..............................
आओ बैठें
कुछ अधलेटे कुछ उन्नीदे से
दिल की हरी नर्म ज़मीन पर....
सहलाएँ...नोचें...बिखराएँ ...फैलाएँ और उड़ाएँ
भावनाओं और संवेदनाओं की दूब...
बातें करें कुछ बिखरी बिखरी फैली बेतरतीब सी...
वैसी ही जैसी होती हैं बातें....
दिल से दिल के करीब की.....

बहाना
................................
मत कुरेदो ...
बहुत कुछ होगा अनावृत ...
बहुत कुछ ऐसा 
जो है
अनपेक्षित... , असहनीय..., अशोभनीय ...,
है मेरे भी भीतर
क्योंकि 
मेरे पास भी 
है बहाना 
इंसान होने का ।।
-प्रतिमा भारती


Monday, January 8, 2018

छह हाइकु.....विभा रानी श्रीवास्तव

1
ठूँठ का मैत्री
वल्लरी का सहारा
मर के जीया।
2
शीत में सरि
स्नेह छलकाती स्त्री
फिरोजा लगे।
3
गरीब खुशियाँ
बारम्बार जलाओ
बुझे दीप को।
4
क्षुधा साधन
ढूंढें गौ संग श्वान
मिलते शिशु।
5
आस बुनती
संस्कार सहेजती
सर्वानन्दी स्त्री।
सर्वानन्दी = जिसको सभी विषयों में आनंद हो 
6
स्त्री की त्रासदी
स्नेह की आलिंजर
प्रीत की प्यासी।
-विभा रानी श्रीवास्तव

Sunday, January 7, 2018

कठपुतली.....ज्योति साह


बना के कठपुतली नचाते रहो
रखो दोनों शिराओं को तलवे के नीचे
हमारा क्या है.....

तुम कहो तो हम उठें
तुम कहो तो बैठे

चाहो तो सांस लेने के भी
समय तय कर दो
और जब भी तुम बोलो
हम बजा दें ताली,

हाँ एक रस्सी भी 
बाँध दो टाँगों में
ताकि कहीं और का रूख 
ना कर सकें

बिठा दो पहरे आँखों पर
तुम्हारे दिखाये के सिवा 
कुछ देख ना सके,

सिल दो होंठ
कि तुम्हारे चाहे बिना
उसे हिला भी ना सकूं,

जकड़ दो पंखों को
कि लाख कोशिशों के बाद भी
स्वच्छन्द उड़ान भर ना सकूँ,

सुनो...
भले डाल दो काल-कोठारी में
बस एक झरोख़ा खुला रखना
ताकि जब निकले तुम्हारी झाँकी
झंडा फहराने को
तो जी भर उसे निहार सकूँ,

तुम्हारी जीत
और अपनी हार पे
सिर्फ़ और सिर्फ़ कुछ आँसू बहा सकूँ।


-ज्योति साह