Tuesday, December 30, 2014

नया साल......आफताब बेगम














साल 2015 की
पहली सुबह की
पहली किरण
हमारे दरवाजे पर
दस्तक देने को
बेकरार है
और....हम भी
इसके स्वागत में
पूरे जोश के साथ
तैय्यार हैं
पर क्या सिर्फ
ज़श्न मना लेना और
मस्ती में झूम लेना ही
इन नए पलों का स्वागत है ?
शायद नहीं.
साल दर साल
हम यही तो करते आ रहे हैं,
इस बार कुछ ऐसा करते हैं
कि इस साल का हर पल
ज़िन्दामिसाल बन जाए.
अमन की राह पर चलें.
कुछ इस तरह जियें
और जीने दें कि
आने वाला साल
खुद प्यार की सौगात बन जाए.


-आफ़ताब बेगम
कलमकार....नवभारत

Monday, December 22, 2014

‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ ......................अटल बिहारी वाजपेयी













कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।

किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।

आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;

हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।

आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ 


-अटल बिहारी वाजपेयी


 प्राप्ति स्रोतः रसरंग

माननीय अटल बिहारी वाजपेयी
(पूर्व प्रधान मंत्री, कवि) 

जन्मः 25 दिसम्बर 1926
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
प्रमुख कृतियाँ
मेरी इंक्यावन कविताएँ, न दैन्यं न पलायनम्, 
मृत्यु और हत्या, अमर बलिदान.
भाषाः हिन्दी 


Saturday, December 13, 2014

आख़िर जो भी होना होगा..............'मीराजी'



हंसो तो साथ हंसेगी दुनिया बैठे अकेले रोना होगा
चुपके-चुपके बहा कर आंसू दिल के दुख को धोना होगा ।

बैरन रात बड़ी दुनिया की आंख से जो भी टपका मोती
पलकों से ही उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा ।

खोने और पाने का जीवन नाम रखा है हर कोई जाने
उस का भेद कोई न देखा क्या पाना, क्या खोना होगा ।

बिन चाहे, बिन बोले पल में टूट-फूट कर फिर बन जाए
बालक सोच रहा है अब भी ऐसा कोई खिलौना होगा ।

प्यारों से मिल जाए प्यारे अनहोनी कब होगी
कांटे फूल बनेंगे कैसे,कब सुख सेज बिछौना होगा ।

बहते-बहते काम न आए लाख भंवर तूफानी-सागर
अब मंझधार में अपने हाथों जीवन नाव डुबोना होगा ।

जो भी दिल ने भूल से चाहा भूल में जाना हो के रहेगा
सोच-सोच कर हुआ न कुछ भी आओ अब तो खोना होगा ।

क्यूं जीते-जी हिम्मत हारें क्यूं फ़रियादें क्यूं ये पुकारे
होते-होते हो जाएगा आख़िर जो भी होना होगा

'मीरा' जी क्यूं सोच सताए पलक-पलक डोरी लहराए
किस्मत जो भी रंग दिखाए अपने दिल में समाना होगा

-मोहम्मद सनाउल्लाह सानी 'मीराजी' 

चित्र प्राप्तः गूगल इमेज


मीराजी (२५ मई १९१२ - ४ नवम्बर १९४९ ) का असली नाम मोहम्मद सनाउल्लाह सानी था। फितरत से आवारा और हद दर्जे के बोहेमियन मीराजी ने यह उपनाम अपने एक असफल प्रेम की नायिका मीरा सेन के गम से प्रेरित हो कर रखा
 

Sunday, December 7, 2014

मुसीबत में......... पंकज चतुर्वेदी



 








अचानक आई बीमारी
दुर्घटना
या ऐसे ही किसी हादसे में
हताहत हुए लोगों को देखने
उनसे मिलने
उनके घर जाओ
या अस्पताल

उन्हें खून दो
और पैसा, यदि दे सको
नही तो जरूरत पड़ने पर कर्ज ही
उनके इलाज में मदद करो
जितनी और जैसी भी
मुमकिन हो या मांगी जाए

तुम भी जब कभी
हालात से मजबूर होकर
दुखों से गुजरोगे
तब तुम्हारा साथ देने
जो आगे आएंगे
वे वही नहीं होंगे
जिनकी तीमारदारी में
तुम हाजिर रहे थे

वे दूसरे ही लोग होंगे
मगर वे भी शायद
इसीलिए आगे आएंगे
कि उनके जैसे लोगों की
मुसीबत में मदद करने
तुम गए थे..

-पंकज चतुर्वेदी
...... तरंग, नई दुनिया

Saturday, December 6, 2014

मील का पत्थर........ दिनेश विजयवर्गीय










कदमों की प्रगति की पहचान है
मील का पत्थर
वह अलसाए कदमों में
जान डालकर
उन्हें कर देता है गतिमय
जल्द मंजिल की ओर
बढ़ने के लिये।

वह केवल पत्थर नहीं
हमारी यात्रा का प्रगति सूचक है
आगे बढ़ते रहने के लिए
प्रोत्साहन भी देता है वह।

जेठ की तपती धूप हो या
पौष की कड़कती ठण्ड या हो
सावन-भादो की वर्षा
वह हर मौसम झेलकर भी
सड़क के किनारे खड़ा रहकर
हमें जोड़े रखता है।
अपनी यात्रा की प्रगति से।

वह करता नहीं कभी
कोई शिकायत
अपने बदरंग करते
वाहनों की
छोड़ी गई कालिख का
उड़ाई गई धूल और
चिंघाड़ती आवाजों का
वह तो सदा एक ही मुद्रा में
चुप-चुप सहता है
अपने भाग्य में आई
प्रतिकूलताओं को।

अपने गुणों के खातिर ही
उसे देश-दुनिया में मिली है
सम्मान से भरी पहचान
मील का पत्थर साबित होने की
वाह...! मील के पत्थर,
तुम्हें जन-जन का सलाम।

-दिनेश विजयवर्गीय
.....पत्रिका से

Friday, December 5, 2014

हवाओं के मुक़ाबिल हूँ......पूजा भाटिया



हवाओं के मुक़ाबिल हूँ
चराग़ों की वो महफ़िल हूँ

ख़ुदा जाने कहाँ हूँ मैं
न बाहर हूँ न शामिल हूँ

मिरे कांधे पे वो बिखरे
हैं मौज इक वो मैं साहिल हूँ

ये चादर, सलवटें, तकिया
बताते हैं, मैं ग़ाफ़िल हूँ

मैं जो चाहे वो पा लूं, पर
अभी ख़ुद ही से ग़ाफ़िल हूँ

यहां सच बेसहारा है
सहारा दूँ? मैं बातिल हूँ

उमीदें तुम से रखती हूँ
कहो तो कितनी जाहिल हूँ

जुआ है ज़िन्दगी जैसे
जो जीते उसको हासिल हूँ

रहे ज़द में जुनूँ जिसके
उसी को फिर मैं हासिल हूँ

पूजा भाटिया 08425848550


http://wp.me/p2hxFs-1Sh

Wednesday, December 3, 2014

क़दम इंसान का राह-ए-दहर...........जोश मलीहाबादी

क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है

नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है

ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है

हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है

समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है

-जोश मलीहाबादी


   
राह-ए-दहर - जीवन की राह
   
हक़ाइक़-आश्ना - सच्चाई को चाहने वाला
   
हुजूम-ए-कशमकश - मु्श्किलों की भीड़
  
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत - समझदारी के उलट
   
तहय्युर - बदलाव
   
ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता - खुशनुमा गुज़रे वक्त का ख्याल
   
म'अल-ए-गुल - नतीज़ा
......मधुरिमा से