Tuesday, December 31, 2013

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है...............प्रखर मालवीय 'कान्हा'


कहीं जीने से मैं डरने लगा तो….?
अज़ल के वक़्त ही घबरा गया तो ?

ये दुनिया अश्क से ग़म नापती है
अगर मैं ज़ब्त करके रह गया तो….?

ख़ुशी से नींद में ही चल बसूंगा
वो गर ख़्वाबों में ही मेरा हुआ तो…

ये ऊंची बिल्डिंगें हैं जिसके दम से
वो ख़ुद फुटपाथ पर सोया मिला तो….?

मैं बरसों से जो अब तक कह न पाया
लबों तक फिर वही आकर रूका तो….?

क़रीने से सजा कमरा है जिसका
वो ख़ुद अंदर से गर बिखरा मिला तो ?

लकीरों से हैं मेरे हाथ ख़ाली
मगर फिर भी जो वो मुझको मिला तो ?

यहां हर शख़्स रो देगा यक़ीनन
ग़ज़ल गर मैं यूं ही कहता रहा तो…..

सफ़र जारी है जिसके दम पे `कान्हा
अगर नाराज़ वो जूगनू हुआ तो?

-प्रखर मालवीय कान्हा
- 08057575552

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Monday, December 30, 2013

हवा यूं तो हर दम भटकती है.............मुहम्मद अलवी साहब


हवा यूं तो हर दम भटकती है, लेकिन
हवा के भी घर हैं
भटकती हवा
जाने कितनी दफ:

 
शह्द की मक्खियों की तरह
घर में जाती है अपने !
अगर ये हवा
घर न जाए तो समझो
के उसके लिए घर का दरवाज़ा वा
फिर न होगा कभी
और उसे और ही घर बनाना पड़ेगा
ये हम और तुम
और कुछ भी नहीं
हवाओं के घर हैं !


-मुहम्मद अलवी साहब


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कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए..............नवीन सी. चतुर्वेदी



कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचात भए
महक रयौ ऊँ महकते नगर बचात भए

सरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधर, अधर पे धरैगी अधर बचात भए

सरल समझियो न बा कूँ घनी चपल ऐ बौ
नजर में सब कूँ रखतु ऐ नजर बचात भए

तू अपने आप कूँ इतनौ समझ न खबसूरत
बौ मेरे संग हू नाची, मगर बचात भए

जे खण्डहर नहीं जे तौ धनी एँ महलन के
बिखर रए एँ जो बच्चन के घर बचात भए

जो छंद-बंध सूँ डरत्वें बे देख लेंइ खुदइ
मैं कह रहयौ हूँ गजल कूँ बहर बचात भए

चमन कूँ देख कें मालिन के म्हों सूँ यों निकस्यौ
कटैगी सगरी उमरिया सजर बचात भए

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कमल, गुलाब, जुही, गुलमुहर बचाते हुये
महक रहा हूँ महकते नगर बचाते हुये

शरद की रात में चन्दा के घर चली पूनम
अधर, अधर पे धरेगी अधर बचाते हुये

सरल समझना न उस को बहुत चपल है वो
नज़र में रखती है सब को नज़र बचाते हुये

तुम अपने आप को इतना हसीन मत समझो
वो मेरे साथ भी नाची मगर बचाते हुये

ये खण्डहर नहीं ये तो धनी हैं महलों के
बिखर रहे हैं जो बच्चों के घर बचाते हुये

जो छन्द-बन्ध से डरते हैं आ के देख लें ख़ुद
मैं कह रहा हूँ ग़ज़ल को बहर बचाते हुये

चमन को देख के बरबस ही मालियों ने कहा
तमाम उम्र कटेगी शजर बचाते हुये



नवीन सी. चतुर्वेदी +91 9967024593

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Sunday, December 29, 2013

तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते................मेराज फ़ैज़ाबादी



हम ग़ज़ल में तेरा चर्चा नहीं होने देते
तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते

कुछ तो हम खुद भी नहीं चाहते शोहरत अपनी
और कुछ लोग भी ऐसा नहीं होने देते

आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले
घर में हमसाये के फ़ाक़ा नहीं होने देते

ज़िक्र करते हैं तेरा नाम नहीं लेते हैं
हम समंदर को जज़ीरा नहीं होने देते

मुझको थकने नहीं देता ये ज़रुरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते

मेराज फ़ैज़ाबादी

Saturday, December 28, 2013

आप की हूक दिल में जो उठबे लगी..............नवीन सी. चतुर्वेदी


आप की हूक दिल में जो उठबे लगी
जिन्दगी सगरे पन्ना उलटिबे लगी

बस निहारौ हतो आप कौ चन्द्र-मुख
जा ह्रिदे की नदी घाट चढ़िबे लगी

पीउ तनिबे लग्यौ, बन गई बौ लता
छिन में चढ़िबे लगी छिन उतरिबे लगी

प्रेम कौ रंग जीबन में रस भर गयौ
रेत पानी सौ ब्यौहार करिबे लगी

मन की आबाज सुन कें भयौ जै गजब
ओस की बूँद सूँ प्यास बुझबे लगी
नवीन सी. चतुर्वेदी +91 9967024593

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जैसे ही आप की हूक दिल में उठने लगी, 
ज़िन्दगी सारे पन्नों को उलटने लगी

बस आप के चन्द्र-मुख को देखा ही था 
कि इस हृदय की नदी घाट चढ़ने लगी

प्रिय तनने लगे तो वह लता बन कर 
क्षण-क्षण में चढ़ने और उतरने लगी

प्रेम के रंग ने जीवन में रस भर दिया है, 
मानो रेत पानी के जैसा व्यवहार करने लगी है

मन की आवाज़ सुन कर यह चमत्कार हुआ 
कि ओस की एक बूँद से ही प्यास बुझने लगी है


इन आंधियों के साथ यही दोस्ती सही................प्रखर मालवीय ‘कान्हा’


सीना जो खंजरों को नहीं पीठ ही सही
तुम दोस्त हो हमारे बताओ सही सही

इतना ही कह के बुझ सा गया आख़री चराग़,
इन आंधियों के साथ यही दोस्ती सही

आते ही रौशनी के नज़र आये बहते अश्क
इससे तो मेरे साथ वही तीरग़ी सही

सोचा था हमने आज सवारेंगे वक्त को
अब हाथ में है ज़ुल्फ़ तो फिर ज़ुल्फ़ ही सही

बातें करोगे अम्न की बलवाइयों के साथ?
तुम पर भी ऐसे में ये निपोरेंगे खीस ही

हमने किया सलाम तो होगा कोई तो काम
‘अच्छा ये आप समझे हैं अच्छा यही सही’

सोते हैं दर्द में ही हम इतने सकून से,
रातों में जाग जाग के हमने ख़ुशी सही

-प्रखर मालवीय ‘कान्हा’

Friday, December 27, 2013

अब एक रोज़ हमेशा के वास्‍ते आ जा..................प्रेम कुमार शर्मा ‘प्रेम’


जहां न कोई हो अपना वहां पै जाना क्‍या
जहां पै कोई हो अपना वहां से आना क्‍या

इसी में उलझा रहेगा भला ज़माना क्‍या
न दूट पायेगा इसका ये खोना पाना क्‍या

तुम्हें है ‍फ़ि‍क्र नशेमन की मुझको गुलशन की
न हो चमन ही सलामत तो आशियाना क्‍या

अब एक रोज़ हमेशा के वास्‍ते आ जा
ये रोज़ रोज़ का इस तरह आना जाना क्‍या

है शुक्र इनका उड़ा लायीं आँधियाँ तिनके
वगरना ‘प्रेम’ बना पाता आशियाना क्‍या

प्रेम कुमार शर्मा ‘प्रेम’ पहाड़पुरी 09352589810

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Thursday, December 26, 2013

मैं दर-ब-दर हूँ बहुत मुझको ढूंढ पाना क्या.................अभय कुमार ‘अभय’




मैं दर-ब-दर हूँ बहुत मुझको ढूंढ पाना क्या
बताऊँ क्या तुन्हें यारो मिरा ठिकाना क्या

किनारे लाख कहें तुम यक़ीन मत करना
‘वो नर्मरौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

हरेक दिल में धड़कता है फ़िक्र में तू है
बना सकेगा कोई तुझसे फिर बहाना क्या

जो दिल चुराओ तो जानें कि चोर हो तुम भी
नज़र चुरायी है तुमने नज़र चुराना क्या

जहाने-शौक़ में हर सम्त जब तुम्हीं तुम हो
मिरी हक़ीक़तें क्या हैं मिरा फ़साना क्या

जो जी रहा है उसे मौत भी तो आयेगी
किसी के रोके रुका है ये आना-जाना क्या

नज़र-नज़र में हैं परछाइयाँ फ़रेबों की
तो ऐसी बज़्म में रुख़ से नक़ाब उठाना क्या

जिसे भी देखिये है अपनी ख़ाहिशों का असीर
अगर ये सच है तो दुनिया को आज़माना क्या

न जाने कब से ‘अभय’ हम निढाल हैं ग़म से
ख़ुशी मिले भी तो फिर उसपे मुस्कुराना क्या

अभय कुमार ‘अभय’ 09897201820
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Wednesday, December 25, 2013

मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे..................सतीश शुक्ला "रकीब"





अंजान हैं, इक दूजे से पहचान करेंगे
मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

खाई है क़सम साथ निभाने की हमेशा 
हम आज सरेआम ये ऐलान करेंगे 

इज़्ज़त हो बुज़ुर्गों की तो बच्चों को मिले नेह
इक दूजे के माँ-बाप का सम्मान करेंगे

हम त्याग, सदाचार, भरोसे की मदद से 
हर हाल में परिवार का उत्थान करेंगे 

आपस ही में रक्खेंगे फ़क़त, ख़ास वो रिश्ते 
हरगिज़ न किसी और का हम ध्यान करेंगे

हर धर्म निभाएंगे हम इक साथ है वादा
तन्हा न कोई आज से अभियान करेंगे

सुख-दुख हो, बुरा वक़्त हो, या कोई मुसीबत 
मिल बैठ के हम सबका समाधान करेंगे 

जीना है हक़ीक़त के धरातल पे ये जीवन 
सपनोँ से नहीं ख़ुद को परेशान करेंगे 

जन्नत को उतारेंगे यही मंत्र ज़मीं पर 
सब मिल के 'रक़ीब' इनका जो गुणगान करेंगे
 
-सतीश शुक्ला "रकीब"
 
सौजन्यः श्री नीरज गोस्वामी के ब्लाग से

Sunday, December 15, 2013

न रंग लायेगा मेरा जिगर जलाना क्या..............‘खुरशीद’ खैराड़ी



फ़क़ीर हम हैं बसायेंगे आशियाना क्या
लुटा के मस्ती को पाइंदगी कमाना क्या

तिरे सवाल का साक़ी जवाब दूं क्या मैं
दरे-हरम से भटक कर शराबख़ाना क्या

ये ज़र्ब भी मैं सहूंगा कि बेवफ़ा है वो
हक़ीक़तों से अज़ीज़ो नज़र चुराना क्या

हर इक नज़र है हिरासाँ हर इक ज़बाँ साकित
ख़ुलूसे-अहले-सियासत को आज़माना क्या

कोई क़ायम यहाँ मुस्तक़िल नहीं प्यारे
सराय ठहरी ये दुनिया तो हक़ जताना क्या

मुझे हरीफ़ों से शिकवा नहीं बस इक ग़म है
न लाज़िमी था हबीबों का साथ आना क्या

जुमूद सोच का तुझ तक रमीदगी तुझ से
इसी हिसार का मरकज़ है ये ज़माना क्या

तिरे लिये तो सजाये हैं थाल भक्तों ने
नहीं सवाब मिरी भूख को मिटाना क्या

सिमट रही है ये दुनिया सभी दिशाओं से
किसी दिशा में भटकते कदम बढ़ाना क्या

न बादबान उतारो ये देखकर माँझी
‘वो नर्मरौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

जदीद फ़िक्र है ‘ख़ुरशीद’ की यही यारो
न रंग लायेगा मेरा जिगर जलाना क्या

‘खुरशीद’ खैराड़ी जोधपुर 09413408422

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Saturday, December 14, 2013

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं............सौरभ शेखर



मिला न खेत से उसको भी आबो-दाना क्या
किसान शह्र को फिर इक हुआ रवाना क्या

कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या

उमस फ़ज़ा से किसी तौर अब नहीं जाती
कि तल्ख़ धूप क्या, मौसम कोई सुहाना क्या

तमाम तर्ह के समझौते करने पड़ते हैं
मियां मज़ाक़ गृहस्थी को है चलाना क्या

गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या

हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाये ज़रा में वो दोस्ताना क्या

ख़बरनवीस नहीं हूँ मैं एक शायर हूँ
तमाम मिसरे मिरे हैं, नया-पुराना क्या

न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’

करो तो मुंह पे मलामत करो मिरी ‘सौरभ’
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या.

-सौरभ शेखर 09873866653

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Friday, December 13, 2013

अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं................किश्वर नाहिद



उम्र में उससे बड़ी थी लेकिन पहले टूट के बिखरी मैं
साहिल-साहिल ज़ज़्बे थे और दरिया-दरिया पहुंची मैं

उसकी हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उसके हाथ में जागी मैं और उसके हाथ से उजली मैं

एक मुट्ठी तारीक़ी में था, एक मुट्ठी से बढ़कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बांधे ज़ीना-ज़ीना उतरी मैं

उसके आँगन मैं खुलता था शहरे-मुराद का दरवाज़ा
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में लोकर पलटी मैं

मैंनें जो सोचा यूं, तो उसने भी वही सोचा था
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौज़ूद नहीं थी मैं

लम्हा-लम्हा जां पिघलेगी, क़तरा-क़तरा शब होगी
अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं

-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)

Thursday, December 12, 2013

मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं...............किश्वर नाहिद


मैं नज़र आऊं हर इक सिम्त जिधर चाहूं
ये गवाही मैं हर एक आईना गर से चाहूं

मैं तिरा रंग हर इक मत्ला-ए-दर से मांगूं
मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूं

सोहबतें खूब हैं व़क्ती-ए-गम की ख़ातिर
कोई ऐसा हो जिसे ज़ानों-जिगर से चाहूं

मैं बदल डालूं वफ़ाओं की जुनूं सामानी
मैं उसे चाहूं तो ख़ुद अपनी ख़बर से चाहूं

आंख जब तक है नज़ारे की तलब है बाकी
तेरी ख़ुश्बू को मैं किस ज़ौंके-नज़र से चाहूं

घर के धंधे कि निमटते ही नहीं है ‘नाहिद’
मैं निकलना भी अगर शाम को घर से चाहूं

-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)

Monday, December 2, 2013

कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है.............जमील मलिक


कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है
पहले दुनिया थी घर में अब दुनिया में रूपोशी है

पल भर जागे, गहरी नींद का झोंका आया, डूब गए
कोई ग़फ़लत सी ग़फ़लत, मदहोशी सी मदहोशी है

जितना प्यार बढ़ाया हमसे,उतना दर्द दिया दिल को
जितने दूर हुए हो हमसे, उतनी हम-आगोशी है

सहको फूल और कलियां बांटो हमको दो सूखे पत्ते
ये कैसै तुहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है

रंगे-हक़ीक़त क्या उभरेगा ख़्वाब ही देखते रहने से
जिसको तुम कोशिश़ कहते हो वो तो लज़्ज़त-कोशी है

होश में सब कुछ देख के भी चुप रहने की मज़बूरी थी
कितनी मानी-ख़ेज़ जमील हमारी ये बेहोशी है

-जमील मलिक

रूपोशी: मुंह छिपाना, हम-आगोशी: आलिंगन, बर्ग-फ़रोशी: पत्ते बेचना,
लज़्ज़त-कोशी: यथार्थता का रंग, मानी-ख़ेज़: अर्थ पूर्ण.

Sunday, December 1, 2013

खुद अपनी आग में जलता रहा........जमील मलिक




जो ख़याल आया, तुम्हारी याद में ढलता रहा
दिल चराग़े-शाम बनकर सुबह तक जलता रहा

हम कहां रुकते सदियों का सफर दरपेश था
घंटियां बजती रही और कारवां चलता रहा

कितने लम्हों के पतंगे आए, आकर जल बुझे
मैं चराग़े-जिन्दगी था, ता-अबद जलता रहा

हुस्न की तबानियां मेरा मुकद्दर बन गई
चांद में चमका,कभी ख़ुरशीद में ढलता रहा

जाने क्या गुजरी कि फरजाने भी दीवने हुए
मैं तो श़ायर था,खुद अपनी आग में जलता रहा

जमील मलिक
जन्मः 12 अगस्त.1928, रावलपिण्डी, पाकिस्तान


दरपेशः समस्या सामने होना, ता-अबदः अनंत काल तक,
तबानियां: ज्योति, ख़ुरशीदः सूरज, फ़रजानेः बुद्धिमान

Thursday, November 14, 2013

रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ? कीजिये हाय हाय क्यूँ?............मिर्ज़ा ग़ालिब



दिल ही तो है, न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यूँ?
रोएँगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यूँ?

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यूँ?

क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यूँ?

जब वोह जमाल-ए-दिल-फरोज़, सूरत-ए-मेहर-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, परदे में मुंह छुपाये क्यूँ?

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख सही, सामने तेरे आये क्यूँ?

ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ? कीजिये हाय हाय क्यूँ?

मिर्ज़ा ग़ालिब
दैरः मंदिर

बसते हैं किस देश में वो लोग, जो यहाँ आए थे............नूर बिजनौरी



शाख- शाख पर मौसमे-गुल ने ग़जरे से लटकाए थे
मैंनें जिस दम हाथ बढ़ाया, सारे फूल पराए थे

कितने दर्द चमक उठते हैं फ़ुरकत के सन्नाटे में
रात-रात भर जाग के हमने ख़ुद ये ज़ख़्म लगाए थे

तेरे गमों का ज़िक्र ही क्या,अब जाने दे,ये बात न छेड़
हम दीवाने मुल्के-ज़ुनूं में बख़्ते-सिकंदर लाए थे

दिल की वीरां बस्ती मुझसे अक्सर पूछा करती है
बसते हैं किस देश में वो लोग, जो यहाँ आए थे

पिछली रात को तारे अब भी झिलमिल-झिलमिल करते हैं
किसको खबर है, इक शब हमने कितने अश्क बहाए थे

आज जहां की तारीकी से दुनिया बच कर चलती है
हमने इस वीरान महल में लाखों दीप जलाए थे

मुझको उनसे प्यार नहीं है, मुझको उनके नाम से क्या
आँखें यूं ही भर आई थी, होठ यूं ही थर्राए थे

-नूर बिजनौरी

प्रसिद्ध पाकिस्तानी श़ायर
पूरा नामः नूर-उल-हक़ सिद्दीकी
जन्मः 24 जनवरी, 1924.
बिजनौर, उ.प्र.


फ़ुरकत: ज़ुदाई, मुल्के-ज़ुनूं: पागलों का देश, बख़्ते-सिकंदर: सिकंदर का भाग्य, तारीकी: अंधकार

Wednesday, November 13, 2013

घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही................नवीन सी. चतुर्वेदी



अपनी खुसी सूँ थोरें ई सब नें करी सही
भौरे नें दाब-दूब कें करबा लई सही

जै सोच कें ई सबनें उमर भर दई सही
समझे कि अब की बार की है आखरी सही

पहली सही नें लूट लयो सगरौ चैन-चान
अब और का हरैगी मरी दूसरी सही

मन कह रह्यौ है भौरे की बहियन कूँ फार दऊँ
फिर देखूँ काँ सों लाउतै पुरखान की सही

धौंताए सूँ नहर पे खड़ो है मुनीम साब
रुक्का पे लेयगौ मेरी सायद नई सही

म्हाँ- म्हाँ जमीन आग उगल रइ ए आज तक
घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही

तो कूँ भी जो ‘नवीन’ पसंद आबै मेरी बात
तौ कर गजल पे अपने सगे-गाम की सही

सही = दस्तख़त, सगरौ – सारा, कुल, हरैगी – हर लेगी, छीनेगी, मरी = ब्रजभाषा की एक प्यार भरी गाली, बहियन = बही का बहुवचन, लाउतै = लाता है, धौंताए सूँ = अलस्सुबह से, बीजरी = बिजली,

[ब्रजभाषा – ग्रामीण]

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+91 99 670 24 593


Tuesday, November 12, 2013

पीछे मुड़कर देख लिया तो पत्थर के हो जाओगे.....नूर बिजनौरी



आस के रंगीं पत्थर कब तक गारों में लुढ़काओगे
शाम ढले कोहसारों में अपना खोज न पाओगे

जाने - पहचाने- से चेहरे अपनी सम्त बुलाएँगे
क़द्-क़दम पर लेकिन अपने साए से टकराओगे

हर टीले की ओट से लाखों वहशा आँखें चमकेंगी
माज़ी की हर पगडण्डी पर नेज़ों से घिर जाओगे

फ़नकारों का ज़हर तुम्हारे गीतों पर जम जाएगा
कब तक अपने होंठ, मेरी जां,सांपों से डसवाओगे

चीखेंगी बदमस्त हवाएँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में
रूठ के जानेवाले पत्तों! कब तक वापस आओगे

जादू की नगरी है ये प्यारे, आवाजों पर ध्यान न दो
पीछे मुड़कर देख लिया तो पत्थर के हो जाओगे

-नूर बिजनौरी 
कोहसारों: पर्वतों, नेज़ों: बरछियां, बदमस्त: तूफानी

प्रसिद्ध पाकिस्तानी श़ायर
पूरा नामः नूर-उल-हक़ सिद्दीकी
जन्मः 24 जनवरी, 1924.
बिजनौर, उ.प्र.

Monday, November 11, 2013

बस तो जाते हैं घर सारे बेटों के..............अनिल जलालपुरी



जी भर रोकर जी हल्का हो जाता है
वरना तन-मन जलथल सा हो जाता है

हर ज़र्रे को रोशन करके आख़िर में
शाम ढले सूरज बूढ़ा हो जाता है

बस तो जाते हैं घर सारे बेटों के
बस आँगन टुकड़ा टुकड़ा हो जाता है

जाहिल जब बैठेंगे आलिम के दर पे
हश्र यक़ीनन ही बरपा हो जाता है

उल्फ़त का सागर हूँ, नफ़रत का दरिया
मिलकर मुझसे मुझ जैसा हो जाता है

‘पल्टू साहब’ की बानी है भूखों को
भोजन दो तो पूजा सा हो जाता है

रफ़्ता रफ़्ता सब उम्मीदें मरती हैं
‘धीरे धीरे सब सहरा हो जाता हैं’

(पल्टू साहब-जलालपुर के प्रसिद्ध संत)

अनिल जलालपुरी 09161755586

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Friday, November 8, 2013

आरज़ू का कोई वरक़ खोलें..............स्वर्गीय भगवती प्रसाद ‘अहक़र’


आंसुओं में उमस की रुत घोलें
आरज़ू का कोई वरक़ खोलें

कल तो मंज़िल दिखायी देती थी
आज किस आसरे पे पर तोलें

बांटता कौन दर्द किसका है
लोग ख़ुद अपनी सूलियां ढो लें

रतजगा उम्र भर मनाया है
अब तो ऐ सांस की थकन सो लें

कोई अपना सा हो तो कुछ हम भी
आदमी की तरह हँसें-बोलें

बावफ़ा चांदनी न धूप ‘अहक़र’
ये तहें भी ख़याल की खोलें

स्वर्गीय भगवती प्रसाद ‘अहक़र’ काशीपुरी 

Thursday, November 7, 2013

शबे-तन्हाई में चमका न करो............शफ़ीक़ रायपुरी

 

बात बेबात की बातों में तो पैदा न करो
चोट पर चोट न दो ज़ख्म को गहरा न करो

हम ग़रीबों के मकानात टपकते हैं बहुत
बादलो खेत पे बरसो यहां बरसा न करो

जिस्म पर इसके ज़रूरी है दरख्तों का लिबास
काट कर पेड़ मिरे देश को नंगा न करो

देखने को तुम्हें आ जाते हैं बाहर आंसू
ऐ सितारो ! शबे-तन्हाई में चमका न करो

रंगो-ख़ुशबू से ज़माने को अदावत है बहुत
ऐ गुलो इस तरह गुलज़ार में महका न करो

आदमी ही नहीं इस शहरे-सितमगर में ‘शफ़ीक़’
तुम दरख्तों से भी साये की तमन्ना न करो

शफ़ीक़ रायपुरी 09406078694

Wednesday, November 6, 2013

मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ...............प्रखर मालवीय `कान्हा’


ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ

मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ

तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ

तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ

मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ

बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूं.....!!

प्रखर मालवीय `कान्हा’
आजमगढ़
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Monday, November 4, 2013

नुक़सान करने लगता है मीठा कभी कभी............सचिन अग्रवाल


लहजा भी इस ख़याल से बदला कभी कभी
नुक़सान करने लगता है मीठा कभी कभी

खतरे में डाल सकती है ऊंची कोई उड़ान
खुद पर भरोसा हद से ज़ियादा कभी कभी

खुद्दारियों का भारी लिबादा उतारकर
अपने ही हक़ को भीख में माँगा कभी कभी

थक हार कर ये तेरे तसव्वुर में लौटना
आसान लगने लगता है जीना कभी कभी

मेरी हथेलियों कि दरारों से पूछ लो
बदला भी है नसीब का लिक्खा कभी कभी

तय करते करते फासले घुटनो पे आ गए
इतना तवील होता है रस्ता कभी कभी

-सचिन अग्रवाल


Thursday, October 24, 2013

कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया.............मोहम्मद शेख इब्राहिम ‘ज़ौक़’


उसे हमने बहुत ढूंढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया

जिस इन्सां को सगे-दुनिया न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया न पाया

मुक़द्दर से ही गर सूदो-ज़िया है
तो हमने यां न कुछ खोया न पाया

अहाते से फ़लक के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया

जहां देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया

किये हमने सलामे-इश्क तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया

न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया

लहद में भी तेरे मुज़तर ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया

कहे क्या हाय ज़ख्में-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया न पाया
...............
हमपायाः बराबर का, सूदो-ज़ियाः लाभ-हानि
लहदः कब्र, मुज़तरः प्रेम-रोगी, लबे-गोयाः वाक शक्ति

-श़ायर ज़नाब मोहम्मद शेख इब्राहिम ‘ज़ौक़’
सौजन्यः रसरंग, दैनिक भास्कर, 20 अक्टूबर, 2013

Wednesday, October 23, 2013

चांदी-सा पानी सोना हो जाता है..............आलोक मिश्रा


तन्हा रह कर हासिल क्या हो जाता है
बस, ख़ुद से मिलना-जुलना हो जाता है

नींद को बेदारी का बोसा मिलते ही
हरा-भरा सपना पीला हो जाता है

अक्स उभरता है इक पहले आँखों में
फिर सारा मंज़र धुँधला हो जाता है

नाचने लगती हैं जब किरनों की परियाँ
चांदी-सा पानी सोना हो जाता है

…तो पलकों से ओस टपकने लगती है
शाम का सुरमा जब तीखा हो जाता है

चुभने लगता है सूरज की आँख में जो
वो दरिया इक दिन सहरा हो जाता है

अब तो ये नुस्ख़ा भी काम नहीं करता-
रो लेने से जी हल्का हो जाता है

दीवारों से बातें करने लगता हूँ
बैठे-बैठे मुझको क्या हो जाता है

ठीक कहा था उस मस्ताने जोगी ने
“ धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है “

आलोक मिश्रा 09876789610

Tuesday, October 22, 2013

हमनें हर ताक पर सपनों को जला रखा है..............प्रखर मालवीय ‘कान्हा’



आज भी तेरी तस्वीर मैंनें आंगन में लगा रखा है
हर एक सांस पर तेरा नाम सजा रखा है

देख ना ले मेरे अश्कों मे तुझको कोई
हमने हर अश्क को पलकों में छुपा रखा है

गीले पलकों पर अब ख्वाब नहीं टिकता "कान्हा"
इस लिये हर ख्वाब तेरी राहों में बिछा रखा है

एक पल को भी ना वीरान हुआ कूचा मेरा
गम-ए तनहाई को जबसे हमने अपना बना रखा है

तुम चले गये तुम्हारी याद ना जाने दी हमने
आज अभी हर याद को सीने से लगा रखा है

आ जाना गर धुंधला जाए तेरी आँखों का काज़ल
हमनें हर ताक पर सपनों को जला रखा है

अच्छे लगते हैं अब तो गालों पे बहते आँसू
आँसुओं को पीने में भी अपना मज़ा रखा है


प्रखर मालवीय ‘कान्हा’ 08057575552
गृहलक्ष्मी में प्रकाशित रचना

तुम इक दिन लौट आओगे.......................प्रखर मालवीय 'कान्हा'



वही भीगा सा मौसम है, बरस के चल दिये बादल,
वही ठण्डी हवाओँ से लिपट के सो रहा हूँ मैं,

वही उन्माद का मौसम, वही बेचैनियोँ के पल,
तुम्हारी यादों को सीने से लगा के रो रहा हूँ मैं...

तुम्हारी दीद की खातिर मैं रुकता हूँ वहीँ अब भी,
जहाँ हमने बुने थे ख्वाब जमाने को परे रखकर,
तुम इक दिन लौट आओगे, यकीँ मै अब भी रखता हूँ मैं...


तेरी आँखेँ समन्दर थीँ, मेरी बातेँ समन्दर थीँ,
जो सहरा सी लगे हर पल,यही रातेँ समन्दर थीँ,

ख़फा होना मना लेना, मुहब्बत की निशानी थी,
मगर यूँ रुठ जाओगे हमेशा के लिये हमसे,

कभी सोचा ना था हमने, कभी चाहा ना था हमने,
वही सुनसान से रस्ते वही पर आस आँखो की,

वही खामोश आलम मे चुभे आवाज साँसो की,
कोई आहट नहीँ तेरी कोई खत भी नहीँ आया ,
मगर तुम लौट आओगे यकीँ मैँ अब भी रखता हूँ मैं...

प्रखर मालवीय 'कान्हा'
8057575552

Sunday, October 20, 2013

रात ढले मुझको ये क्या हो जाता है..............सौरभ शेखर


ताक़त का जिसको नश्शा हो जाता है
उसका लहजा ज़हर-बुझा हो जाता है

रुकता है इक रहरौ पास तमाशे के
देखते-देखते इक मजमा हो जाता है

और बहारों से क्या शिकवा है मुझको
ख़ाली दिल का ज़ख्म हरा हो जाता है

आँखों वाले लोग ही कौन से बेहतर हैं
आँखों को भी तो धोखा हो जाता है

कुछ अच्छा करने की कोशिश में मुझसे
काम हमेशा कोई बुरा हो जाता है

क्यों अम्बर के तारे गिनने लगता हूँ
रात ढले मुझको ये क्या हो जाता है

बिखरी खुशियों को आवाज़ लगाता हूँ
ग़म का दस्ता जब यकजा हो जाता है

सूरज की वहशत बढती जाती है और
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है’

‘सौरभ’ प्यार ज़माने से कुछ हासिल कर
सबको घर,गाड़ी,पैसा हो जाता है

सौरभ शेखर 09873866653

Saturday, October 19, 2013

दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है............... प्रखर मालवीय ‘कान्हा’



रो-धो के सब कुछ अच्छा हो जाता है
मन जैसे रुठा बच्चा हो जाता है

कितना गहरा लगता है ग़म का सागर
अश्क बहा लूं तो उथला हो जाता है

लोगों को बस याद रहेगा ताजमहल
छप्पर वाला घर क़िस्सा हो जाता है

मिट जाती है मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
कहने को तो, घर पक्का हो जाता है

नीँद के ख़्वाब खुली आँखों से जब देखूँ
दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है

प्रखर मालवीय ‘कान्हा’ 08057575552


Friday, October 18, 2013

फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है................सुबोध साक़ी



अक्सर ही संजोग ऐसा हो जाता है
ख़ुद से मिले भी एक अरसा हो जाता है

मैं बोलूँ तो हंगामा हो जाता है
मैं ख़ामोश तो सन्नाटा हो जाता है

धीरे धीरे दिन धुंधला हो जाता है
मेरे मूड का आईना हो जाता है

रात की गहरी काली नद्दी जाते ही
दिन का पर्वत आ के खड़ा हो जाता है

तेरी याद की शम्में जब बुझ जाती हैं
ज़ेह्न मिरा आसेबज़दा(1) हो जाता है

ये तो बरसों देखा है तहज़ीबों ने
रफ़्ता रफ़्ता डर ही ख़ुदा हो जाता है.

जाने क्यूँ दानिश्वर(2) ऐसा कहते हैं
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है

कभी कभी तो याद तिरी आती ही नहीं
कोई-कोई दिन यूं ज़ाया हो जाता है

देखा है इन आँखों ने ये आलम भी
बहता दरिया भी सहरा हो जाता है

ऐसी अदालत में है मेरा केस जहां
हरिक वाक़या अफ़साना हो जाता है

पूछे है वो हाल हमारा कुछ ऐसे
ज़ख्मे – जुदाई और हरा हो जाता है

जी करता है घर में घूमूं नंग-धड़ंग
कभी कभी मन बच्चा सा हो जाता है

आदत है इन तलवों को तो काँटों की
फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है

सुबोध साक़ी 09811535422
_____________
1 भुतहा 2 बुद्धिमान

http://wp.me/p2hxFs-1qE

Thursday, October 17, 2013

मैं तो यूँ ही बुनता हूँ ग़ज़लें अपनी..............गौतम राजरिशी



चाँद ज़रा जब मद्धम-सा हो जाता है
अम्बर जाने क्यूँ तन्हा हो जाता है

चोट लगी है जब-जब नींद की रूहों को
जिस्म भी ख़्वाबों का नीला हो जाता है

तेरी गली में यूँ ही आते-जाते बस
ऐसा-वैसा भी कैसा हो जाता है

उसके फ़ोन की घंटी पर कमरा कैसा
लाल-गुलाबी सपनीला हो जाता है

येल्लो पोल्का डॉट दुपट्टा तेरा उड़े
तो मौसम भी चितकबरा हो जाता है

अलबम का इक-इक फ़ोटो जाने कैसे
शब को नॉवेल का पन्ना हो जाता है

तेरी-मेरी नज़रों का बस मिलना भर
मेरे लिये वो ही बोसा हो जाता है

उस नीली खिड़की के पट्टे का खुलना
नीचे गली में इक क़िस्सा हो जाता है

इश्क़ का ‘ओएसिस’ हो या हो यादों का
“धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है”

मैं तो यूँ ही बुनता हूँ ग़ज़लें अपनी
नाम का तेरे क्यूँ हल्ला हो जाता है

-गौतम राजरिशी {09419029557, 01955-213171}

*ओएसिस = मरुद्यान

Wednesday, October 16, 2013

नूरानी रुख़ बेपरदा हो जाता है.............ख़ुरशीद’खैराड़ी’



होठों तक आकर छोटा हो जाता है
सागर भी मुझको क़तरा हो जाता है

इंसानों के कुनबे में, इंसां अपना
इंसांपन खोकर नेता हो जाता है

दिन क्या है, शब का आँचल ढुलका कर वो
नूरानी रुख़ बेपरदा हो जाता है

तेरी दुनिया में, तेरे कुछ बंदों को
छूने से मज़हब मैला हो जाता है

जीवन एक ग़ज़ल है, जिसमें रोज़ाना
तुम हँस दो तो इक मिसरा हो जाता है

इस दुनिया में अक्सर रिश्तों पर भारी
काग़ज़ का हल्का टुकड़ा हो जाता है

जिस दिन तुझको देख न पाऊं सच मानो
मेरा उजला दिन काला हो जाता है

नफ़रत निभ जाती है पीढ़ी दर पीढ़ी
प्यार करो गर तो बलवा हो जाता है

झूंठ कहूं, मुझमें यह ऐब नहीं यारों
गर सच बोलूं तो झगड़ा हो जाता है

काला जादू है क्या उसकी आँखों में
जो देखे उसको, उसका हो जाता है

रखता है ‘खुरशीद’ चराग़े-दिल नभ पर
उजला मौसम चौतरफ़ा हो जाता है

ख़ुरशीद’खैराड़ी’ 09413408422

Tuesday, October 15, 2013

कैसे फिर तेरा मेरा हो जाता है.................अश्वनी शर्मा


शाम का चेहरा जब धुँधला हो जाता है
मन भारी भीगा-भीगा हो जाता है

यौवन, चेहरा, आँखें बहकें ही बहकें
रंग हिना का जब गाढ़ा हो जाता है

यकदम मर जाना,क्या मरना,यूँ भी तो
‘धीरे धीरे सब सहरा हो जाता है’

सपने की इक पौध लगाओ जीवन में
सुनते हैं ये पेड़ बड़ा हो जाता है

सब साझा करते, पलते, भाई भाई
कैसे फिर तेरा मेरा हो जाता है

ग़ोता गहरे पानी में मोती देगा
मन लेकिन उथला-उथला हो जाता है

बाँट रहा है सुख दुःख जाने कौन यहाँ
जो जिस को मिलता उसका हो जाता है

शीशा है दिल अक्स दिखायी देगा ही
मुस्काता जो बस अपना हो जाता है

देख लहू का रंग बहुत बतियायेगा
पूछेगा,वो क्यूँ फीका हो जाता है

भांज रहे हैं वो तलवारें, भांजेंगे
बस मुद्दा पारा पारा हो जाता है

अश्वनी शर्मा 09414052020 

Monday, October 14, 2013

अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने...........सचिन अग्रवाल


 
 
अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने
मैंने भी झूठ कह दिया झूठों के सामने

एक पट्टी बाँध रक्खी है मुंसिफ ने आँख पर
चिल्लाते हुए गूंगे हैं बहरों के सामने

मुझको मेरे उसूलों का कुछ तो बनाके दो
खाली ही हाथ जाऊं क्या बच्चों के सामने

एक वक़्त तक तो भूख को बर्दाश्त भी किया
फिर यूँ हुआ वो बिछ गयी भूखों के सामने

वो रौब और वो हुक्म गए बेटियों के साथ
खामोश बैठे रहते हैं बेटों के सामने

मुद्दत में आज गाँव हमें याद आया है
थाली लगा के बैठे हैं चूल्हों के सामने  

सचिन अग्रवाल

पत्ता पत्ता “राज ” बग़ावत कर बैठे...................राजमोहन चौहान



सहते सहते सच झूठा हो जाता है
परबत कांधे का हलका हो जाता है

डरते डरते कहना चाहा है जब भी
कहते कहते क्या से क्या हो जाता है

हल्की फुल्की बारिश में ढहते देखा
पुल जब रिश्तों का कच्चा हो जाता है

धीरे धीरे दुनिया रंग बदलती है
कल का मज़हब अब फ़ितना हो जाता है

ईश्वर को भी बहुतेरे दुःख हैं यारो
वो भी भक्तों से रुसवा हो जाता है

भीतर बहते दरिया मरते जाते हैं
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है

पत्ता पत्ता “राज ” बग़ावत कर बैठे
जंगल का जंगल नंगा हो जाता है

-राजमोहन चौहान  8085809050

Sunday, October 13, 2013

अनकही ही रह गयी वोह बात..............फैज़ अहमद फैज़



हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद
फिर बनेंगे आशना* कितनी मुदारातों के बाद
[*acquainted, friendly]
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बोहत बे-दर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क के
थीं बोहत बे-मेहर सुबहें मेहरबां रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे फैज़ जान सदके किये
अनकही ही रह गयी वोह बात सब बातों के बाद

-फैज़ अहमद फैज़
सौजन्यः बेस्ट ग़ज़ल.नेट

Friday, October 11, 2013

मैं बड़े दुखी की पुकार हूं................मुज़तर ख़ैराबादी



ना किसी की आंख का नूर हूं ना किसी के दिल का क़रार हूं
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो मुश्त-ए-ग़ुबार हूं

मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जां-फ़िज़ा, मुझे कोई सुन के करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं

मेर रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ले बहार हूं

पै फ़ातेहा कोई आए क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं
कोई शमा ला के जलाए क्यूं कि मैं बेकसी का मज़ार हूं

ना मैं मुज़तर उनका हबीब हूं, ना मैं मुज़तर उनका रक़ीब हूं
जो पलट गया वह नसीब हूं जो उजड़ गया वह दयार हूं

-मुज़तर ख़ैराबादी

मरहूम श़ायर ज़नाब मुज़तर ख़ैराबादी [1865-1927] 
शायर जनाब जाँनिसार अख़्तर के वालिद थे
और ज़नाब ज़ावेद अख़्तर के दादा हूज़ूर थे
.

Thursday, October 10, 2013

अन्दाज़ा नहीं था...........उर्मिला निमजे


समय खुद को 
इतनी जल्दी दोहराएगा  
अन्दाजा नहीं था

अभी कुछ दशक
पहले ही तो
छोड़कर गया था
 अपने पिता को

आज मुझे 
मेरा पुत्र छोड़ कर 
गया है 

उस समय भी
पिता की
आँखे भर आई होंगी

निश्चित ही
मैंने देखा नहीं था
पलटकर

मैंनें जो फैसला लिया था
वह परम्परा बन जाएगी
अन्दाज़ा ही नहीं था

-उर्मिला निमजे

सौजन्यः मधुरिमा, बुधवार, 9 अक्टूबर, 2013


Wednesday, October 9, 2013

दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही............निदा फ़ाज़ली


दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ दिन ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसाविर आँखें
ज़िन्दगी रोज तस्वीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

फासला चाँद बना देता है पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फुर्सत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही..

-निदा फ़ाज़ली
मशहूर श़ाय़र और नग़मा निगार
जन्मः 12 अक्टूबर, 1938
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
 

Tuesday, October 8, 2013



चांद तारों को भी तस्खीर तो करते रहिये
बन्दगी की है ये मेराज कि नीचे रहिये

आगे बढ़ने की ये जिद, जान भी ले सकती है
शाह्जादे यही बेहतर है कि पीछे रहिये

जो भी होना है वही ज़िल्ले-इलाही होगा
आप क्यूं फिक्र करें, आप तो पीते रहिये

है बगावत यहाँ कद अपना बढ़ाने का ख्याल
सिर्फ साये में बड़े लोगों के जीते रहिये

एक से हाथ मिलाया तो मिलाएंगे सभी
भीड़ में हाथ को अपने अभी खींचे रहिये

रास्तो! क्या हे वोह लोग जो आते जाते
मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिये

अज्मत-ए-बखियागिरी इस में है 'अजहर साहब'
दूसरे चाक गिरेबान भी सीते रहिये

अजहर इनायती

Monday, October 7, 2013

एक यायावर मेघपुंज हूं....................हर नारायण शुक्ला


नभ में उड़ा जा रहा हूं
एक यायावर मेघपुंज हूं।

नीचे धरती का विस्तार,
ऊपर नीला गगन विशाल,
सृष्टि की रचना से विस्मित,
प्रभु का देखूं रूप विराट।

मैं हूं श्यामल जलागार,
बरसाऊं शीतल फुहार,
विद्युत मेरा अलंकार,
ध्वनि से कर दूं चमत्कार,
कभी वर्षा करूं कभी हिमपात,
कभी करूं मैं वज्रपात।

विरही का मैं मेघदूत,
चातक की मैं आशा,
मुझे देख नाचे मयूर,
सबकी बुझे पिपासा।

नभ में उड़ा जा रहा हूं,
एक यायावर मेघपुंज हूं।

- हर नारायण शुक्ला

Friday, October 4, 2013

मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ.................अहमद नदीम क़ासमी


फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आंखो को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूं

हक़ की बात कहूंगा मगर ऐ जुर्रत-ऐ- इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूं

हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं

आंखे तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूं

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़ामोशां में खड़ा हूं

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ

-अहमद नदीम क़ासमी

हक़ः सच, जुर्रत-ए- इज़हारः अभिव्यक्ति का साहस, बर्फ़-से पैकरः आकृति, 
लौहें: पत्थर के टुकड़े सलीब लिखकर क़ब्र में लगाते हैं,
शहरे-ख़ामोशां: क़ब्रिस्तान, दस्त-ए-मुसीबतः मुसीबत का जंगल, 
इज़्नः इज़ाज़त

यह रचना मुझे दैनिक भास्कर के रसरंग पृष्ट से प्राप्त हुई