Monday, October 4, 2021

ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ ...बशीर बद्र


कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

वही ख़त कि जिस पे जगह जगह दो महकते होंटों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहँदियों से रचा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ

मिरे साथ जुगनू है हम-सफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ  


- बशीर बद्र

Sunday, October 3, 2021

प्रतीक्षारत था तपसी एक, खड़ा पावन कालिंदी कूल

  प्रायः लोग कहते हैं कि पराशर ऋषि ने सत्यवती के साथ संसर्ग किया था, 

किन्तु  मेरा हृदय कभी इसे स्वीकार नहीं  कर पाता। 
प्रस्तुत है इस विषयक एक काल्पनिक किन्तु तर्कसंगत दृष्टि:

प्रतीक्षारत  था  तपसी  एक, 
खड़ा  पावन  कालिंदी  कूल।
पवन की गति थी अतिशय तीव्र, 
फहर जाता था श्वेत दुकूल।

वक्ष उभरे अरु बाहु विशाल, 
जटायें जलद सदृश थीं श्याम।
चक्षु रतनारे, नासा तीक्ष्ण 
और उन्नत ललाट अभिराम।

तपोबल की आभा से दीप्त
 हो रहा था उसका प्रत्यंग।
निरख चित्ताकर्षक वह रूप, 
लजाता शत-शत बार अनंग।

स्मरण करता रह-रह प्रभुपाद, 
कृपा कर दो हे जग-दातार।
निरर्थक बीत रहा है काल, 
मिले तारिणी तो जाऊँ पार।

अचानक दृष्टि पड़ी जब दूर,
दिखी उसको नौका फिर एक।
किलक बैठा वह ज्यों नवजात,
किलकते जननि-वक्ष को देख।

हुई जैसे किंचित निकटस्थ,
मन्द गति से तिरती वह नाव।
नाविका श्यामल तरुणी देख,
हुए परिवर्तित ऋषि के भाव।

विवश क्यों खेने को है नाव, 
अद्य कोमल कुमारिका एक?
जनक होगा इसका असमर्थ 
लिए निर्धनता का अतिरेक।

अये रमणी! ले चल उस पार,
हो चुका अतिशय मुझे विलम्ब।
आज इस निर्जन यमुना तीर,
मिली तू इकलौती अवलम्ब।

हुए ज्यों ही उद्यत ऋषिराज,
बैठने को नौका के बीच।
वमन करते वे अपने पाँव
लिये बाहर सहसा ही खींच।

कुवासित सड़ी हुई ज्यों मीन,
अरी तरुणी! तेरी क्यों देह?
अश्रुओं की भारी बरसात, 
लगे करने उसके दृग-मेह।

देव..! मैं सुता मत्स्य की एक, 
मत्स्यगंधा है मेरा नाम।
एक नाविक ने उर से भेंट,
मुझे पाला-पोसा निष्काम।

भरण -पोषण में निज असहाय,
हुए हैं मेरे पालक वृद्ध।
सुताएँ भी रखतीं सामर्थ्य, 
कर रही हूँ मैं  तबसे सिध्द।

किन्तु मेरी दाहक-दुर्गंध, 
कर रही नित मुझको श्रीहीन।
लोग करते रहते उपहास,
मीन की दुहिता भी है मीन।

न कर तू री! अब पश्चाताप,
भले तेरी माता थी मीन।
किन्तु कहता है तेरा भाल,
तुझे ब्याहेगा एक कुलीन।

किसी दुखिया-अबला का एक, 
तपस्वी भी करते अपमान।
हुआ सुनकर अतिशय नैराश्य,
नहीं था किंचित इसका भान।

लपेटे रहती अपनी देह,
मरी मछली की जो दुर्गंध।
उसे पूछेगा कौन कुलीन,
कौन है इस जग में मतिमन्द?

अरी पगली! मैं कहता सत्य,
लिखा है तेरे यही ललाट।
भला जगती में किसके पास,
विधाता के लेखे की काट।

तपोबल से मेटूंगा अद्य,
तुम्हारी असहनीय दुर्गंध।
आज से निःसृत होगी सुनो !
बदन से पारिजात की गंध।

एक योजन तक निर्मल गन्ध,
भरेगी जन-जन में आह्लाद।
अरी योजनगन्धे ! निज-हृदय 
न रख कोई अब और विषाद।

संग ही मिट जाएगा आज,
बदन का तेरे मैला रंग।
और पा यौवन का अधिभार,
निखर जाएंगे सारे अंग।

मिट गया उसका सारा म्लान,
पड़ी ज्यों उस पर मुनि की दृष्टि।
देखकर उसका मोहक  रूप,
चकित हो बैठी सारी सृष्टि।

आपका यह पावन उपकार,
नहीं बिसरा सकती मैं नाथ।
मुझे चरणों की दासी मान,
ले चलें प्रभुवर अपने साथ।

अरी पगली, भोली, मतिमन्द !
तुझे है स्यात नहीं आभास।
लिखेगा तेरा मोहक रूप,
राष्ट्र का एक नवल इतिहास।

बनेगी रानी एक महान,
किन्तु विपदाएँ होंगी साथ।
सौख्य के संग दुखों के रंग,
लिखे हैं विधि ने तेरे माथ।

आह! यह रूप-राशि तब व्यर्थ,
आह! फिर राजयोग भी व्यर्थ।
हरो आसन्न दुखों को नाथ!
सुखों का निकले किंचित अर्थ।

अरी रमणी कहने में किन्तु,
 हो रहा है अतिशय संकोच।
कहीं तू मान न बैठे सद्य, 
माँग बैठा यह मुनि उत्कोच।

अरे ऋषिवर! दीजै आदेश,
आप दासी को निःसंकोच।
आपने बदला मेरा भाग्य, 
आप मांगेंगे क्यों उत्कोच?

सुनो तब..! मुझसे होगा प्राप्त 
तुम्हे अति विदुष एक शुभ-पुत्र।
उसी के पास रहेगा सदा, 
तुम्हारी हर विपदा का सूत्र।

आह ! मिट जायेगा कौमार्य,
पतित मैं कहलाऊंगी नाथ।
न जीवित रह पाऊंगी लिए,
कलंकित अपना अवनत माथ।

अरी रमणी सुन मेरी बात!
न आयेगा ऐसा दुर्भाग्य।
न कलुषित होगा तेरा गात,
न टूटेगा मेरा वैराग्य।

मात्र दिखला दे अपनी देह!
अभी तू होकर वस्त्र विमुक्त।
डाल कर एक दृष्टि मैं मात्र,
करूँ मैं कुक्षि पुत्र से युक्त।

किन्तु ऋषि ! दिवा अभी है शेष, 
और यह खुला हुआ स्थान।
अगर पड़ गयी अन्य की दृष्टि,
मिटेगी मेरी लाज महान।

किया तपबल से ऋषि ने पुनः,
घने कुहरे का आविर्भाव।
बना बैठी पावन इतिहास,
मत्स्यगंधा की वह शुचि नाव।

-राकेश मिश्रा

Saturday, October 2, 2021

एक उद्योगपति को शिक्षक की समझाइश

 


एक उद्योगपति को  शिक्षक की समझाइश


 एक बड़े  उद्योगपति शिक्षा संस्थानों के शिक्षकों को संबोधित कर रहे थे-  "देखिए! बुरा मत मानिए ! लेकिन जिस तरह से आप काम करते हैं; जिस तरह से आपके संस्थान चलते हैं यदि मैं ऐसा करता तो अब तक मेरा बिजनेस डूब चुका होता । "चेहरे पर सफलता का दर्प साफ दिखाई दे रहा था !

 "समझिए ! आपको बदलना होगा;  आपके राजकीय संस्थानों को बदलना होगा; आप लोग आउटडेटेड पैटर्न पर चल रहे हैं;  और सबसे बड़ी समस्या आप शिक्षक स्वयं हैं, जो किसी भी परिवर्तन के विरोध में रहते हैं  !"

"हमसे सीखे ! बिजनेस चलाना है तो लगातार सुधार करना होता है किसी तरह की चूक की कोई गुंजाइश नहीं !"

प्रश्न पूछने के लिए एक शिक्षिका का हाथ खड़ा था..!

"सर ! आप दुनिया की सबसे अच्छी कॉफी बनाने वाली कंपनी के मालिक हैं ।  एक जिज्ञासा थी  कि आप कॉफी के कैसे बीज खरीदते हैं..? "

उद्योगपति का गर्व भरा ज़वाब था-  "एकदम सुपर प्रीमियम! कोई समझौता नहीं..!" 

शिक्षिका ने फिर पूछा:-
"अच्छा मान लीजिए आपके पास जो माल भेजा जाए उसमें कॉफी के बीज घटिया क्वालिटी के हों तो..??"

उद्योगपति:-
" सवाल ही नहीं ! हम उसे  तुरंत वापस भेज देंगे; वेंडर कंपनी को ज़वाब देना पड़ेगा;  हम उससे अपना क़रार रद्द कर सकते हैं !

कॉफी के बीज के चयन के हमारे बहुत सख्त मापदंड है, इसी कारण हमारी कॉफी की प्रसिद्धि है! 

"आत्मविश्वास से भरे उद्योगपति का लगभग स्वचालित उत्तर था !

शिक्षिका:-
 "अच्छा है ! अब हमें यूँ समझिए कि हमारे पास रंग-स्वाद-और गुण में अत्यधिक विभिन्नता के बीज आते हैं लेकिन हम अपने कॉफी के बीज वापस नहीं भेजते !"

"हमारे यहां सब तरह के बच्चे आते है; अमीर-गरीब, होशियार-कमजोर,  गाँव के-शहर के,  चप्पल वाले-जूते वाले,  हिंदी माध्यम के-अंग्रेजी माध्यम के, शांत- बिगड़ैल...सब तरह के  !
हम उनके अवगुण देखकर उनको निकाल नहीं देते ! 

सबको लेते हैं ;..सबको पढ़ाते हैं;,..सबको बनाते हैं.. !"

"..... क्योंकि सर !  हम व्यापारी नहीं,  शिक्षक हैं ।

सदैव प्रसन्न रहिये!!....जो प्राप्त है-पर्याप्त है!!

लॉक डाउन में शिक्षक वर्ग की किसी को सुध लेने का ख्याल तक नहीं आ रहा। फिर भी सबसे शांत चित्त वही वर्ग है। पता है क्यों क्योंकि वह राष्ट्र निर्माता है, अगर वह विचलित हो गया तो पुनर्निर्माण संभव नही।

Friday, October 1, 2021

कुछ एक फैसले मजबूरियों के होते है

तमाम फतवे कहाँ मुफ्तियों के होते है
कुछ एक फैसले मजबूरियों के होते है

बुजुर्ग जिनके उठाते नही किसी पे नज़र
दुपट्टे सर पे उन्ही बच्चियों के होते है

जो आँधियों में भी रूकती नहीं है रोके से
गुलाब सिर्फ उन्ही तितलियों के होते है

वो सब्ज़ रंग का स्वेटर वो सुर्ख सेब से गाल
कई मज़े भी मियां सर्दियों के होते है

तअल्लुकात में बरसो के पड़ गई है दरार
यही नतीजे गलतफहमियों के होते है

ज़मीन बांटना अच्छा नहीं मिरे भाई
खसारे इसमें कई पीढ़ियों के होते है

ये कारोबार तो मीरासियो के होते है

"तुफ़ैल' आयेंगे इतने कहाँ से राजकुमार
कि ऐसे ख्वाब सभी लड़कियों के होते है
-तुफैल चतुर्वेदी

Thursday, September 30, 2021

चढ़ती उम्र के साथ .....नीलम गुप्ता

 

चढ़ती उम्र के साथ
बुढ़ापे की तरफ
जब राह हो जाती
अपनी औलाद ही
जब आंखे दिखाती
तब पतियों को
बदलते देखा है
पत्नियों की कदर
करते देखा है।

सारी दुनिया घूम ली जब
कोई रिश्ता सगा ना दिखा
भाई बहन सब रुठ गएं
मां, बाप के हाथ छूट गएं
तब जीवनसाथी का हाथ
सड़क पे पकड़े देखा है।

जवानी जब बीत गई
कमाने की इच्छा भी ना रही
भागने का जब दम ना बचा
घुटनों का दर्द जब बढ़ गया
तब पत्नी के घुटनों में
बाम लगातें देखा हैं।

पार्क में जब
किसी का दर्द सुन लिया
साथी किसी का गुजर गया
उसकी आंख का आंसू देख
घर आकर,जीवन साथी को 

हिलते हाथों से
गजरा लगाते देखा है।
चढ़ती उम्र के साथ
प्यार को भी चढ़ते देखा है।

Wednesday, September 29, 2021

जिंदगी का सफर ....मनोरमा सिंह

 रश्क-ए-जन्नत बने जिंदगी का सफर।
फूल उस पर खिले जो डगर हो तेरी।

तुम जो मिले वक्त थम सा गया।
मुझको जन्नत लगे रहगुज़र हो तेरी।

कौन सा था नशा, हम बहकते गए।
सुरूर छाये गर, वो नज़र हो तेरी।

तुम जो बदले, दुनिया बदल सी गई।
हम न समझे नज़र किधर हो तेरी।

हवाओं का झोंका उड़ा ले गया।
अब न अपनी ख़बर न ख़बर हो तेरी।

खूब गुनाहों को मेरे मुझसे कहा।
कब तल भला, दिल में फिकर हो तेरी।

शाम सुबहा तेरी याद आये चली।
लब हिले न मगर जब जिकर हो तेरी।
-मनोरमा सिंह _ बल्लू सिंह
आजमगढ

Tuesday, September 28, 2021

चौराहा और पुस्तकालय ...खेमकरण ‘सोमन’

चौराहा और पुस्तकालय 
चौराहे पर खड़ा आदमी 
बरसों से, खड़ा ही है चौराहे
पर टस से मस भी नहीं हुआ ! 

जबकि पुस्तकालय में
खड़ा आदमी 
खड़े-खड़े ही पहुँच गया
देश-दुनिया के 
कोने-कोने में

जैसे हवा-सूरज, 
धूप-पानी और बादल 
फिर भी देश में
सबसे अधिक हैं चौराहे ही।  

  









 




Monday, September 27, 2021

बहुत बुरा महसूस किया .....खेमकरण ‘सोमन’


डिकैथनॉल,
ट्रेंड्स,
बिग बाजार और विशाल मेगा मार्ट की धरती से
खरीदारी करने के बाद उन्होंने
महसूस किया रंग–रंगा
चाँद–तारों को बता–बतियाकर
उतनी ही ऊँचाई पर पाया अपने आपको
पाया अपने सम्मान में बढ़ोत्तरी
महसूस किया बहुत–बहुत अच्छा
बस…बहुत–बहुत बुरा महसूस किया
सब्जी वाले, राशन वाले और
रिक्शे वाले के साथ लेन–देन करके। 

-खेमकरण ‘सोमन’


Tuesday, September 21, 2021

किसी के समक्ष प्रिय…मत खुलना ...खेमकरण ‘सोमन’

विदा हो रहा हूँ
चाबी ने बस 
इतना ही कहा
जब तक आ न जाऊँ–


किसी के समक्ष प्रिय…मत खुलना
फिर कई चाबियाँ आईं- 
चली गईं
लेकिन न खुला ताला
न ताले का मन
यहाँ तक कि
हथौड़े की मार से टूट गया
बिखर गया
लहूलुहान हो गया
मर गया पर अपनी ओर से खुला नहीं !
पर उसके अंतिम शब्द
दुनिया के सामने खुलते चले गए–
प्रिय… तुमसे जो भी कहा, 
मैंने सुना
बस उसी कहे–सुने की 
लाज रखते हुए
विदा हो रहा हूँ!
प्रेम आकंठ डूबा हुआ
यकीनन… 
लाज रखता है
कहे–सुने गए,
अपने शब्दों की ।
-खेमकरण ‘सोमन’ 

Thursday, September 16, 2021

झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी ...आरज़ू लखनवी

किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी

कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी बहा ले गया बरसात का पहला पानी

टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ
कही खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी

बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका
आरजू देखते ही मुँह में भर आया पानी

ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम
"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी

-आरज़ू लखनवी

Friday, September 3, 2021

चराग़ाँ हर एक घर के लिये ....दुष्यंत कुमार


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.
-दुष्यंत कुमार

मयस्सर=उपलब्ध, मुतमईन=संतुष्ट, मुनासिब=ठीक 

Thursday, September 2, 2021

मैं तुझे फिर मिलूँगी ....अमृता प्रीतम


मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!! 
-अमृता प्रीतम


Monday, August 30, 2021

कन्हैया ...पुष्पा कुमारी "पुष्प"

लघुकथा
....
"सुनो!.तुम मुन्ना को कन्हैया बना उसे लेकर जन्माष्टमी के पंडाल में चली जाना।"
अपना मोबाइल और गाड़ी की चाबी उठा वह चलने को हुआ लेकिन पत्नी ने टोक दिया..
"आप किसी जरूरी काम से कहीं जा रहे हैं क्या?"
"मेरे दोस्त ने कॉकटेल पार्टी रखा है!.मैं वहीं जा रहा हूंँ।"
"आपसे एक बात कहनी थी।"
"क्या?"
"मुन्ना ने कन्हैया बनने से इनकार कर दिया है।"
"क्यों? कल ही तो उसके लिए इतना महंगा कन्हैया वाला ड्रेस लाया हूंँ!.उसे वह ड्रेस पसंद नहीं आया क्या?"
"कह रहा है कि,.मैं कन्हैया हो ही नहीं सकता!"
"क्यों नहीं हो सकता?..मेरा राजा बेटा है वो!"
लगभग पांच-छ: वर्ष के अपने इकलौते बेटे की हर ख्वाहिश पूरी करने वाला हैरान हुआ क्योंकि वह कई बार प्यार से उसे कन्हैया ही तो बुलाता था।
"कहता है कि,.कन्हैया तो दूध-छाछ पीने वाले नंद बाबा का पुत्र था!.शराब पीने वाले का नहीं।"
पति पत्नी के बीच कुछ देर के लिए एक गहरा सन्नाटा छा गया और उस सन्नाटे को भंग करते हुए उसने गाड़ी की चाबी वापस रख दी।

-पुष्पा कुमारी "पुष्प"  

काश कि चित्रकार होती ....निधि सक्सेना

काश कि चित्रकार होती
तो इन चरणकमलों को अपनी कूची से उकेरती
यूँ खो जाती इनमें..
काश कि मूर्तिकार होती
तो मूर्ति गढ़ती
यूँ नाता जोड़ती इनसे..
काश कि कवि होती
काव्य रचती
यूँ सुख पाती ..
परन्तु मैं अकिंचन
न रंग न शब्द न छैनी
केवल भावनाएं हैं
वो भी कभी उफनती किलकती
कभी लड़खड़ाती
वही अर्पित करती हूं श्रीहरि
अपने अंक लगाए रखना
तुममें ही डूबूं तिरुं
प्रेम की अलख जगाए रखना...
-निधि सक्सेना

Tuesday, August 24, 2021

गांधारी के श्राप के कारण अफगानिस्तान का हुआ है ये हाल, इतिहास दे रहा है इस बात की गवाही

 गांधारी के श्राप के कारण अफगानिस्तान का हुआ है ये हाल,
इतिहास दे रहा है इस बात की गवाही



अफगानिस्तान पर अब तालिबान का कब्जा हो चुका है. अफगानिस्तान में चारो तरफ खून खराबा और हाहाकार मचा हुआ है. तालिबान अब अपना असली चेहरा दिखा रहा है. उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही है. दूसरे देश और खुद अफगानिस्तान के लोग अब वहां एक पल भी रहना नहीं चाहते हैं. अफगानिस्तान में तालिबान का ये आतंक देख गांधारी का वो श्राप याद आ रहा है, जो उन्होंने अपने भाई शकुनी को दिया था. इस समय गांधारी के उस श्राप की फिर से चर्चा बढ़ गई है. तो चलिए हम आपको बताते हैं क्या है गांधारी से भारत का कनेक्शन और क्या था गांधारी का श्राप.

महाभारत काल के श्राप की वजह से जल रहा है अफगानिस्तान

महाभारत की प्रभावशाली महिला पात्रों जब बात आती है तो उसमें गांधारी का नाम भी लिया जाता है. गांधारी हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन की मां थी. शकुनि गांधारी का भाई था. गांधारी का संबंध गांधार से था जिसे आज कंधार कहा जाता है. जो अफगानिस्तान में स्थित है. गांधारी के पिता का नाम सुबल था. गांधार राज्य से संबंध होने के कारण ही गांधारी कहा जाता था. राजा धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण विवाहोपरांत ही गांधारी ने भी आंखों पर पट्टी बांध ली थी. गांधारी पतिव्रता स्त्री थीं.
महाभारत के युद्ध में कौरवों की पराजय हुई थी. महाभारत के युद्ध में गांधारी के सभी 100 पुत्रों की मृत्यु हो गई थीं. महाभारत का युद्ध जब समाप्त हुआ है और महल में जब गांधारी ने अपने सभी पुत्रों के शवों को देखा तो वह क्रोध में आ गईं. गांधारी ने शकुनि को श्राप दिया था कि जिस तरह से तुमने मेरे 100 पुत्रों को मरवा दिया उसी तरह से तुम्हारे देश में कभी शांति नहीं होगी.

गांधारी ने दिया था शकुनी और गांधार को श्राप

आपकों बता दें कि कहा जाता है कि भीष्म ने गांधारी से धृतराष्ट्र की शादी के लिए सुबल के परिवार को नष्ट कर दिया था, जब पिता की मृत्यु के बाद शकुनी राजा बना तो उसने भीष्म के परिवार से बदला लेने के लिए चाल चली और कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत का युद्ध कराया, जिसमे भीष्म सहित उनका पूरा परिवार नष्ट हो गया और सिर्फ पांडव ही जीवित बचे, ऐसे में गांधारी ने शकुनी को श्राप दिया कि “मेरे 100 पुत्रो को मरवाने वाले गांधार नरेश तुम्हारे राज्य में कभी भी शांति नहीं रहेगी.”

Monday, April 5, 2021

जो एक डोर से बंधे है ...सुरेन्द्रनाथ कपूर


क्या चाहता है मन ?
क्यों इतना उदास है?
वह मिल के नहीं मिलते
जिनसे 
मिलने की प्यास है!
अपने को खोजता है 
किसी और की छाया में
रहता है खुद से दूर
मगर  गैरों के पास है!
खुशियों के सारे पल
इसी
वहशत में गुज़र जाते है
साध अधूरी रहने का सोग
हम रोज़ ही मनाते हैं!
इतना 
समझना काफी है
जो भी होता है
आकस्मिक नहीं ,
निर्धारित है।
हर चीज़ का  समय है
किसी सूत्र से 
संचालित है।
मौसम भी रंग बदलते हैं
चाँद सूरज भी 
रोज़ ढलते हैं
कुछ लोग चले जाते हैं
कुछ मीत नए मिलते है!
जो बेगाने है 
तुम्हारे थे ही नहीं,
खुद ही चले जायेंगे।
जो
एक डोर से बंधे है
वह
जाकर भी लौट आयेगे।
अपना चाहा
हो जाये तो बहुत अच्छा,
न हो ,तो उससे बेहतर।
शाश्वत सत्य है,
यकीन कर लो तो सोना है
वर्ना  गर्द से भी बदतर!
- सुरेन्द्रनाथ कपूर


Friday, February 12, 2021

मै भारत-भूमि ! ...मंजू मिश्रा

मै भारत-भूमि !
ना जाने कब से
ढूंढ रही हूँ
अपने हिस्से की
रोशनी का टुकड़ा….
लेकिन पता नहीं क्यो
भ्रष्ट अवव्यस्था के ये अँधेरे
इतने गहरे हैं
कि फ़िर फ़िर टकरा जाती हूँ
अंधी गुफा की दीवारों से…
बाहर निकल ही नहीं पाती
इन जंजीरों से,
जिसमे मुझे जकड़ कर रखा है
मेरी ही संतानों ने

उन संतानों ने
जिनके पूर्वजों ने
लगा दी थी
जान की बाज़ी
मेरी आत्मा को
विदेशियों की चंगुल से
मुक्त कराने के लिए

हँसते हँसते
खेल गए जान पर
शहीद हो गये
माँ की आन पर
एक वो थे
जिनके लिए
देश सब कुछ था
देश की आजादी
सबसे बड़ी थी
एक ये हैं
जिनके लिए
देश कुछ भी नहीं
देश का मान सम्मान
कुछ भी नहीं
बस कुछ है तो
अपना स्वार्थ,
अपनी सम्पन्नता और
अपनी सत्ता ……

-मंजू मिश्रा


Thursday, February 11, 2021

मैं अदना नारी .....नीलम गुप्ता

मैं अदना नारी
सब कहते है कैसे लिख लेती हो
कितना हुनर है
मैं मुस्करा जाती हूं
और तुम्हें एक राज बताती हूं
लिखने को हुनर नही दिल चाहिए
शब्द नही समझ चाहिए
कोई कहानी नहीं
बस दर्द चाहिएं
कोई बनावट नही
असलियत चाहिएं

कौन क्या लिखता
कैसे लिखता
मैं नही जानती
बस दिल ने जो कहा
मैं बस वहीं  मानती 

कोई जादू नहीं है ये
ना कोई काबिलियत हैं ये
बस जज्बात से भरा दिल हैं
जिसे आपके समझ में उभारती
बिना जज्बात के बात नहीं बनती
बात बिन कायनात नही रचती

फिर मैं तो कलमकार हूं दोस्तों
जज्बात बिन मेरी
कलम भी ना हिलती
कुछ अनकहे ख्याब
कुछ सबके विचार
कुछ नादानियां
कुछ खामोशियां
कुछ अधूरा प्यार
कभी मां का दुलार
तो कभी हसीं की बौछार ले आती हूं
और अंदर तक भाव भिवोर हो जाती हूं

मैं एक अदना सी नारी
लिख कर कुछ जज़्बात
खुशियां बिखेर देती हूं
आपके संग संग
अपने अधरों पर भी
एक मुस्कान सहेज लेती हूं....

स्वरचित

©नीलम गुप्ता 

Wednesday, February 10, 2021

किसी का दिल ना तोड़ों तुम ...सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

निज टूटे हुए दिल ले, सभी मेरे पास आते हैं।
हम जोड़ेगे इसे ठीक से, लिए विश्वास आते हैं।

भरी है टोकरी दिल के, टुकड़े से यहां देखो,
इन्हीं टुकड़ों को ले मायुस, बड़ी उदास आते हैं।

जुटाकर दिल के टुकड़े को,सजाये हैं करीने से,
न कोई उल्टा-सीधा हो, यही एहसास आते हैं।

इसे रख सामने अपने, मरम्मत करने बैठे हैं,
मगर ये तो बड़े घायल,गुमे-हवास आते हैं।

लगाते हम हैं जब टांके,लहू इनसे टपकते हैं,
जो इनसे गिरते हैं लोहू, नहीं हमें रास आते हैं।

जोड़े ये नहीं जुटते ,भला कैसे इन्हें छोड़े,
खुदा भी हैं, तो क्या हैं हम,हो निराश जाते हैं।

अगर जुटते ये हमसेे,तो हम भी जोर कुछ करते ,
सभी जाते खुशी मन से,जो हो उदास आते हैं।

मनुज तुझसे है मिन्नत अब, किसी का दिल नहीं तोड़ो,
तुम अपने दिल में यह सोचो,ये मुद्दे खास आते हैं।

-सुजाता प्रिय 'समृद्धि' 

Tuesday, February 9, 2021

तुम मसीहा थे जानिब था हर फैसला तेरा ..पावनी जानिब

शर्म थी वो तुम तो शर्म कर ही सकते थे
दामन में उसके इज्जतें भर भी सकते थे।

माना के बेबसी में वो बदन बेचती रही
समझौता हालातों से तुम कर भी सकते थे।

लाज शर्म की उसने तुम्हें पतवार सौंप दी
रहमो करम की उसपे नजर कर भी सकते थे।

रिश्ता बनाके उसका तुम हाथ थाम लेते
कोठा कहते हो उसे घर कर भी सकते थे।

उसका गुनाह न अपना गिरेबां भी झांकिए
इंसान बनके तुम खुदा से डर भी सकते थे।

तुम मसीहा थे जानिब था हर फैसला तेरा
आंचल उढ़ाके तुम बदन को ढक भी सकते थे।

-पावनी जानिब सीतापुर 

Wednesday, January 27, 2021

याद के पहरों में जीते हैं ...अस्तित्व "अंकुर"

तुम्हारे साथ गुज़री याद के पहरों में जीते हैं,
हमें सब लोग कहते हैं कि हम टुकड़ों में जीते हैं,

हमें ताउम्र जीना है बिछड़ कर आपसे लेकिन,
बचे लम्हों की सौगातें चलो कतरों में जीते हैं,

वही कुछ ख्वाब जिनको बेवजह बेघर किया तुमने,
दिये उम्मीद के लेकर मेरी पलकों पे जीते हैं,

तुम्हारी बेरुखी पत्थर से बढ़कर काम आती है,
मेरे अरमान फिर भी काँच के महलों में जीते हैं,

जमाने की नज़र में हो चुके हैं खाक हम लेकिन,
हमें मालूम है हम आपकी नज़रों में जीते हैं,

मेरे हर शेर पर “अंकुर” यहाँ कुछ दिल धड़कते हैं,
यहाँ सब ज़िंदगी को हो न हो खतरों में जीते हैं,

-अस्तित्व "अंकुर"

 

Tuesday, January 26, 2021

काव्य ककहरा ....डॉ. अंशु सिंह


काव्य ककहरा जिससे सीखा
भूल गई उन हाथों को
स्वार्थ सिद्धि के खातिर अपनी
तोड़ दिया सब नातों को
कलम पकड़ना नहीं जानती
शब्द शब्द सिखलाये थे
हर पल हर क्षण साथ निभाकर
अक्षर ज्ञान कराये थे
जब-जब उसने काव्य रचा
वो पल पल साथ निभाये थे
शब्द शब्द को सदा सुधारे
अतुलित नेह दिखाये थे
मान दिया समकक्ष सुता के
गुरु सम ज्ञान सिखाये थे
स्वागत किया बहन सा घर में
सारा फ़र्ज़ निभाये थे
प्रथम बार जब मान वो पाई
गर्व सहित मुसुकाये थे
जिन गीतों में मान मिला था
वो भी वही सिखाये थे
फिर भी छोड़ चली चुपके से
दर्द से अति सकुचाये थे
काश वो हमसे कह कर जाती
हम ही समझ न पाये थे
बहुरूपिया के संग गई वो
कुछ भी न कर पाये थे
कह कर अपना सिक्का खोटा 
बहुत बहुत पछताये थे 

-डॉ. अंशु सिंह