Friday, September 30, 2016

लग गया झटका......दिग्विजय अग्रवाल









लग गया झटका 440 व्होल्ट का 
कुछ नामी-गिरामी लोगों से
आत्मीयता हो गई
वो कुछ इतनी हुई 
कि मैं क्या बताऊँ
उनका कहना था...
ये नक्सली और आतंकवादी
है क्या चीज..इन्हें तो हम
चुटकियों में मसल देंगे..पर
नहीं न चाहते कि ये खत्म हो जाए
???? सोच में पड़ गया मैं..
सामने उसके ये प्रश्न उछाला
??
उसने मेरे कान में कहा...
इनके उन्मूलन के लिए सरकार अकूत
धन देती है,,,,और 
यही हमारा चारा-पानी है
गर ये खत्म हो गए तो हम
भूखे मर जाएँगे..

-दिग्विजय अग्रवाल


मैं समझी मैं कुछ तुकबंदी कर लेती हूँ

पर इनकी कलम को बोलते आज देखी मैं
आतंक का दर्द बयां करती ये कविता
आपके साथ साझा कर रही हूँ
सादर
यशोदा

Thursday, September 29, 2016

शैतान हँस रहा है........नादिर खान

















लड़की चीख़ी
चिल्लायी भी
मगर हैवानों के कान बंद पड़े थे
नहीं सुन पाये
उसकी आवाज़ का दर्द

वह रोयी बहुत
आँखों से उसके
झर-झर आँसू गिरे
ख़ून के आँसू
मगर हैवानों की आँखें
पत्थर की थी
वो आँसुओं का दर्द
नहीं देख पाये

वो हिचकियाँ लेकर
सिसकती रही
दुहाई देती रही
कभी इंसानी रिश्तों की
कभी ईश्वर की
मगर हैवानों के दिल नहीं थे
वो दर्द महसूस न कर सके
वो घंटों लड़ती रही हैवानों से
अब मौत से लड़ रही है

दूर खड़ा शैतान हँस रहा है
मुस्कुरा रहा है
एक बार फिर
वो अपने मक़सद पर कामयाब रहा
इंसानियत को तार –तार कर गया
इंसानों का इंसानों पर से
विश्वास हिला गया
सभ्य समाज को आईना दिखा गया
-नादिर खान

Wednesday, September 28, 2016

मादरी बोली में कहता हूँ .............राजेन्द्र स्वर्णकार


ग़ज़ल उर्दू में कहता हूं, ग़ज़ल हिंदी में कहता हूँ 
यहां तक…भोजपुरी में, मादरी बोली में कहता हूँ 

ग़ज़ल फ़न है, मैं सब बातें फ़न-ए-फ़ित्री में कहता हूँ 
नहीं यह भी कि ख़ुदगरज़ी या मनमर्ज़ी में कहता हूँ 

जदीदी शाइरी करता, रिवायत भी निभाता हूँ 
मैं तर्तीबो-तबीअत से ग़ज़ल लुगवी में कहता हूँ 

रदीफ़ो - क़ाफ़िये हैं बाअदब हर शे'र में हाज़िर
तग़ज़्ज़ुल में हर इक मिसरा मैं पाबंदी में कहता हूँ 

मुहतरम हैं बड़े उस्ताद-आलिम परख लें आ'कर
मुकम्मल बहर में कहता; मगर मस्ती में कहता हूँ 

जहां हूँ रू-ब-रू इंसानियत के गुनहगारों से
वहां अश्आर मैं बेशक़ बहुत तल्ख़ी में कहता हूँ 

ख़ुद-ब-ख़ुद संग में तब्दील कोई मोम कब होता 
वज़ह ढूंढें अगर कुछ लफ़्ज़ मैं तुर्शी में कहता हूँ 

मेहरबां सरस्वती मे'आर रखती क़ाइमो - दाइम
ग़ज़ल की ही मसीहाई पज़ीराई में कहता हूँ 

नहीं राजेन्द्र चिल्लाता, ख़ुशगुलूई मेरा लहजा
बुलंदी की कई बातें ज़ुबां नीची में कहता हूँ
-राजेन्द्र स्वर्णकार

Tuesday, September 27, 2016

कह रही है कुछ ज़बाँ लेकिन कहानी और है............“शाज़” जहानी


बढ़ रही जूँ जूँ मिरी ये नातवानी और है
हो रही महसूस मुझको अब गिरानी और है

ग़म्ज़ा-ओ-इश्वो अदा की तर्जुमानी और है
कह रही है कुछ ज़बाँ लेकिन कहानी और है

है ज़ईफ़ी इस्मे सानी इंतिज़ारे मौत का
ज़िंदगी उतनी है बस जितनी जवानी और है

मर न जाएँ मौत से पहले अगर मालूम हो
क़ैद हस्ती की अभी कितनी बितानी और है

चारागर कहता है मेरे जिस्म में है ख़ून कम
देखना, मीना में क्या कुछ अर्ग़वानी और है ?

गुफ़्त तो उस हुस्नख़ू की तल्ख़ भी है चाशनी
पर मलाहत हासिले शीरीं बयानी और है

टूट जाएगा मिरा दिल गर अधूरी रह गयी
बस ज़रा सी दास्ताँ मुझ को सुनानी और है

आप के तर्ज़े तकल्लुम से तो लगता है यही
रह गयी बाक़ी अभी कुछ सरगिरानी और है

हिज्र की शब हार मुझ से खा चुकी है, ऐ फ़लक,
भेज, गर कोई बलाए आस्मानी और है

ज़ख़्म जो तूने दिए हैं आरिज़ी वो कुछ नहीं
नक़्श जो दिल पर हुई है वो निशानी और है

आज ये रुत्बा मिला है, कल मिलेगा दूसरा
आस्माँ तक पाएदाने कामरानी और है

आख़िरी दम तक बलाएँ पेश आती हैं नयी
भूल जाओ ‘एक मर्गे नागहानी और है’

“शाज़” जब उस की गली से आबरू जाती रही
जाए जो जाता है, अब क्या चीज़ जानी और है ?

“शाज़” जहानी
(आलोक कुमार श्रीवास्तव )
मोबाइल 09350027775

Monday, September 26, 2016

थके हुए कुछ लोग.........मनोरंजन कुमार तिवारी

जीवन से हारे हुए,
थके हुए कुछ लोग,
सिमटा कर रख लेते है ख़ुद को,
किसी अँधेरे कोने में,
बुनते है वहीँ फिर बहानों की चादर,
जिसे ओढ़ कर छुप सकें
लोगों की नज़रों से,
इज़ाद करते है नए-नए तरीके,
लोगों को हड़काए रखने,
डराए रखने के लिए।

बर्दाश्त नहीं होता उनसे,
जो कोई उन पर अँगुली उठाए,
इसलिए पहले से सतर्क,
अपने आस-पास के लोगों पर 
रखते है चोर नज़र,
ताकि ढूँढ सके कोई ऐब,
ख़ुद को सही और 
सामने वाले को ग़लत सिद्ध करने के लिए।

बनाते रहते है,
रहस्यमय जाले,
जिसमें उलझा सकें मासूमों को,
और तुष्ट कर सकें अपनी कुंठाओं को,
पर नहीं समझते कि,
वे रहस्यमय जाले ख़ुद उन्हें ही -
रोशनी से महरूम किए जाते है,
और वे धँसते जाते हैं,
अनंत अंधकार में,
जहाँ उनकी रूह तक पर -
कालिख़ पुत जाती है!












-मनोरंजन कुमार तिवारी

Sunday, September 25, 2016

यही ज़िन्दगी मुसीबत.......मुईन अहसन जज़्बी

मिले ग़म से अपने फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना| 
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इश्रत-ए-शबाना| 
[मय=शराब; इश्रत=ख़ुशी; शबाना=रात] 

यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मुसर्रत, 
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना| 
[मुसर्रत=ख़ुशी] 

कभी दर्द की तमन्ना कभी कोशिश-ए-मदावा, 
कभी बिजलियों की ख़्वाहिश कभी फ़िक़्र-ए-आशियाना| 
[मदावा= इलाज करना] 

मेरे कहकहों के ज़द पर कभी गर्दिशें जहाँ की, 
मेरे आँसूओं की रौ में कभी तल्ख़ी-ए-ज़माना| 
[ज़द= रिश्ता;गर्दिश=बदकिस्मती] 

कभी मैं हूँ तुझसे नाला कभी मुझसे तू परेशाँ,
मेरी र्फअतों ले लर्जा कभी मेहर -ओ-माह-ओ-अंजुम

मिरी पस्तियों से खाइफ़ कभी औज़-ए-ख़ुसरवाना 
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ कभी तू मेरा निशाना| 

जिसे पा सका न ज़ाहिद जिसे छू सका न सूफ़ी, 
वही तीर छेड़ता है मेरा सोज़-ए-शायराना| 
-मुईन अहसन जज़्बी
जन्म : अगस्त 1912, आजमगढ़ (उ.प्र.) 
निधन : फरवरी 2005 अलीगढ़ (उ. प्र.) 

Saturday, September 24, 2016

चरित्रहीन.............मनोरंजन कुमार तिवारी










साँवली काया, भरा- भरा,
चेहरे पर मेहनत की चमक,
रौनक़ से लबरेज़,
व लम्बी सी सब्जीवाली,
सर पर टोकरी रखे,
घर-घर जाकर बेचती है -
मौसमी फल और सब्जियाँ,
घर के अंदर तक चली जाती है,
माँजी, चाची, दीदी, बीबीजी पुकारती,
छोटे बच्चे, उसे देखते ही झूम उठते हैं,
क्योंकि, शायद सीखा नहीं उसने,
मुस्कुराहटों का क़ीमत वसूलना,
यों ही कुछ तरबूज़ के छोटे-छोटे-टुकड़ों से,
खरीद लेती है...
टोकरी भर कर खिलखिलाहटों को।

कभी आंगन में, कभी ड्योढ़ी पर, तो
कभी उस मर्दों के बैठको में,
रखवाई जाती है, उसकी टोकरी,
वे मर्द, जो रखते है गिद्ध दृष्टि,
अपने ही मोहल्ले के रिश्ते में 
लगती बहन, बेटियों पर,
वे मर्द, जो टटोलते हैं -
अपनी नज़रों से उम्र के निशां,
अपनी ही आँखों के सामने -
पैदा हुई लड़कियों के।

वे मर्द, जो रखते है, चौकस ख़बर,
ऐसी ही किसी लड़की की
कोई छोटी, मोटी
नाज़ुक उम्र की नादानियों पर,
ताकि साबित कर चरित्रहीन,
बदनामी का डर दिखा,
बनाते हैं रास्ता,
अपनी कुत्सित, विकृत 
कामनाओं को पूरा करने का साधन।

ऐसे ही मर्द, रखवाते हैं,
टोकरी उस सब्जी वाली की,
पूछते हैं भाव,
"कितने में दोगी"
हँस कर बोलती है वह,
किलो का आठ रुपया बाबूजी,
चावल-गेहूँ से बराबर,
ठीक है, पहले टेस्ट कराओ,
माल अच्छा होगा तो...
मुँह माँगी क़ीमत वसूल लेना।

फिर हँसती है वह और,
काट कर छोटा-छोटा टुकड़े तरबूज़ पकड़ाती है,
हाथ उठाते समय,
उन नज़रों के लक्ष्य को भी बचाती है,
जानती है उन सभी शब्दों के मतलब,
फिर भी मुस्कुराती है,
शायद इसीलिये -
कुछ लोग उसे चरित्रहीन कहते हैं।

पर लोग नहीं देख पाते,
भय से आतंकित, उसके हृदय को,
उसके चेहरे को,
जो साये ढलते-ढलते- 
बनावटी हँसी, हँसते-हँसते,
थक चुके होते हैं,
और फ़िक्र से अच्छादित ,
लम्बे-लम्बे डग भरती,
अपने भूखे बच्चों
और
खेत से लौटे पति के पास,
क्षण भर में पहुँच जाने की आतुरता,
दिखती है,
इस चरित्रहीन के आँखों में।

-मनोरंजन कुमार तिवारी
manoranjan.tk@gmail.com

Friday, September 23, 2016

फल्गु के तट पर !!!!!.............सदा














फल्गु के तट पर
पिण्डदान के व़क्त पापा
बंद पलकों में आपके साथ
माँ का अक्स लिये
तर्पण की हथेलियों में
श्रद्धा के झिलमिलाते अश्कों के मध्य
मन हर बार
जाने-अंजाने अपराधों की
क्षमायाचना के साथ
पितरों का तर्पण करते हुये
नतमस्तक रहा !
...
पिण्डदान करते हुये
पापा आपके साथ
दादा का परदादा का
स्मरण तो किया ही
माँ के साथ
नानी और परनानी को
स्मरण करने पे
श्रद्धा के साथ गर्व भी हुआ
ये 'गया' धाम निश्चित ही
पूर्वजों के अतृप्त मन को
तृप्त करता होगा !!
...
रिश्तों की एक नदी
बहती है यहाँ अदृश्य होकर
जिसे अंजुरि में भरते ही
तृप्त हो जाते है
कुछ रिश्ते सदा-सदा के लिये !!!!

-सीमा सिंघल "सदा"

Thursday, September 22, 2016

मुझे दिल से पुकारा उसने.........नादिर खान


मुद्दतों बाद मुझे दिल से पुकारा उसने
धीरे धीरे ही सही खुद में उतारा उसने 

मुझको हर मोड़ पे हर रोज़ सँवारा उसने
ख़ाक था मै तो, किया मुझको सितारा उसने 

बुझ रही आग को इस दिल में जलाने के लिए
दर्द का घूँट मेरे दिल में उतारा उसने

वो तो हर  हाल में हालात से लड़ सकता था
जाने क्या बात हुयी, खुद को ही हारा उसने 

ये न मालूम था, वो इतना बादल जाएगा
बस पलटते ही मेरी पीठ पे मारा उसने

दफ्न कर बैठे थे जिस आग को बरसों पहले
फिर से सुलगा दी मुझे करके इशारा उसने

आग तो आग है इन्सां को जला देती है
बदले की आग में, बस खुद को ही मारा उसने

खेल में दाँव तो उसके थे, हर इक बार मगर
बारहा मुझको अखाड़े में उतारा उसने

उसकी आवाज़ पे लब्बैक कहा है हरदम
आज़माने के लिए जब भी पुकारा उसने

ज़ख्म ही ज़ख्म दिये हमने ज़मीं को लेकिन
अपनी बाहों का दिया सबको सहारा उसने

उसकी बातों का असर ऐसा हुआ है जैसे
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने

पुछल्ला

फिर जगाने के लिए सोयी हुयी गैरत को
इक नया दर्द मेरे दिल में उतारा उसने


http://nadirahmedkhan.blogspot.in/2016/03/blog-post.html

Wednesday, September 21, 2016

अपनी पहचान ढूँढता हूँ.......श्यामल सुमन



 तेरे प्यार में अभी तक मैं जहान ढूँढता हूँ
दीदार हो सका न क्यूँ निशान ढूँढता हूँ

जब मतलबी ये दुनिया रिश्तों से क्या है मतलब
इन मतलबों से हटकर इन्सान ढूँढता हूँ

खोया है इश्क़ में सब आगे है और खोना
ख़ुद को मिटाने वाला नादान ढूँढता हूँ

एहसास उनका सच्चा गिरकर जो सम्भलते जो
अनुभूति ऐसी अपनी पहचान ढूँढता हूँ

कभी घर था एक अपना जो मकान बन गया है
फिर से सुमन के घर में मुस्कान ढूँढता हूँ
-श्यामल सुमन
shyamalsuman@yahoo.co.in

Tuesday, September 20, 2016

अनाथ लड़की.........मुंशी प्रेमचन्द

धनपत राय श्रीवास्तव (मुंशी प्रेमचन्द)
(३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्टूबर १९३६)
अनाथ लड़की

सेठ पुरुषोत्तमदास पूना की सरस्वती पाठशाला का मुआयना करने के बाद बाहर निकले तो एक लड़की ने दौड़कर उनका दामन पकड़ लिया। सेठ जी रुक गये और मुहब्बत से उसकी तरफ देखकर पूछा—क्या नाम है?

लड़की ने जवाब दिया—रोहिणी।

सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोले—तुम्हें कुछ इनाम मिला?

लड़की ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गंभीरता से देखकर कहा—तुम चले जाते हो, मुझे रोना आता है, मुझे भी साथ लेते चलो।

सेठजी ने हँसकर कहा—मुझे बड़ी दूर जाना है, तुम कैसे चालोगी?

रोहिणी ने प्यार से उनकी गर्दन में हाथ डाल दिये और बोली—जहॉँ तुम जाओगे वहीं मैं भी चलूँगी। मैं तुम्हारी बेटी हूँगी।

मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साल भर हुआ नही रहा। मॉँ कपड़े सीती है, बड़ी मुश्किल से गुजर होती है।

सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी। यह सुनकर उनकी आँखें भर आयीं। उस भोली प्रार्थना में वह दर्द था जो पत्थर-से दिल को पिघला सकता है। बेकसी और यतीमी को इससे ज्यादा दर्दनाक ढंग से जाहिर कना नामुमकिन था। 

उन्होंने सोचा—इस नन्हें-से दिल में न जाने क्या अरमान होंगे। और लड़कियॉँ अपने खिलौने दिखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने दिया है। वह अपने बाप के साथ मदरसे आती होंगी, उसके साथ मेलों में जाती होंगी और उनकी दिलचस्पियों का जिक्र करती होंगी। यह सब बातें सुन-सुनकर इस भोली लड़की को भी ख्वाहिश होती होगी कि मेरे बाप होता। मॉँ की मुहब्बत में गहराई और आत्मिकता होती है जिसे बच्चे समझ नहीं सकते। बाप की मुहब्बत में खुशी और चाव होता है जिसे बच्चे खूब समझते हैं।

सेठ जी ने रोहिणी को प्यार से गले लगा लिया और बोले—अच्छा, मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाऊँगा। लेकिन खूब जी लगाकर पढ़ना। अब छुट्टी का वक्त आ गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हारे घर पहुँचा दूँ।

यह कहकर उन्होंने रोहिणी को अपनी मोटरकार में बिठा लिया। रोहिणी ने बड़े इत्मीनान और गर्व से अपनी सहेलियों की तरफ देखा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुशी से चमक रही थीं और चेहरा चॉँदनी रात की तरह खिला हुआ था।



सेठ ने रोहिणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से, कुछ अपनी पसन्द से बहुत-सी चीजें खरीदीं, यहॉँ तक कि रोहिणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई। उसने इतनी चीजें देखीं और इतनी बातें सुनीं कि उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोहिणी के घर पहुँचे और मोटरकार से उतरकर रोहिणी को अब कुछ आराम मिला। दरवाजा बन्द था। उसकी मॉँ किसी ग्राहक के घर कपड़े देने गयी थी। रोहिणी ने अपने तोहफों को उलटना-पलटना शुरू किया—खूबसूरत रबड़ के खिलौने, चीनी की गुड़िया जरा दबाने से चूँ-चूँ करने लगतीं और रोहिणी यह प्यारा संगीत सुनकर फूली न समाती थी। रेशमी कपड़े और रंग-बिरंगी साड़ियों की कई बण्डल थे लेकिन मखमली बूटे की गुलकारियों ने उसे खूब लुभाया था। उसे उन चीजों के पाने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा उन्हें अपनी सहेलियों को दिखाने की बेचैनी थी। सुन्दरी के जूते अच्छे सही लेकिन उनमें ऐसे फूल कहॉँ हैं। ऐसी गुड़िया उसने कभी देखी भी न होंगी। इन खयालों से उसके दिल में उमंग भर आयी और वह अपनी मोहिनी आवाज में एक गीत गाने लगी। सेठ जी दरवाजे पर खड़े इन पवित्र दृश्य का हार्दिक आनन्द उठा रहे थे। इतने में रोहिणी की मॉँ रुक्मिणी कपड़ों की एक पोटली लिये हुए आती दिखायी दी। रोहिणी ने खुशी से पागल होकर एक छलॉँग भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्मिणी का चेहरा पीला था, आँखों में हसरत और बेकसी छिपी हुई थी, गुप्त चिंता का सजीव चित्र मालूम होती थी, जिसके लिए जिंदगी में कोई सहारा नहीं।

मगर रोहिणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चूमा मो जरा देर के लिए उसकी ऑंखों में उन्मीद और जिंदगी की झलक दिखायी दी। मुरझाया हुआ फूल खिल गया। बोली—आज तू इतनी देर तक कहॉँ रही, मैं तुझे ढूँढ़ने पाठशाला गयी थी।

रोहिणी ने हुमककर कहा—मैं मोटरकार पर बैठकर बाजार गयी थी। वहॉँ से बहुत अच्छी-अच्छी चीजें लायी हूँ। वह देखो कौन खड़ा है?

मॉँ ने सेठ जी की तरफ ताका और लजाकर सिर झुका लिया।

बरामदे में पहुँचते ही रोहिणी मॉँ की गोद से उतरकर सेठजी के पास गयी और अपनी मॉँ को यकीन दिलाने के लिए भोलेपन से बोली—क्यों, तुम मेरे बाप हो न?

सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—हॉँ, तुम मेरी प्यारी बेटी हो।

रोहिणी ने उनसे मुंह की तरफ याचना-भरी आँखों से देखकर कहा—अब तुम रोज यहीं रहा करोगे?

सेठ जी ने उसके बाल सुलझाकर जवाब दिया—मैं यहॉँ रहूँगा तो काम कौन करेगा? मैं कभी-कभी तुम्हें देखने आया करूँगा, लेकिन वहॉँ से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें भेजूँगा।

रोहिणी कुछ उदास-सी हो गयी। इतने में उसकी मॉँ ने मकान का दरवाजा खोला ओर बड़ी फुर्ती से मैले बिछावन और फटे हुए कपड़े समेट कर कोने में डाल दिये कि कहीं सेठ जी की निगाह उन पर न पड़ जाए। यह स्वाभिमान स्त्रियों की खास अपनी चीज है।

रुक्मिणी अब इस सोच में पड़ी थी कि मैं इनकी क्या खातिर-तवाजो करूँ। उसने सेठ जी का नाम सुना था, उसका पति हमेशा उनकी बड़ाई किया करता था। वह उनकी दया और उदारता की चर्चाएँ अनेकों बार सुन चुकी थी। वह उन्हें अपने मन का देवता समझा कतरी थी, उसे क्या उमीद थी कि कभी उसका घर भी उसके कदमों से रोशन होगा। लेकिन आज जब वह शुभ दिन संयोग से आया तो वह इस काबिल भी नहीं कि उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके। घर में पान और इलायची भी नहीं। वह अपने आँसुओं को किसी तरह न रोक सकी।

आखिर जब अंधेरा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाड़ों की आवाजें आने लगीं तो उन्होंने जरा ऊँची आवाज में कहा—बाईजी, अब मैं जाता हूँ। मुझे अभी यहॉँ बहुत काम करना है। मेरी रोहिणी को कोई तकलीफ न हो। मुझे जब मौका मिलेगा, उसे देखने आऊँगा। उसके पालने-पोसने का काम मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से पूरा करूँगा। उसके लिए अब तुम कोई फिक्र मत करो। मैंने उसका वजीफा बॉँध दिया है और यह उसकी पहली किस्त है।

यह कहकर उन्होंने अपना खूबसूरत बटुआ निकाला और रुक्मिणी के सामने रख दिया। गरीब औरत की आँखें में आँसू जारी थे। उसका जी बरबस चाहता था कि उसके पैरों को पकड़कर खूब रोये। आज बहुत दिनों के बाद एक सच्चे हमदर्द की आवाज उसके मन में आयी थी।

जब सेठ जी चले तो उसने दोनों हाथों से प्रणाम किया। उसके हृदय की गहराइयों से प्रार्थना निकली—आपने एक बेबस पर दया की है, ईश्वर आपको इसका बदला दे।

दूसरे दिन रोहिणी पाठशाला गई तो उसकी बॉँकी सज-धज आँखों में खुबी जाती थी। उस्तानियों ने उसे बारी-बारी प्यार किया और उसकी सहेलियॉँ उसकी एक-एक चीज को आश्चर्य से देखती और ललचाती थी। अच्छे कपड़ों से कुछ स्वाभिमान का अनुभव होता है। आज रोहिणी वह गरीब लड़की न रही जो दूसरों की तरफ विवश नेत्रों से देखा करती थी। आज उसकी एक-एक क्रिया से शैशवोचित गर्व और चंचलता टपकती थी और उसकी जबान एक दम के लिए भी न रुकती थी। कभी मोटर की तेजी का जिक्र था कभी बाजार की दिलचस्पियों का बयान, कभी अपनी गुड़ियों के कुशल-मंगल की चर्चा थी और कभी अपने बाप की मुहब्बत की दास्तान। दिल था कि उमंगों से भरा हुआ था।

एक महीने बाद सेठ पुरुषोत्तमदास ने रोहिणी के लिए फिर तोहफे और रुपये रवाना किये। बेचारी विधवा को उनकी कृपा से जीविका की चिन्ता से छुट्टी मिली। वह भी रोहिणी के साथ पाठशाला आती और दोनों मॉँ-बेटियॉँ एक ही दरजे के साथ-साथ पढ़तीं, लेकिन रोहिणी का नम्बर हमेशा मॉँ से अव्वल रहा सेठ जी जब पूना की तरफ से निकलते तो रोहिणी को देखने जरूर आते और उनका आगमन उसकी प्रसन्नता और मनोरंजन के लिए महीनों का सामान इकट्ठा कर देता।

इसी तरह कई साल गुजर गये और रोहिणी ने जवानी के सुहाने हरे-भरे मैदान में पैर रक्खा, जबकि बचपन की भोली-भाली अदाओं में एक खास मतलब और इरादों का दखल हो जाता है।

रोहिणी अब आन्तरिक और बाह्य सौन्दर्य में अपनी पाठशाला की नाक थी। हाव-भाव में आकर्षक गम्भीरता, बातों में गीत का-सा खिंचाव और गीत का-सा आत्मिक रस था। कपड़ों में रंगीन सादगी, आँखों में लाज-संकोच, विचारों में पवित्रता। जवानी थी मगर घमण्ड और बनावट और चंचलता से मुक्त। उसमें एक एकाग्रता थी ऊँचे इरादों से पैदा होती है। स्त्रियोचित उत्कर्ष की मंजिलें वह धीरे-धीरे तय करती चली जाती थी। 



सेठ जी के बड़े बेटे नरोत्तमदास कई साल तक अमेरिका और जर्मनी की युनिवर्सिटियों की खाक छानने के बाद इंजीनियरिंग विभाग में कमाल हासिल करके वापस आए थे। अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित कालेज में उन्होंने सम्मान का पद प्राप्त किया था। अमेरिका के अखबार एक हिन्दोस्तानी नौजवान की इस शानदार कामयाबी पर चकित थे। उन्हीं का स्वागत करने के लिए बम्बई में एक बड़ा जलसा किया गया था। इस उत्सव में शरीक होने के लिए लोग दूर-दूर से आए थे। सरस्वती पाठशाला को भी निमंत्रण मिला और रोहिणी को सेठानी जी ने विशेष रूप से आमंत्रित किया। पाठशाला में हफ्तों तैयारियॉँ हुई। रोहिणी को एक दम के लिए भी चैन न था। यह पहला मौका था कि उसने अपने लिए बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े बनवाये। रंगों के चुनाव में वह मिठास थी, काट-छॉँट में वह फबन जिससे उसकी सुन्दरता चमक उठी। सेठानी कौशल्या देवी उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन पर मौजूद थीं। रोहिणी गाड़ी से उतरते ही उनके पैरों की तरफ झुकी लेकिन उन्होंने उसे छाती से लगा लिया और इस तरह प्यार किया कि जैसे वह उनकी बेटी है। वह उसे बार-बार देखती थीं और आँखों से गर्व और प्रेम टपक पड़ता था।

इस जलसे के लिए ठीक समुन्दर के किनारे एक हरे-भरे सुहाने मैदान में एक लम्बा-चौड़ा शामियाना लगाया गया था। एक तरफ आदमियों का समुद्र उमड़ा हुआ था दूसरी तरफ समुद्र की लहरें उमड़ रही थीं, गोया वह भी इस खुशी में शरीक थीं।

जब उपस्थित लोगों ने रोहिणी बाई के आने की खबर सुनी तो हजारों आदमी उसे देखने के लिए खड़े हो गए। यही तो वह लड़की है। जिसने अबकी शास्त्री की परीक्षा पास की है। जरा उसके दर्शन करने चाहिये। अब भी इस देश की स्त्रियों में ऐसे रतन मौजूद हैं। भोले-भाले देशप्रेमियों में इस तरह की बातें होने लगीं। शहर की कई प्रतिष्ठित महिलाओं ने आकर रोहिणी को गले लगाया और आपस में उसके सौन्दर्य और उसके कपड़ों की चर्चा होने लगी।

आखिर मिस्टर पुरुषोत्तमदास तशरीफ लाए। हालॉँकि वह बड़ा शिष्ट और गम्भीर उत्सव था लेकिन उस वक्त दर्शन की उत्कंठा पागलपन की हद तक जा पहुँची थी। एक भगदड़-सी मच गई। कुर्सियों की कतारे गड़बड़ हो गईं। कोई कुर्सी पर खड़ा हुआ, कोई उसके हत्थों पर। कुछ मनचले लोगों ने शामियाने की रस्सियॉँ पकड़ीं और उन पर जा लटके कई मिनट तक यही तूफान मचा रहा। कहीं कुर्सियां टूटीं, कहीं कुर्सियॉँ उलटीं, कोई किसी के ऊपर गिरा, कोई नीचे। ज्यादा तेज लोगों में धौल-धप्पा होने लगा।

तब बीन की सुहानी आवाजें आने लगीं। रोहिणी ने अपनी मण्डली के साथ देशप्रेम में डूबा हुआ गीत शुरू किया। सारे उपस्थित लोग बिलकुल शान्त थे और उस समय वह सुरीला राग, उसकी कोमलता और स्वच्छता, उसकी प्रभावशाली मधुरता, उसकी उत्साह भरी वाणी दिलों पर वह नशा-सा पैदा कर रही थी जिससे प्रेम की लहरें उठती हैं, जो दिल से बुराइयों को मिटाता है और उससे जिन्दगी की हमेशा याद रहने वाली यादगारें पैदा हो जाती हैं। गीत बन्द होने पर तारीफ की एक आवाज न आई। वहीं ताने कानों में अब तक गूँज रही थीं।

गाने के बाद विभिन्न संस्थाओं की तरफ से अभिनन्दन पेश हुए और तब नरोत्तमदास लोगों को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। लेकिन उनके भाषाण से लोगों को थोड़ी निराशा हुई। यों दोस्तो की मण्डली में उनकी वक्तृता के आवेग और प्रवाह की कोई सीमा न थी लेकिन सार्वजनिक सभा के सामने खड़े होते ही शब्द और विचार दोनों ही उनसे बेवफाई कर जाते थे। उन्होंने बड़ी-बड़ी मुश्किल से धन्यवाद के कुछ शब्द कहे और तब अपनी योग्यता की लज्जित स्वीकृति के साथ अपनी जगह पर आ बैठे। कितने ही लोग उनकी योग्यता पर ज्ञानियों की तरह सिर हिलाने लगे।

अब जलसा खत्म होने का वक्त आया। वह रेशमी हार जो सरस्वती पाठशाला की ओर से भेजा गया था, मेज पर रखा हुआ था। उसे हीरो के गले में कौन डाले? प्रेसिडेण्ट ने महिलाओं की पंक्ति की ओर नजर दौड़ाई। चुनने वाली आँख रोहिणी पर पड़ी और ठहर गई। उसकी छाती धड़कने लगी। लेकिन उत्सव के सभापति के आदेश का पालन आवश्यक था। वह सर झुकाये हुए मेज के पास आयी और कॉँपते हाथों से हार को उठा लिया। एक क्षण के लिए दोनों की आँखें मिलीं और रोहिणी ने नरोत्तमदास के गले में हार डाल दिया।

दूसरे दिन सरस्वती पाठशाला के मेहमान विदा हुए लेकिन कौशल्या देवी ने रोहिणी को न जाने दिया। बोली—अभी तुम्हें देखने से जी नहीं भरा, तुम्हें यहॉँ एक हफ्ता रहना होगा। आखिर मैं भी तो तुम्हारी मॉँ हूँ। एक मॉँ से इतना प्यार और दूसरी मॉँ से इतना अलगाव!

रोहिणी कुछ जवाब न दे सकी।

यह सारा हफ्ता कौशल्या देवी ने उसकी विदाई की तैयारियों में खर्च किया। सातवें दिन उसे विदा करने के लिए स्टेशन तक आयीं। चलते वक्त उससे गले मिलीं और बहुत कोशिश करने पर भी आँसुओं को न रोक सकीं। नरोत्तमदास भी आये थे। उनका चेहरा उदास था। कौशल्या ने उनकी तरफ सहानुभूतिपूर्ण आँखों से देखकर कहा—मुझे यह तो ख्याल ही न रहा, रोहिणी क्या यहॉँ से पूना तक अकेली जायेगी? क्या हर्ज है, तुम्हीं चले जाओ, शाम की गाड़ी से लौट आना।

नरोत्तमदास के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी, जो इन शब्दों में न छिप सकी—अच्छा, मैं ही चला जाऊँगा। वह इस फिक्र में थे कि देखें बिदाई की बातचीत का मौका भी मिलता है या नहीं। अब वह खूब जी भरकर अपना दर्दे दिल सुनायेंगे और मुमकिन हुआ तो उस लाज-संकोच को, जो उदासीनता के परदे में छिपी हुई है, मिटा देंगे।



रुक्मिणी को अब रोहिणी की शादी की फिक्र पैदा हुई। पड़ोस की औरतों में इसकी चर्चा होने लगी थी। लड़की इतनी सयानी हो गयी है, अब क्या बुढ़ापे में ब्याह होगा? कई जगह से बात आयी, उनमें कुछ बड़े प्रतिष्ठित घराने थे। लेकिन जब रुक्मिणी उन पैमानों को सेठजी के पास भेजती तो वे यही जवाब देते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। रुक्मिणी को उनकी यह टाल-मटोल बुरी मालूम होती थी।

रोहिणी को बम्बई से लौटे महीना भर हो चुका था। एक दिन वह पाठशाला से लौटी तो उसे अम्मा की चारपाई पर एक खत पड़ा हुआ मिला। रोहिणी पढ़ने लगी, लिखा था—बहन, जब से मैंने तुम्हारी लड़की को बम्बई में देखा है, मैं उस पर रीझ गई हूँ। अब उसके बगैर मुझे चैन नहीं है। क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा कि वह मेरी बहू बन सके? मैं गरीब हूँ लेकिन मैंने सेठ जी को राजी कर लिया है। तुम भी मेरी यह विनती कबूल करो। मैं तुम्हारी लड़की को चाहे फूलों की सेज पर न सुला सकूँ, लेकिन इस घर का एक-एक आदमी उसे आँखों की पुतली बनाकर रखेगा। अब रहा लड़का। मॉँ के मुँह से लड़के का बखान कुछ अच्छा नहीं मालूम होता। लेकिन यह कह सकती हूँ कि परमात्मा ने यह जोड़ी अपनी हाथों बनायी है। सूरत में, स्वभाव में, विद्या में, हर दृष्टि से वह रोहिणी के योग्य है। तुम जैसे चाहे अपना इत्मीनान कर सकती हो। जवाब जल्द देना और ज्यादा क्या लिखूँ। नीचे थोड़े-से शब्दों में सेठजी ने उस पैगाम की सिफारिश की थी।

रोहिणी गालों पर हाथ रखकर सोचने लगी। नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई। उनकी वह प्रेम की बातें, जिनका सिलसिला बम्बई से पूना तक नहीं टूटा था, कानों में गूंजने लगीं। उसने एक ठण्डी सॉँस ली और उदास होकर चारपाई पर लेट गई।

5

सरस्वती पाठशाला में एक बार फिर सजावट और सफाई के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। आज रोहिणी की शादी का शुभ दिन। शाम का वक्त, बसन्त का सुहाना मौसम। पाठशाला के दारो-दीवार मुस्करा रहे हैं और हरा-भरा बगीचा फूला नहीं समाता।

चन्द्रमा अपनी बारात लेकर पूरब की तरफ से निकला। उसी वक्त मंगलाचरण का सुहाना राग उस रूपहली चॉँदनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में लहरें मारने लगा। दूल्हा आया, उसे देखते ही लोग हैरत में आ गए। यह नरोत्तमदास थे।

दूल्हा मण्डप के नीचे गया। रोहिणी की मॉँ अपने को रोक न सकी, उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैर पर गिर पड़ी। रोहिणी की आँखों से प्रेम और आन्दद के आँसू बहने लगे।

मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना था। हवन शुरू हुआ, खुशबू की लपेटें हवा में उठीं और सारा मैदान महक गया। लोगों के दिलो-दिमाग में ताजगी की उमंग पैदा हुई।

फिर संस्कार की बारी आई। दूल्हा और दुल्हन ने आपस में हमदर्दी; जिम्मेदारी और वफादारी के पवित्र शब्द अपनी जबानों से कहे। विवाह की वह मुबारक जंजीर गले में पड़ी जिसमें वजन है, सख्ती है, पाबन्दियॉँ हैं लेकिन वजन के साथ सुख और पाबन्दियों के साथ विश्वास है। दोनों दिलों में उस वक्त एक नयी, बलवान, आत्मिक शक्ति की अनुभूति हो रही थी।
जब शादी की रस्में खत्म हो गयीं तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया। मोहक गीत गूँजने लगे। सेठ जी थककर चूर हो गए थे। जरा दम लेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये। ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही आ रही थी। एक नशा-सा पैदा करने वाली शान्ति चारों तरफ छायी हुई थी। उसी वक्त रोहिणी उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी। सेठ जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और हँसकर बोले—क्यों, अब तो तुम मेरी अपनी बेटी हो गयीं?

-- जमाना, जून १९१४
http://premchand.kahaani.org/2009/12/anaath-ladki.html

Monday, September 19, 2016

बेवफ़ा से ही पूछ बैठे "ख़याल".........सतपाल ख़याल


हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है?
क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है?

किसने जाना है, जो तू जानेगा
क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है?

दर-बदर खाक़ छानते हो तुम
इतना भटके हो पर मिला क्या है?

खोज लेंगे अगर बताए कोई
उसके घर का मगर पता क्या है?

एक अर्जी खुशी की दी थी उसे
उस गुज़ारिश का फिर हुआ क्या है?

हम ग़रीबों को ही सतायेगी
ज़िंदगी ये तेरी अदा क्या है?

मुस्कुरा कर विदाई दे मुझको
वक़्ते-आखिर है , सोचता क्या है?

दर्द पर तबसिरा किया उसने
हमने पूछा था बस दवा क्या है?

बेवफ़ा से ही पूछ बैठे "ख़याल"
क्या बताये वो अब वफ़ा क्या है?

http://aajkeeghazal.blogspot.in/2016/09/blog-post.html

Sunday, September 18, 2016

आसान नहीं होता.......इन्दु रवि सिंह
















मर जाना सबसे आसान है
लोग कहते हैं
लेकिन  
मरने की
चाह रखना
भले आसान हो
मर जाना 
कतई आसान नहीं होता ।
कैसे मरुँ
कि कष्ट भी कम हो
और मर जाऊँ !
ज़रा सोचिये
ये मनःस्थिति
कैसे 
मर पाता होगा कोई
वो घुटन वो दर्द 
वो तकलीफ़
हर कोई नहीं सह सकता
मर जाना, आसान
कतई नहीं होता ....
-इन्दु रवि सिंह

 http://wp.me/p1EXDq-ne

Saturday, September 17, 2016

किसी से न कहना.........डॉ. विजय कुमार सुखवानी


कहाँ गुज़ारा दिन कहाँ रात किसी से न कहना
यहाँ कोई राज़ की बात किसी से न कहना

बड़े तंगदिल हैं लोग इक पल में बदल जायेंगे
अपना मज़हब अपनी ज़ात किसी से न कहना

कौन है दोस्त कौन दुश्मन कहना मुश्किल है
खुलकर अपने ज़ज़्बात किसी से न कहना

अपनी जीत की तो जम कर मुनादी करो मगर
कब हुई शह कब हुई मात किसी से न कहना

तुम्हारी ताक़त का किसी को भी अंदाज़ा न लगे
कौन है ख़िलाफ़ कौन साथ किसी से न कहना

कोई तो शरीक ए दर्द भी ज़रूरी है ज़िंदगी में
अच्छा नहीं यूँ दर्द ए हयात किसी से न कहना

इन आँखों के मौसम आँखों में छुपा कर रखना
कब हुआ सूखा कब बरसात किसी से न कहना

-डॉ. विजय कुमार सुखवानी

Friday, September 16, 2016

अनुपस्थिति ....... कुमार अनुपम





















यहां
तुम नहीं हो

तुम्हारी अनुपस्थिति के बराबर
सूनापन है विचित्र आवाजों से सरोबार
धान की हरी-हरी आभा
और महक है
मानसून की पहली फुहार की छुवन
और रस है

तुम नहीं हो यहां
तुम्हारी अनुपस्थिति है।

.......

नाम

जिस नाम से पुकारकर
मां थमा देती थी उसे सामान का खर्रा
मित्र उस नाम से अनजान थे

मित्र उसे ही समझते थे वास्तविक नाम
महिम तुक पुकारने पर जिसका
वह फांद आता था दीवार

एक नाम उसका
पहचान की पुस्तक-सा
खुला रहता था जिसकी भाषा
नहीं समझती थी उसकी प्रेमिका

जिस नाम से अठखेलियां करती थी उसकी प्रेमिका
वह अन्य सबके लिए हास्यापद ही था

इस तरह
सबके हिस्से में
हंसी बांटने की भरसक कोशिश करता डाकिए-सा
जब हो जाता था पसीना-पसीना
वह खोल देता था अपने जूते
अपनी आंखें मूंदकर
कुछ देर सोचता था-
अपने नामों और अपने विषय में
हालांकि ऐसा कम ही मिलता था एकांत।

-कुमार अनुपम  

Tuesday, September 13, 2016

वादा करो मुहब्बत का.......कुँवर कुसुमेश


हो सके , ऐतबार कर लेना। 
और तुम मुझसे प्यार कर लेना।

पहले वादा करो मुहब्बत का ,
फिर गिले तुम हज़ार कर लेना।

तुमको पाने का एक मतलब है,
ज़िन्दगी खुशगवार कर लेना।

रात-दिन तुमको याद करता हूँ ,
खुद को भी महवे-यार कर लेना।

अपने दामन में रौशनी भर लो,
कुछ सितारे शुमार कर लेना।

सात जन्मों का साथ हो अपना,
इस तरह का क़रार कर लेना।

देर हो जाए गर "कुँवर" मुझको,
दो घडी इंतज़ार कर लेना।

-कुँवर कुसुमेश 

महवे-यार = यार के ख्यालों में तल्लीन

Monday, September 12, 2016

गहरे जल में झट लै जाय............रमेशराज

कहमुकरियाँ
..........................

बात बताऊँ आये लाज, 
गजब भयौ सँग मेरे आज
मेरी चूनर भागा छीन, 
क्या सखि साजन? 
ना सखि बाज।

सखि मैं गेरी पकरि धड़ाम, 
परौ तुरत ये नीला चाम
निकली मुँह से हाये राम, 
सैंया? नहीं गिरी थी गाज।

कहाँ चैन से सोबन देतु, 
पल-पल इन प्रानों को लेतु ,
बोवै काँटे मेरे हेतु, 
क्या सखि साजन? 
नहीं समाज।

बिन झूला के खूब झुलाय, 
गहरे जल में झट लै जाय
खुद भी हिचकोले-से खाय, 
क्या सखि साजन? 
नहीं जहाज।

-रमेशराज, तेवरीकार
अलीगढ़

रमेश राज जी की कहमुकरियाँ
शब्द वही
अर्थ वही
पर प्रस्तुति का
ढंग नया
सादर

Sunday, September 11, 2016

एक माँ ही है जिसके प्यार में ना मिलावट काेई...विमल गांधी



दुनिया देखी लाेग देखे।
राक्षस देखे फ़रिश्ते देखे।

रिश्ते देखे दोस्त देखे।
हर कही पर मिलावट देखी।

अलग अलग रंगो के फूल देखे।
एक माँ ही है जो देती है सब सुख 
उसके प्यार मे ना मिलावट।

ना कभी चेहरे पे शिकायत देखी।
बाकि तो सबके साथ अच्छा करने 
पर भी हर बार शिकायत देखी।
विमल गांधी

Wednesday, September 7, 2016

ये दुनिया किसी के बगैर अधूरी नहीं होती...डॉ. विजय कुमार सुखवानी



इन्सान की हर ख्वाहिश पूरी नहीं होती
हर अर्ज़ी की किस्मत में मंजूरी नहीं होती

कौन कहता है फ़ासले दूरी से होते हैं
फ़ासले वहीं होते हैं जहाँ दूरी नहीं होती

दुनियादारी के फैसले तो ज़ेहन से होते हैं
इनमें दिल की रजामंदी ज़रूरी नहीं होती

बेवफ़ाई कुछ लोगों की फितरत होती है
हर बेवफ़ाई के पीछे मजबूरी नहीं होती

वो लोग नाकाम रहते हैं दुनिया में अक्सर
जिनसे मेहनत तो होती है जीहजूरी नहीं होती

ये भरम है कि हमीं से मुकम्मल है दुनिया
ये दुनिया किसी के बगैर अधूरी नहीं होती
-डॉ. विजय कुमार सुखवानी

Tuesday, September 6, 2016

मैं मुक्त हूँ !!!..सीमा सदा सिंघल

मैं मुक्त हूँ !!!
+++++++++

मैं धरोहर हूँ तुम्हारी
निःसंकोच हो तुम 
करो मेरी बात
मुक्ति की अभिलाषा
ना कल मुझमें थी
ना आज है ना आगे होगी
मैं ठहरता नहीं
ये और बात है
गत..विगत..आगत के
हर एक क्षण में
समाहित मैं
एक उत्सव की तरह
जो अपना ले सो अपना ले
मिथ्या अभिमान से 
परे मैं बस जीता हूँ
क्षण-प्रति-क्षण में !!!

....

मैं मुक्त हूँ 
सर्वबंधनों से
चाहो तो परख लो
बांधकर मुझे
या फ़िर अपना लो 
जिस रूप मैं मिलूँ 
मैं तुम्हारा हो जाऊँगा !!!

-सीमा 'सदा' सिंघल

Monday, September 5, 2016

इसलिए मै टूट गया …..फेसबुक


एक राजमहल में कामवाली और उसका बेटा काम करते थे!
एक दिन राजमहल में कामवाली के बेटे को हीरा मिलता है।
वो माँ को बताता है….
कामवाली होशियारी से वो हीरा बाहर फेककर कहती है ये कांच है हीरा नहीं…..
कामवाली घर जाते वक्त चुपके से वो हीरा उठाके ले जाती है।
वह सुनार के पास जाती है…
सुनार समझ जाता है इसको कही मिला होगा,
ये असली या नकली पता नही इसलिए पूछने आ गई.
सुनार भी होशियारी से वो हीरा बाहर फेंक कर कहता है!! 
ये कांच है हीरा नहीं।
कामवाली लौट जाती है। सुनार वो हीरा चुपके सेे उठाकर जौहरी के पास ले जाता है,
जौहरी हीरा पहचान लेता है।
अनमोल हीरा देखकर उसकी नियत बदल जाती है।
वो भी हीरा बाहर फेंक कर कहता है ये कांच है हीरा नहीं।
जैसे ही जौहरी हीरा बाहर फेंकता है…उसके टुकडे टुकडे हो जाते है…
यह सब एक राहगीर निहार रहा था…वह हीरे के पास जाकर पूछता है…
कामवाली और सुनार ने दो बार तुम्हे फेंका…तब तो तूम नही टूटे…
फिर अब कैसे टूटे? हीरा बोला….
कामवाली और सुनार ने दो बार मुझे फेंका
क्योंकि…वो मेरी असलियत से अनजान थे।
लेकिन….जौहरी तो मेरी असलियत जानता था…
तब भी उसने मुझे बाहर फेंक दिया…यह दुःख मै सहन न कर सका…
इसलिए मै टूट गया …..

ऐसा ही…
हम मनुष्यों के साथ भी होता है !!!
जो लोग आपको जानते है,
उसके बावजूद भी आपका दिल दुःखाते है
तब यह बात आप सहन नही कर पाते….!
इसलिए….
कभी भी अपने स्वार्थ के लिए करीबियों का दिल ना तोड़ें…!!
हमारे आसपास भी… बहुत से लोग… हीरे जैसे होते है !
उनकी दिल और भावनाओं को .. कभी भी न दुखाएं…
और ना ही… उनके अच्छे गुणों के टुकड़े करिये…!!

फेसबुक, हंसमुख जी के वाल से