Thursday, May 31, 2018

किनारे पर खड़ा क्या सोचता है.....अखिल भण्डारी

किनारे पर खड़ा क्या सोचता है 
समुंदर दूर तक फैला हुआ है 

ज़मीं पैरों से निकली जा रही है 
सितारों की तरफ़ क्या देखता है 

चलो अब ढूँढ लें हम कारवाँ इक 
बड़ी मुश्किल से ये रस्ता मिला है 

हमें तो खींच लाई है मुहब्बत
तुम्हारा शहर तो देखा हुआ है 

नये कपड़े पहन के जा रहे हो 
वहाँ कीचड़ उछाला जा रहा है 

वहाँ तो बारिशें ही बारिशें हैं 
यहाँ कोई बदन जलता रहा है 

कभी उस को भी थी मुझ से मुहब्बत 
ये क़िस्सा अब पुराना हो चुका है 

बुरे दिन हैं सभी मुँह मोड़ लेंगे 
“ज़माने में यही होता रहा है”
- अखिल भण्डारी

Wednesday, May 30, 2018

मौन.....श्वेता मिश्र

मौन मुखर प्रश्न मेरे 
उत्तर विमुख हुए जाते हैं
स्याह सी रात के साए
आ उन्हें सुलाते हैं 

नदिया चुप सी बहती है
चाँदनी मौन में निखरती है
अंतर्मन के उथल पुथल में
मौन रच बस मचलती है 

मन का कोलाहल
प्रखर हो जाता है
मौन का बसेरा मन
जब पता है 
गहरा समुद्र भी
कभी कभी मौन
हो जाता है 
एकांकी हो कर भी
चाँद सभी का कहलाता है
-श्वेता मिश्र

Tuesday, May 29, 2018

ओ पेड़....ललित कुमार

इस रचना में सूखे पेड़ की निश्चलता का वर्णन है। किस तरह यह अचल वृक्ष तमाम उम्र अपने चारों ओर होती गतिविधियों को देखता रहता है। गतिमान संसार में उसके करीब से तो लोग ग़ुज़रते हैं -लेकिन उसका अपना कोई नहीं होता।



ओ पेड़
मैं समझ सकता हूँ
तुम्हारी विवशता को
लेकिन बस कुछ हद तक
किसी का दर्द, किसी की विवशता
कोई दूसरा कहाँ आंक सकता है
लोग लगा सकते हैं बस अनुमान
गहरी हताशा भरे किसी के अंतर में
कोई दूसरा कहाँ झांक सकता है

धरती इतनी विशाल है लेकिन
जन्मते ही नियती ने
बस दो-चार गज़ माटी से
तुम्हें बांध दिया
तब से तुम बरसों-बरस
अपने सीमित क्षितिज को
यूं ही निहारने पर विवश हो
क्यूँ कर नहीं चल सकते तुम भी
बस यही विचारने को विवश को

पास खेलते बच्चों की गेंद
जब करीब आ गिरती है
तो तुम्हारे मन के पांव उठते हैं
कि तुम लपक कर गेंद उठाओ
और बच्चों की ओर उछाल दो
लेकिन मन के पांवों से
ना शरीर चलता है
और ना ही मन के हाथों से
गेंद उठती है
ज़मीन के भीतर गड़ी
अपनी जड़ों को तुम खींचते तो होंगे
पर आशा और विश्वास का बल
गति में परिवर्तित न होता होगा
धरती चाहे जितनी बड़ी हो
पर तुम्हारे लिये तो गज़ दो-चार
बस यही तुम्हारा है घर-बार
सूरज के निकलने से
सूरज के ढलने तक
जीवन के बनने से
जीवन के बिखरने तक
बस यही तुम्हारा है संसार
ये माटी जो है गज़ दो-चार

मैं समझ सकता हूँ
तुम्हारी एकाकी पीड़ा को
तुम किसी-से अपनेपन का
बंधन भी नहीं बांध सकते
विश्व तो गतिमय है
लोग आते हैं, तुमसे नाते बनाते हैं
फिर छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं
तुम इस निरन्तर चलती दुनिया में
उनके साथ, उनके जैसे नहीं चल पाते
तो वे भी तुम्हारे पास क्यूँ रुकें ?
बस यही सोच कर तुम
ख़ुद को समझाते हो
पर आखिर में तुम
अकेले ही रह जाते हो

हाँ मैं समझ सकता हूँ
ओ पेड़
ललित कुमार
14 जनवरी 2009

मूल रचना


Monday, May 28, 2018

ये कैसा संगीत रहा है....ललित कुमार

मैं बीत रहा हूँ प्रतिपल
मेरा जीवन बीत रहा है
पल-पल के रिसते जाने से
जीवन-पात्र रीत रहा है
उसको पाने की ख़ातिर तो
खुद से भी मैं बिछड़ चुका हूँ
मिला नहीं क्यों अब तक मुझको
जो मेरा मनमीत रहा है

पता नहीं खुशी का अंकुर
कब झाँकेगा बाहर इससे
विश्वास का माली बरसों से
मन-भूमि को सींच रहा है

उठे दर्द की तरंगो-सा
गिरे ज्यों आँसू की हो बूँद
मेरे जीवन-वाद्य पर बजता
ये कैसा संगीत रहा है!

विजेता मेरे हृदय की तुम
उल्लास में पर ये ना भूलो
कोई हृदय को हार रहा है
तभी तो कोई जीत रहा है

समझा नहीं पाया तुमसे
कितना प्यार रहा है मुझको
नाम तुम्हारा ही पुकारता
मेरा हर इक गीत रहा है

मैं बीत रहा हूँ प्रतिपल
मेरा जीवन बीत रहा है…
-ललित कुमार

Sunday, May 27, 2018

सोचिये अगली सदी को देंगे क्या....रवीन्द्र प्रभात

कांच के जज्बात, हिम्मत कांच की
यार ये कैसी है इज्जत कांच की ?

पालते हैं खोखले आदर्श हम-
माँगते हैं लोग मन्नत कांच की

पत्थरों के शहर में महफूज़ है-
देखिये अपनी भी किस्मत कांच की

चुभ गया आँखों में मंजर कांच का-
दब गयी पाने की हसरत कांच की

सोचिये अगली सदी को देंगे क्या
रंगीनियाँ या कोई जन्नत कांच की ?
- रवीन्द्र प्रभात  

Saturday, May 26, 2018

अगन बरसती आसमां से....कुसुम कोठारी

अगन बरसती आसमां से जाने क्या क्या झुलसेगा
ज़मीं तो ज़मीं खुद तपिश से आसमां भी झुलसेगा

जा ओ जेठ मास समंदर में एक दो डुबकी लगा
जिस्म तेरा काला हुवा खुद तू भी अब झुलसेगा

ओढ़ के ओढ़नी रेत की  पसरेगा तू बता कहां 
यूं बेदर्दी से जलता रहा तो सारा संसार झुलसेगा

देख आ एक बार किसानों की जलती आंखों में
उजड़ी हुई फसल में उनका सारा जहाँ झुलसेगा

प्यासे पाखी प्यासी धरती प्यासे मूक पशु बेबस
सूरज दावानल बरसाता तपिश से चांद झुलसेगा 

ना इतरा अपनी जेष्ठता पर समय का दास है तू
घिर आई सावन घटाऐं फिर भूत बन तू झुलसेगा।
 -कुसुम कोठारी


Friday, May 25, 2018

चकल्लस...लक्ष्मीनारायण गुप्त

कभी सोचता हूँ
यह सारी चकल्लस
छोड़के दुनिया से
संन्यास ले लूँ

लेकिन क्या इससे
कोई फरक पड़ेगा
संन्यासी अपनी पुरानी
अस्मिता को नकार देता है
अपना ही श्राद्ध कर देता है

लेकिन फिर नया नाम लेता है
नई अस्मिता शुरू करता है
और वही मुसीबतें
वही चकल्लस फिर 
शुरू हो जाती हैं

पहले लाला सोहनलाल को
अपनी दूकान चलानी होती थी
अब सोहनानंद भारती को
अपना आश्रम चलाना होता है

जब तक ज़िन्दगी है
तब तक चकल्लस भी है
इस लिए जो भी कर रहे हो
करते रहो, करते रहो


-लक्ष्मीनारायण गुप्त
—-२२ मई, २०१८

Thursday, May 24, 2018

जेठ की तपिश.....श्वेता सिन्हा

चित्र:-मनस्वी प्रांजल


त्रिलोकी के नेत्र खुले जब
अवनि अग्निकुंड बन जाती 
वृक्ष सिकुड़कर छाँह को तरसे
नभ कंटक किरणें बरसाती
बदरी बरखा को ललचाती  
जब जेठ की तपिश तपाती 

उमस से प्राण उबलता पल-पल
लू की लक-लक दिल लहकाती
मन के ठूँठ डालों पर झूमकर 
स्मृतियाँ विहृ्वल कर जाती 
पीड़ा दुपहरी कहराती 
जब जेठ की तपिश तपाती 

प्यासी  नदियां,निर्जन गुमसुम
घूँट-घूँँट जल आस लगाए
चिचियाए खग व्याकुल चीं-चीं
पवन झकोरे  आग लगाए
कलियाँ दिनभर में मुरझाती 
जब जेठ की तपिश तपाती 
  
   #श्वेता सिन्हा

Wednesday, May 23, 2018

मुझे बचपन की कुछ यादें.....रईस अमरोहवीं



तिरा ख़याल कि ख़वाबों में जिन से है ख़ुशबू 
वो ख़्वाब जिन में मिरा पैकर-ए-ख़याल है तू। 

सता रही हैं मुझे बचपन की कुछ यादें
वो गर्मियों के शब़-ओ-रोज़ दोपहर की वो लू। 

पचास साल की यादों के नक़्श और नक़्शे 
वो कोई निस्फ़ सदी क़ब्ल का ज़माना-ए-हू। 

वो गर्म-ओ-ख़ुश्क महीने वो जेठ वो बैसाख.
कि हाफ़िज़ में कभी आह कैं कभी आँसूं।
-रईस अमरोहवीं
मोहतरिम श़ायर रईस साहब की पूरी ग़ज़ल
पढ़वाना चाहते थे हम..
पर टाईप करने में असफल रहे
पूरी ग़ज़ल यहाँ पढ़ें
रोमन हिन्दी में है..


Tuesday, May 22, 2018

रेगिस्तानी प्यास......गीतकार जानकीप्रसाद 'विवश'

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आज भुनने लगी अधर है , 
रेगिस्तानी प्यास।

रोम रोम में लगता जैसे , 
सुलगे कई अलाव ।
मन को , टूक टूक करते,
ठंडक के सुखद छलाव ।

पंख कटा धीरज का पंछी ,
लगता बहुत उदास।

महासमर का दृश्य ला रही है,
शैतान लपट ।
धूप, चील जैसी छाया पर ,
प्रति पल रही झपट ।

कर वसंत को याद बगीचा,
...देखे महाविनाश।

सबको आत्मसमर्पित पा कर ,
सूरज शेर हुआ ।
आतप , भीतर छिपे सभी ,
कैसा अंधेर हुआ ।

परिवर्तन की आशा जब तक,
होना नहीं निराश।

बाढ़ थमेगी तभी ग्रीष्म की , 
पावस जब आये ।
लू -लपटों की भारी गर्मी , 
तब मुँह की खाए ।

अनुपम धैर्य प्रकृति का लख ,
मौसम कहता शाबाश ।

  सर्वाधिकार - गीतकार जानकीप्रसाद 'विवश '

Monday, May 21, 2018

छांह भी मांगती है पनाह....अश्वनी शर्मा

रेगिस्तान में जेठ की दोपहर 
किसी अमावस की रात से भी अधिक
भयावह, सुनसान और सम्मोहक होती है

आंतकवादी सूरज के समक्ष मौन है
आदमी, पेड़, चिड़िया, पशु
कोई प्रतिकार नहीं बस
 ढूंढते हैं मुट्ठीभर छांह
आवाज के नाम पर 
जीभ निकाले लगातार
हांफ रहे कुत्तों की आवाजें सुनाई देती हैं
सन्नाटा गूंजता है चारों ओर

गलती से बाहर निकले आदमी को
लू थप्पड़ मारकर बरज देती है
प्याज और राबड़ी खाकर भी
झेल नहीं पाता आदमी

छलकते पूर्ण यौवन के अल्हड़ उन्माद में स्वछंद दुपहरी
किसी भी राह चलते से खिलवाड़ करती है

धूप सूरज और लू की त्रिवेणी
करवाती है अग्नि स्नान 
रेत और उसके जायों को
इस नग्न आंतक से त्रस्त
छांह भी मांगती है पनाह।
-अश्वनी शर्मा

Sunday, May 20, 2018

आदत बुरी है ...डॉ. इन्दिरा गुप्ता


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उनकी नजरों मैं हमने देखा 
बला की चाहत छुपी हुई है 
छलक के आँसू निकल के बोला 
यही तो आदत बड़ी बुरी है ! 

चलते चलते मुंडे अचानक 
तिरछी नजर से जो हमको देखा 
भीगे से लब मुस्कुरा के बोले 
कहके ना जाना आदत बुरी है ! 

आंखों मैं आँसू हँसी लबों पे 
दुआ ये किसके लिये हुई है 
किसकी किस्मत मैं हाजरीनो
ये कयामत की बानगी है ! 

रुके या जाये नजर ये बोले 
लफ्जों में क्या खूब तासीर सी है 
बिन कहे ही गजल सी कह गये 
यही तो उनकी मौसकी है ! 

डॉ. इन्दिरा ✍

Saturday, May 19, 2018

ना कर नाटक

ना कर 
नाटक 
कहा ना, 
ना कर 
नाटक 
बिना  टिप्पणी....


सादर

Friday, May 18, 2018

ठंडी बयार का झोंका....कुसुम कोठारी

मां को काट दोगे
माना जन्म दाता नहीं है
पर पाला तुम्हें प्यार से
ठंडी छांव दी प्राण वायु दी
फल दिये
पंछिओं को बसेरा दिया
कलरव उनका सुन खुश होते सदा

ठंडी बयार का झोंका
जो लिपटकर उस से आता
अंदर तक एक शीतलता भरता
तेरे पास के सभी प्रदुषण को 
निज मे शोषित करता

हां, काट दो बुड्ढा भी हो गया
रुको!! क्यों काट रहे बताओगे? 
लकडी चहिये हां, तुम्हें भी पेट भरना है
काटो पर एक शर्त है
एक काटने से पहले
कम से कम दस लगाओगे।
ऐसी जगह कि फिर किसी
 विकास की भेट ना चढूं मै
समझ गये तो रखो कुल्हाड़ी

पहले वृक्षारोपण करो
जब वो कोमल सा विकसित होने लगे
मुझे काटो मै अंत अपना भी
तुम पर बलिदान करुं
तुम्हारे और तुम्हारे नन्हों की
आजीविका बनूं

और तुम मेरे नन्हों को संभालना
कल वो तुम्हारे वंशजों को जीवन देगें
आज तुम गर नई पौध लगाओगे
कल तुम्हारे वंशज 
फल ही नही जीवन भी पायेंगे।
-कुसुम कोठारी

एक पेड काटने वालों 
पहले दस पेड़ लगाओ 
फिर हाथ में आरी उठाओ

Thursday, May 17, 2018

पेड़ बचाओ,जीवन बचाओ...श्वेता


हाँ,मैंने भी देखा है
चारकोल की सड़कें
फैल रही ही है
सुरम्य पेड़ों से आच्छादित
सर्पीली घाटियों में,
सभ्य हो रहे है हम
निर्वस्त्र,बेफ्रिक्र पठारों के
छातियों को फोड़कर समतल करते,
गाँवों की सँकरी
पगडंडियों को चौड़ा करने पर,
ट्रकों में भरकर
शहर उतरेगा ,
ढोकर ले जायेगा वापसी में
गाँव का मलबा,
हाँ ,मैंने महसूस किया है 
परिवर्तन की  
आने की ख़बर से
डरे-डरे और उदास 
खिलखिलाते पेड़
रात-रात भर रोते पठार और
बिलखते खेतों को,
जाने कौन सी सुबह
उनके क्षत-विक्षत अवशेष
बिखर कर मिल जायेे माटी में
हाँ,मैंने सुना है उन्हें कहते हुये
सभ्यता के विकास के लिए
उनकी मौन कुर्बानियाँ
मानव स्मृतियों में अंकित न रहे
पर प्रकृति कभी नहीं भूलेगी
उसका असमय काल कलवित होना
शहरीकरण के लिबास पहनती सड़कों पर
जब भर जायेगा
विकास को बनाने के बाद बचा हुआ 
ज़हरीला  धुआँ
तब याद में मेरी
कंकरीट खेत के मेड़ों पर
लगाये जायेगे वन
"पेड़ लगाओ,जीवन बचाओ"
के नारे के साथ।
-श्वेता सिन्हा





Wednesday, May 16, 2018

पेड़ लगाओ पानी बचाओ , कहता सब संसार !....नामालूम


धूप सिपाही बन गई  , सूरज थानेदार !
गरम हवाएं बन गईं  , जुल्मी  साहूकार !!
:
शीतलता शरमा  रही , कर घूँघट की ओट !
मुरझाई सी छांव है , पड़ रही लू की चोट  !!
:
चढ़ी दुपहरी हो गया , कर्फ़्यू जैसा हाल !
घर भीतर सब बंद हैं , सूनी है चौपाल !!
:
लगता है जैसे हुए ,   सूरज जी नाराज़ !
आग बबूला हो रहे , गिरा  रहे  हैं गाज !!
:
तापमान यूँ बढ़ रहा , ज्यों जंगल की आग !
सूर्यदेव  गाने  लगे , फिर  से   दीपक  राग !!
:
कूलर हीटर सा लगे , पंखा उगले आग  !
कोयलिया कू-कू करे , उत अमवा के बाग़ !!
:
लिए बीजना हाथ में  , दादी  करे  बयार   !
कूलर और पंखा हुए , बिन बिजली बेकार !!
:
कूए ग़ायब हो गये ,   सूखे  पोखर - ताल !
पशु - पक्षी और आदमी , सभी हुए बेहाल !!
:
धरती व्याकुल हो रही , बढ़ती जाती प्यास !
दूर  अभी  आषाढ़  है , रहने  लगी  उदास  !!
:
सूरज भी औकात में , आयेगा  उस  रोज !
बरखा रानी आयगी , धरती पर जिस रोज !!
:
पेड़ लगाओ पानी बचाओ , कहता सब संसार !
ये देख  चेते नहीं ,तो इक दिन होगा बंटाधार !!!!
-नामालूम

Tuesday, May 15, 2018

कुछ फुटकर श़ेर....आलोक यादव


अब भी सोफे में है गर्मी बाक़ी
 वो अभी उठ के गया हो जैसे
 ***
वाइज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
 ***
न वो इस तरह बदलते न निगाह फेर लेते
 जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
 ***
तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
 रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं
 ***
गोपियों ने सुनी राधिका ने पढ़ी
 बांसुरी से लिखी श्याम की चिठ्ठियां
 ***
कर लेंगे खुद तलाश कि मंज़िल है किस तरफ 
 उकता गए हैं यार तेरी रहबरी से हम 
 *** 
ख्वाइशों के बदन ढक न पायी कभी 
 कब मिली है मुझे नाप की ज़िन्दगी ?
-आलोक यादव 

Monday, May 14, 2018

पाब्लो पिकासो और उसकी पेंटिंग..संकलित

पाब्लो पिकासो स्पेन में जन्मे एक अति प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी पेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों और अरबों रुपयों में बिका करती थीं...!!

एक दिन रास्ते से गुजरते समय एक महिला की नजर पिकासो 
पर पड़ी और संयोग से उस महिला ने उन्हें पहचान लिया। 
वह दौड़ी हुई उनके पास आयी और बोली, 'सर, मैं आपकी बहुत 
बड़ी फैन हूँ। आपकी पेंटिंग्स मुझे बहुत ज्यादा पसंद हैं। 
क्या आप मेरे लिए भी एक पेंटिंग बनायेंगे...!!?'

पिकासो हँसते हुए बोले, 'मैं यहाँ खाली हाथ हूँ। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं फिर कभी आपके लिए एक पेंटिंग बना दूंगा..!!'

लेकिन उस महिला ने भी जिद पकड़ ली, 'मुझे अभी एक पेंटिंग बना दीजिये, बाद में पता नहीं मैं आपसे मिल पाऊँगी या नहीं।'

पिकासो ने जेब से एक छोटा सा कागज निकाला और अपने पेन से उसपर कुछ बनाने लगे। करीब 10 मिनट के अंदर पिकासो ने पेंटिंग बनायीं और कहा, 'यह लो, यह मिलियन डॉलर की पेंटिंग है।'

महिला को बड़ा अजीब लगा कि पिकासो ने बस 10 मिनट में जल्दी 
से एक काम चलाऊ पेंटिंग बना दी है और बोल रहे हैं कि मिलियन डॉलर की पेंटिग है। उसने वह पेंटिंग ली और बिना कुछ बोले 
अपने घर आ गयी..!!

उसे लगा पिकासो उसको पागल बना रहा है। वह बाजार गयी और 
उस पेंटिंग की कीमत पता की। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि 
वह पेंटिंग वास्तव में मिलियन डॉलर की थी...!!

वह भागी-भागी एक बार फिर पिकासो के पास आयी और बोली, 'सर आपने बिलकुल सही कहा था। यह तो मिलियन डॉलर की ही पेंटिंग है।'

पिकासो ने हँसते हुए कहा,'मैंने तो आपसे पहले ही कहा था।'

वह महिला बोली, 'सर, आप मुझे अपनी स्टूडेंट बना लीजिये और मुझे भी पेंटिंग बनानी सिखा दीजिये। जैसे आपने 10 मिनट में मिलियन डॉलर की पेंटिंग बना दी, वैसे ही मैं भी 10 मिनट में न सही, 10 घंटे में ही अच्छी पेंटिंग बना सकूँ, मुझे ऐसा बना दीजिये।'

पिकासो ने हँसते हुए कहा, 'यह पेंटिंग, जो मैंने 10 मिनट में बनायी है इसे सीखने में मुझे 30 साल का समय लगा है। मैंने अपने जीवन के 30 साल सीखने में दिए हैं ..!! तुम भी दो, सीख जाओगी..!!

वह महिला अवाक् और निःशब्द होकर पिकासो को देखती रह गयी...!!

एक प्रोफेशनल या सलाहकर को 10 मिनट के काम  की जो फीस दी जाती है वो इस कहानी को बयां करती है।

एक प्रोफेशनल या सलाहकार के एक काम के पीछे उसकी सालों की रात दिन की मेहनत होती है ।

क्लाइंट सोचता है कि बस जरा सा काम ही तो होता है 
फिर इतनी फीस क्यूँ लेते हैं !!!

Dedicated to all Professionals and apt for profession

संकलित

Sunday, May 13, 2018

माँ है अनुपम....डॉ. कनिका वर्मा

माँ है अनुपम
माँ है अद्भुत

माँ ने नीर बन
मेरी जड़ों को सींचा
और उसी पानी से
मेरे कुकर्म धोए

माँ ने वायु बन
मेरे सपनों को उड़ान दी
और उसी हवा से
मेरे दोषों को उड़ा दिया

माँ ने अग्नि बन
मेरी अभिलाषाओं को ज्वलित किया
और उसी अनल में
मेरी वासनाओं को दहन किया

माँ ने वसुधा बन
मेरी आकांक्षाओं का पालन किया
और उसी भूमि में
मेरे अपराधों को दबा दिया

माँ ने व्योम बन
मेरी आत्मा को ऊर्जित किया
और उसी अनन्त में 
मुझे बोझमुक्त किया

माँ है अनुपम
माँ है अद्भुत
-डॉ. कनिका वर्मा