Thursday, January 31, 2019

याद.....शबनम शर्मा

बरसों बाद
पीहर की दहलीज़,
आँख भर आई, 
सोच 
बेसुध सीढ़ियाँ चढ़ना 
पापा के गले लग 
रो देना, 
हरेक का उनके 
आदेश पर गिर्द घूमना, 
खूँटी पर टंगा काला कोट, 
मेज़ पर चश्मा, ऐश-ट्रे,
घर के हर कोने में 
रौबीली गूँज।
आज घूरती आँखें, 
रिश्तों को निभाती आवाज़ें, 
समझती बेटी को बोझ, 
हर तरफ़ परायापन
एक आवाज़ बुलाती, 
जोड़ती उस पराये 
दर से ‘पापा बुआ 
आई हैं।’
-शबनम शर्मा

Wednesday, January 30, 2019

यादों में पगलाई शाम....श्वेता सिन्हा

उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दिये के बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम
-श्वेता सिन्हा
कवि कौन?


Tuesday, January 29, 2019

परों को कभी छिलते नहीं देखा.....परवीन शाकिर

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा 
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा 

इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा 

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं 
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा 

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली 
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा 

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर 
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
-परवीन शाकिर

Monday, January 28, 2019

रिक्त कटोरे यादों के .....श्वेता सिन्हा

क्षितिज का 
सिंदूरी आँचल 
मुख पर फैलाये 
सूरज
सागर की 
इतराती लहरों पर
बूँद-बूँद टपकने लगा।

सागर पर 
पाँव छपछपता 
लहरों की 
एड़ियों में 
फेनिल झाँझरों से
सजाता
रक्तिम किरणों की 
महावर।

स्याह होते 
रेत के किनारों पर
ताड़ की 
फुनगी पर 
ठोढ़ी टिकाये
चाँद सो गया 
चुपचाप बिन बोले
चाँदनी के 
दूधिया छत्र खोले।

मौन प्रकृति का 
रुप सलोना
मुखरित मन का 
कोना-कोना
खुल गये पंख 
कल्पनाओं के
छप से छलका 
याद का दोना।

भरे नयनों के 
रिक्त कटोरे
यादों के 
स्नेहिल स्पर्शों से
धूल-धूसरित, 
उपेक्षित-सा
पड़ा रहा 
तह में बर्षों से।

 -श्वेता सिन्हा
कवि कौन?

Sunday, January 27, 2019

नीले पंखों वाली मैं हूँ.......केदारनाथ अग्रवाल

वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्‍न से बहुत प्‍यार है।


वह चिड़िया जो-
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्‍यार है।


वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्‍यार है।
-केदारनाथ अग्रवाल

Saturday, January 26, 2019

सत्तर के ऊपर सात है.....महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

सत्तर ऊपर सात हैं, बाकी हैं कुछ एक
ईश्वर के दरबार में अब तो माथा टेक

बाजू में अब दम नहीं, धीरे उठते पाँव
यौवन मद का ही रहा था अब तक अतिरेक

क्यों है ढलती उम्र में तू माया से ग्रस्त
बिन ललचाए काम तू करता जा बस नेक

इस दुनिया में मिल सका कब तुझको है मान
होगा दूजे लोक में संतों सा अभिषेक

हासिल तुझको हैं सभी सुख के साधन आज
मत तू उनमें लिप्त हो, मत तज ख़लिश विवेक.

बहर --- २२२२  २१२२  //  २२२२  १

-महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

Friday, January 25, 2019

पता नही क्या हुआ....श्वेता सिन्हा

क्यों ख़्यालों से कभी
ख़्याल तुम्हारा जुदा नहीं,
बिन छुये एहसास जगाते हो
मौजूदगी तेरी लम्हों में,
पाक बंदगी में दिल की
तुम ही हो ख़ुदा नहीं।

ज़िस्म के दायरे में सिमटी
ख़्वाहिश तड़पकर रूलाती है,
तेरी ख़ुशियों के सज़दे में
काँटों को चूमकर भी लब
सदा ही मुसकुराते हैं
तन्हाई में फैले हो तुम ही तुम
क्यों तुम्हारी आती सदा नहीं।

बचपना दिल का छूटता नहीं
तेरी बे-रुख़ी की बातों पर भी
दिल तुझसे रूठता नहीं
क़तरा-क़तरा घुलकर इश्क़
सुरुर बना छा गया
हरेक शय में तस्वीर तेरी
उफ़!,ये क्या हुआ पता नहीं....!
-श्वेता सिन्हा

कवि कौन?

Thursday, January 24, 2019

ग़ज़ल....सैयद गुलाम रब्बानी 'अयाज'

हार पर हार खाए जाता हूँ।
बेसबब फिर भी मुस्कुराता हूँ।

रोते रहते हैं आह भरते हैं,
हाल दिल का जिन्हें सुनाता हूँ।

सख्त मेहनत व जां फिशानी से,
पेट की आग मैं बुझाता हूँ।

अम्न क़ायम जहां में रखने का,
कोई नुस्खा नया बनाता हूँ।

इक इमारत नई खड़ी करके,
खूं  पसीना भी मैं बहाता हूँ।

अच्छा दम साज़ हो तो क्या कहना,
सुर से तेरे जो सुर मिलाता हूँ।

क्या करूं मैं 'अयाज़' अपनो को,
रोज़ करतब नए दिखाता हूँ।
- सैयद गुलाम रब्बानी 'अयाज'

Wednesday, January 23, 2019

यूँही नीम-जान छोड़ गया......परवीन शाकिर

तराश कर मेरे बाजू उड़ान छोड़ गया,
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया।

रफ़ाक़तों का मेरी ओर उसको ध्यान कितना था,
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया।

अज़ीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी,
खुले दरीचे पे इक फूलदान छोड़ गया।

जो बादलों से भी मुझको छुपाए रखता था,
बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया।

निकल गया कहीं अनदेखे पानियों की तरफ,
ज़मी के नाम खुला बादबान छोड़ गया।

उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से,
जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया।

न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है,
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया।

अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल,
किस इंतिहा पे मेरा मेहरबान छोड़ गया।
-परवीन  शाकिर

Tuesday, January 22, 2019

तन्हा गुलाबी किनारे पर.....श्वेता सिन्हा

किसी साँझ के किनारे
पलकें मूँदती हौले से,
आसमां से उतरकर
पेडों से शाखों से होकर
पत्तों का नोकों से फिसलकर,
ख़ामोश झील के
दूर तक पसरे सतह पर
कतरा-कतरा पिघलकर
सूरज की डूबती किरणें
गुलाबी रंग घोल देती है,
रंगहीन मन के दरवाजे पर
दस्तक देती साँझ, 
स्याह आँगन में
जलते बुझते टिमटिमाते
सपनीली ख़्वाहिशों के सितारे
मौन वेदना लिए निःशब्द
प्रतीक्षारत से वृक्ष,
जो अक्सर बेचैन करते है
गुलाबी झील में गुम हुई
परछाईयों में यादों को,
ढूँढता है मन संवेदनाओं में
लिपटे गुजरे कुछ पल,
उस उदास झील के 
तन्हा गुलाबी किनारे पर।
- श्वेता सिन्हा

Monday, January 21, 2019

सूरज तुम जग जाओ न...श्वेता सिन्हा

धुँधला धुँधला लगे है सूरज
आज बड़ा अलसाये है
दिन चढ़ा देखो न  कितना
क्यूँ न ठीक से जागे है
छुपा रहा मुखड़े को कैसे
ज्यों रजाई से झाँके है

कुछ तो करे जतन हम सोचे
कोई करे उपाय है
सूरज को दरिया के पानी मेंं
धोकर आज सुखाते हैंं
चमचम फिर से चमके वो
वही नूर ले आते हैंं

सब जन ठिठुरे उदास हैंं बैठे
गुनगुनी धूप भर जाओ न
देकर अपनी मुस्कान सुनहरी
कलियों के संग गाओ न
नील गगन पर दमको फिर से
संजीवन तुम भर जाओ न
मिलकर धरती करे ठिठोली
सूरज तुम जग जाओ न
     - श्वेता सिन्हा

Sunday, January 20, 2019

शायद वो आ गए हैं ...दानिश भारती


परखेगा ये ज़माना 
धोखे में आ न जाना 
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दिलचस्प तज्रबा है 
दुनिया से दिल लगाना 
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'हाँ ' भी छिपी थी उसमें 
जब उसने कह दिया 'ना'
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साक़ी का हुक्म है ये 
पीना , न डगमगाना 
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सब लोग याद रक्खें 
ऐसा कहो फ़साना 
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मेरी - - वही गुज़ारिश 
उसका - - वही बहाना 
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समझो तो क़ीमत इसकी 
है ज़िन्दगी खज़ाना 
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शायद वो आ गए हैं 
मौसम हुआ सुहाना 
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रास आ रहा है "दानिश" 
लफ़्ज़ों को गुनगुनाना 
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-दानिश 

Saturday, January 19, 2019

टूटेगा तो बिखर जाएगा...सीमा 'सदा' सिंघल

डर था मुझे वो टूटेगा तो बिखर जाएगा, 
तुमसे जो मुंह फेरेगा तो किधर जाएगा । 

संभालता रहा खुद को भागती दुनिया में, 
गिर गया तो फिर किसको नज़र आएगा । 

बेबसी जब भी पूछती मेरा हाल धीमे से, 
सोचता कुछ कहा तो बन ज़हर जाएगा । 

बुत बना रहा वो हादसों को देखकर जब,
कहा लोगो ने इसतरह तो ये मर जाएगा । 

गुनाहों  की जो लोग माफ़ी भी नहीं मांगते, 
पूछो तो बचाया इनको किस कदर जाएगा ।
-सीमा 'सदा' सिंघल

Friday, January 18, 2019

इक बार कहो तुम मेरी हो ..............इब्ने इंशा


हम घूम चुके बस्ती-बन में

इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
~इब्ने इंशा

काव्य धरा





Thursday, January 17, 2019

मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत..........सतीश सक्सेना

हम तो केवल हँसना चाहें 
सबको ही, अपनाना चाहें
मुट्ठी भर जीवन पाए हैं
हँसकर इसे बिताना चाहें
खंड खंड संसार बंटा है, सबके अपने अपने गीत।
देश नियम,निषेध बंधन में, क्यों बाँधा जाए संगीत।

नदियाँ, झीलें, जंगल,पर्वत
हमने लड़कर बाँट लिए।
पैर जहाँ पड़ गए हमारे ,
टुकड़े, टुकड़े बाँट लिए।
मिलके साथ न रहना जाने,गा न सकें,सामूहिक गीत।
अगर बस चले तो हम बाँटे, चाँदनी रातें, मंजुल गीत।

कितना सुंदर सपना होता
पूरा विश्व हमारा होता।
मंदिर मस्जिद प्यारे होते
सारे धर्म, हमारे होते।
कैसे बँटे, मनोहर झरने, नदियाँ,पर्वत, अम्बर गीत।
हम तो सारी धरती चाहें, स्तुति करते मेरे गीत।

काश हमारे ही जीवन में
पूरा विश्व, एक हो जाए।
इक दूजे के साथ बैठकर,
बिना लड़े,भोजन कर पायें।
विश्वबन्धु, भावना जगाने, घर से निकले मेरे गीत।
एक दिवस जग अपना होगा, सपना देखें मेरे गीत।

जहाँ दिल करे, वहाँ रहेंगे
जहाँ स्वाद हो, वो खायेंगे।
काले, पीले, गोरे मिलकर
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे।
तोड़ के दीवारें देशों की, सब मिल गायें मानव गीत।
मन से हम आवाहन करते, विश्व बंधु बन, गायें गीत।

श्रेष्ठ योनि में, मानव जन्में
भाषा कैसे समझ न पाए।
मूक जानवर प्रेम समझते
हम कैसे पहचान न पाए।
अंतःकरण समझ औरों का,सबसे करनी होगी प्रीत।
माँ से जन्में, धरा ने पाला, विश्वनिवासी बनते गीत?

सारी शक्ति लगा देते हैं
अपनी सीमा की रक्षा में,
सारे साधन, झोंक रहे हैं
इक दूजे को, धमकाने में,
अविश्वास को दूर भगाने, सब मिल गायें मानव गीत।
मानव कितने गिरे विश्व में, आपस में रहते भयभीत।

जानवरों के सारे अवगुण
हम सबके अन्दर बसते हैं।
सभ्य और विकसित लोगों
में,शोषण के कीड़े बसते हैं।
मानस जब तक बदल न पाए , कैसे कहते, उन्नत गीत।
ताकतवर मानव के भय की, खुल कर हँसी उड़ायें गीत।

मानव में भारी असुरक्षा
संवेदन मन, क्षीण करे।
भौतिक सुख,चिंता,कुंठाएं
मानवता का पतन करें।
रक्षित कर,भंगुर जीवन को, ठंडी साँसें लेते गीत।
खाई शोषित और शोषक में, बढ़ती देखें मेरे गीत।

अगर प्रेम, ज़ज्बात हटा दें
कुछ न बचेगा मानव में।
बिना सहानुभूति जीवन में
क्या रह जाए, मानव में।
जानवरों सी मनोवृत्ति पा, क्या उन्नति कर पायें गीत।
मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत।

भेदभाव की, बलि चढ़ जाए
सारे राष्ट्र साथ मिल जाएँ,
तन मन धन सब बाँटे अपना
बच्चों से निश्छल बन जाएँ,
बेहिसाब रक्षा धन, बाँटें, दुखियारों में, बन के मीत।
लड़ते विश्व में, रंग खिलेंगे,पाकर सुंदर, राहत गीत।
सतीश सक्सेना

Wednesday, January 16, 2019

मैं तृष्णा से अकुलाई रे........श्वेता सिन्हा

मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे 
सुध-बुध खोई पगलाई रे

सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे

"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे

उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल 
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल 
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे

जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे
-श्वेता सिन्हा


Tuesday, January 15, 2019

उगती हुई कविता...... स्मृति आदित्य

रख दो 
इन कांपती हथेलियों पर 
कुछ गुलाबी अक्षर 
कुछ भीगी हुई नीली मात्राएं 
बादामी होता जीवन का व्याकरण, 
चाहती हूं कि उग ही आए कोई कविता
अंकुरित हो जाए कोई भाव, 
प्रस्फुटित हो जाए कोई विचार 
फूटने लगे ललछौंही कोंपलें ...
मेरी हथेली की ऊर्वरा शक्ति
सिर्फ जानते हो तुम 
और तुम ही दे सकते हो 
कोई रंगीन सी उगती हुई कविता 
इस 'रंगहीन' वक्त में.... 
-स्मृति आदित्य

Monday, January 14, 2019

वो आकर्षण.......संजय भास्कर

कॉलेज को छोड़े करीब 
नौ साल बीत गये !
मगर आज उसे जब नौ साल बाद 
देखा तो 
देखता ही रह गया !
वो आकर्षण जिसे देख मैं 
हमेशा उसकी और
खिचा चला जाता था !
आज वो पहले से भी ज्यादा 
खूबसूरत लग रही थी 
पर मुझे विश्वास नहीं 
हो रहा था !
की वो मुझे देखते ही 
पहचान लेगी !
पर आज कई सालो बाद 
उसे देखना 
बेहद आत्मीय और आकर्षण लगा 
मेरी आत्मा के सबसे करीब ........!!
- संजय भास्कर  

Sunday, January 13, 2019

उफ़!,ये क्या हुआ पता नहीं....श्वेता सिन्हा

क्यों ख़्यालों से कभी
ख़्याल तुम्हारा जुदा नहीं,
बिन छुये एहसास जगाते हो
मौजूदगी तेरी लम्हों में,
पाक बंदगी में दिल की
तुम ही हो ख़ुदा नहीं।

ज़िस्म के दायरे में सिमटी
ख़्वाहिश तड़पकर रूलाती है,
तेरी ख़ुशियों के सज़दे में
काँटों को चूमकर भी लब
सदा ही मुसकुराते हैं
तन्हाई में फैले हो तुम ही तुम
क्यों तुम्हारी आती सदा नहीं।

बचपना दिल का छूटता नहीं
तेरी बे-रुख़ी की बातों पर भी
दिल तुझसे रूठता नहीं
क़तरा-क़तरा घुलकर इश्क़
सुरुर बना छा गया
हरेक शय में तस्वीर तेरी
उफ़!,ये क्या हुआ पता नहीं....!

-श्वेता सिन्हा

Saturday, January 12, 2019

तुम मुझे मिलीं ....पंकज चतुर्वेदी

तमाम निराशा के बीच
तुम मुझे मिलीं 
सुखद अचरज की तरह 
मुस्कान में ठिठक गए 
आंसू की तरह 

शहर में जब प्रेम का अकाल पड़ा था 
और भाषा में रह नहीं गया था 
उत्साह का जल 

तुम मुझे मिलीं 
ओस में भीगी हुई 
दूब की तरह 
दूब में मंगल की 
सूचना की तरह 

इतनी धूप थी कि पेड़ों की छांह 
अप्रासंगिक बनाती हुई 
इतनी चौंध 
कि स्वप्न के वितान को 
छितराती हुई 

तुम मुझे मिलीं 
थकान में उतरती हुई 
नींद की तरह 

नींद में अपने प्राणों के 
स्पर्श की तरह 
जब समय को था संशय 
इतिहास में उसे कहां होना है 
तुमको यह अनिश्चय 
तुम्हें क्या खोना है 
तब मैं तुम्हें खोजता था 
असमंजस की संध्या में नहीं 
निर्विकल्प उषा की लालिमा में 

तुम मुझे मिलीं 
निस्संग रास्ते में 
मित्र की तरह 
मित्रता की सरहद पर 
प्रेम की तरह

-पंकज चतुर्वेदी
काव्य-धरा




Friday, January 11, 2019

बेहिसी के ज़ख्म......डॉ. अंजुम बाराबंकवी

प्यार के हर रंग को दस्तूर होना चाहिए,
ये गुज़ारिश है इसे मंजूर होना चाहिए।

फूल से चेहरे पर इतनी बरहमी अच्छी नहीं,
जानेमन गुस्से को अब काफूर होना चाहिए।

आजकल संजीदगी से अहले-दिल कहने लगे,
बेहिसी के ज़ख्म को नासूर होना चाहिए।

काटते रहते हैं जो बेरूह लफ्ज़ों का पहाड़,
उनको श़ायर तो नहीं मज़दूर होना चाहिए।

शोहरतों के फूल क़दमों में पड़े हैं देखिए,
आप को थोड़-बहुत मग़रूर होना चाहिए।

दिल के क़िस्से में चटकना-टूटना है सब फूजूल,
अब तो इस शीशे को चकनाचूर होना चाहिए।

कैसे-कैसे लोग ना क़दरी से पीले पड़ गए,
जिनको दुनिया में बहुत मशहूर होना चाहिए।
-डॉ. अंजुम बाराबंकवी