Wednesday, March 30, 2016

तन्हा-तन्हा उदास बस्तियां देखी है मैंने.........अमर मलंग


ख़ुश्क इन आंखों में सुर्खियां देखी है मैंनें
माज़ी की अपने तल्ख़ियां देखी है मैंनें।

अश्क लहू बनकर ग़मे दास्तां कह रहे
बेज़ुबां वक़्त की सख़्तियां देखी है मैंनें।

क्या चीज़ है अमीरे शहर हक़ीक़त तेरी
अहले दो आलम हस्तियां देखी है मैंनें।

रोशनी मयस्सर नहीं अब तलक अंधेरे को
तन्हा-तन्हा उदास बस्तियां देखी है मैंने।

-अमर मलंग

Monday, March 28, 2016

तुम मिरे साथ जो होते तो बहारें होतीं.........सीमा गुप्ता "दानी"


प्यार का दर्द भी काम आएगा दवा बनकर,
आप आ जाएँ अगर काश मसीहा बनकर। 

तुम मिरे साथ जो होते तो बहारें होतीं, 
चीखते फिरते न सहराओं की सदा बनकर।

मैंने हसरत से निगाहों को उठा रक्खा है, 
तुम नज़र आओ तो महताब की ज़िया बनकर।

मैं तुझे दिल में बुरा कहना अगर चाहूँ भी,
लफ़्ज़ होंठों पे चले आएँगे दुआ बनकर।

मैं किसी शाख़ पे करती हूँ नशेमन तामीर,
तुम भी गुलशन में रहो ख़ुश्बु-ओ-सबा बनकर।

मुन्तज़िर बैठी हूँ इक उम्र से तश्ना सीमा,
सहने-दिल पे वो न बरसा कभी घटा बनकर।

-सीमा गुप्ता "दानी"
seemagupta9@gmail.com

Saturday, March 26, 2016

बोलो किन यादों फिर, बग़ीचा लगाते हो.... सुशील यादव


रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो 
ज़ख़्मों पर जलता, क्यूँ फाहा लगाते हो 

गिर न जाए आकाश, से लौट के पत्थर 
अपने मक़सद का, निशाना लगाते हो 

हाथों हाथ बेचा करो, ईमान-धरम तुम 
सड़कों पे नुमाइश, तमाशा लगाते हो 

फूलो से रंज तुम्हें, ख़ुशबू से परहेज़ 
बोलो किन यादों फिर, बग़ीचा लगाते हो 

छन के आती रौशनी, बस उन झरोखों से 
संयम सुशील मन, से शीशा लगाते हो

- सुशील यादव

sushil.yadav151@gmail.com

Thursday, March 24, 2016

रंगों के आलेख.....मनोज खरे





उमर हिरनिया हो गई, देह-इन्द्र-दरबार
मौसम संग मोहित हुए, दर्पण-फूल-बहार

दर्पण बोला लाड़ से, सुन गोरी, दिलचोर
अंगिया न सह पाएगी, अब यौवन का जोर

यूं न लो अंगड़ाइयां, संयम हैं कमजोर
देर टूटते ना लगे, लोक-लाज की डोर

शाम सिंदूरी होंठ पर, आँखें उजली भोर
बैरन नदिया सा चढ़े, यौवन ये बरजोर

तितली झुक कर फूल पर, कहती है आदाब
सीने में दिल की जगह, रक्खा लाल गुलाब 

जब से होठों ने छुए, तेरे होंठ पलाश
उस दिन से ही हो गई, अम्बर जैसी प्यास

रहे बदलते करवटें, हम तो पूरी रात
अब के हम मिलेंगे, करनी क्या-क्या बात

प्राण-गली से गुजर रही, हंसी तेरी मनमीत
काला जादू रूप का, कौन सकेगा जीत

गढ़े कसीदे नेह के, रंगों के आलेख
पास पिया को पाओगे, आँखें बंद कर देख

~मनोज खरे
संयुक्त संचालक, जनसंपर्क विभाग, मध्य प्रदेश शासन. 

Tuesday, March 22, 2016

सभी को विश्व कविता दिवस की बहुत बहुत बधाई....मंजू मिश्रा

चलो न 
आज विश्व कविता दिवस पर 
हम भी एक कविता बनायें        
मगर 
कविता की रेसिपी कहाँ से लाएं 
क्यूँ  न गूगल कर के देखें 
शायद कुछ पा जाएँ 
नहीं तो एक काम करते हैं 
थोड़ी खुशियां थोड़े गम 
थोड़ा तुम थोड़े हम 
बस ऐसे ही 
जो भी 
आस-पास हाथ आये 
सब कुछ 
एक साथ मिलाएं 
छोटी छोटी मुस्कानों से सजाएँ 
और  जिंदगी की तश्तरी में 
बड़े अदब से  पेश करें 
हंसती मुस्कराती 
गुनगुनाती 
कुछ कुछ लजाती 
प्यारी सी कविता 
-:-
सभी को विश्व कविता दिवस की बहुत बहुत बधाई !!
-मंजू मिश्रा




Sunday, March 20, 2016

गिन लेना हमको अपने दिलदारों में............महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’


वक़्त बिताया अब तक तो हमने रंगीं गुलज़ारों में
आज कहो तो जी लेंगे हम इन अंधे गलियारों में

कोई ख़ता तो होगी जो तुम नाराज़ी में बैठे हो
उफ़ न कभी लब से निकलेगी, चिनवा दें दीवारों में

जो न कभी तुमने चाहा वो दिल में ना लाए हरगिज़
लोग हमारी गिनती करते हैं दिल के लाचारों में

जान लिया नामुमकिन है दिल को पाना अहसासों से
पास न दौलत तो मत जाना उल्फ़त के बाज़ारों में

आज तलक मुँह ना मोड़ा है ख़लिश वफ़ा से तो हमने 
भूल न जाना, गिन लेना हमको अपने दिलदारों में.

बहर --- २११२  २२२२  २२२२  २२२२
 महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

Saturday, March 19, 2016

लघु कथा...दुर्दशा का मूल कारण.......रचयिता अज्ञात



एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए, उजड़े वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये!

हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ?? 

यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं, यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा !

भटकते भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बिता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे !

रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा था।

वह जोर से चिल्लाने लगा।

हंसिनी ने हंस से कहा- अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते।

ये उल्लू चिल्ला रहा है। 

हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ??

ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही।

पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों की बातें सुन रहा था।

सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई, मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ करदो।

हंस ने कहा- कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद! 

यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा 

पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो।

हंस चौंका- उसने कहा, आपकी पत्नी ??

अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है,मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है!

उल्लू ने कहा- खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है।

दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग एकत्र हो गये। 

कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी। 

पंच लोग भी आ गये!

बोले- भाई किस बात का विवाद है ??

लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है!

लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे।

हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है। 

इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना चाहिए! 

फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों की जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है!

यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया। 

उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली!

रोते- चीखते जब वह आगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई - ऐ मित्र हंस, रुको!

हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ?? 

पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ?

उल्लू ने कहा- नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी! 

लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है! 

मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है।

यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं!

शायद 65 साल की आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने उम्मीदवार की योग्यता न देखते हुए, हमेशा ये हमारी जाति का है. ये हमारी पार्टी का है के आधार पर अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है, देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैँ!

-रचयिता अज्ञात

Thursday, March 17, 2016

इक उम्र बीती आए तब मिलने के वास्ते......महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’




इक उम्र बीती आए तब मिलने के वास्ते
ज्यों आए दिल का चैन वो हरने के वास्ते

हो के नहीं रिश्ता हुआ दोनों के दरमियाँ
हम हुस्न, वो थे इश्क़, बस कहने के वास्ते

नज़रें मिलीं तो थीं मगर वो ही न मिल सके
मानिंदे-शम्मा हम रहे जलने के वास्ते

बेकार सब जीना रहा, हासिल न कुछ हुआ
हम कुछ नहीं क़ाबिल रहे करने के वास्ते

है अब नहीं उम्मीद या अरमान कुछ ख़लिश
हम जी रहे हैं सिर्फ़ अब मरने के वास्ते.

बहर --- २२१२  २२१२  २२१२  १२

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

गूगल ग्रुप एक मंच में प्रकाशित रचना

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Sunday, March 13, 2016

सूखे फूल : उदास चिराग......दुष्यंत कुमार

1933-1975

आज लौटते दफ्तर से पथ पर कब्रिस्तान दिखा
फूल जहां सूखे बिखरे थे और चिराग टूटे-फूटे
यों ही उत्सुकता से से थोड़े फूल बटोर लिए
कौतुहलवश एक चिराग़ उठाया औ' संग ले आया।

थोड़ा सा जी दुखा, कि देखो, कितने प्यारे फूल
कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इसका गंध कभी
सोचा, ये चिराग़ जिसने भी यहां जलाकर रक्खे थे
उसके मन में होगी कितनी पीड़ा स्नेह-पगी।

तभी आ गई गंध न जाने कैसे सूखे फूलों से
घर के बच्चे 'फूल-फूल' चिल्लाते आए मुझ तक भाग
मैं क्या कहता आखिर उस हक़ लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग़।

दुष्यंत कुमार
1933-1975

Monday, March 7, 2016

नसीब में है क्या लिखा हुआ...........अब्दुल हमीद 'अदम'


आता है कौन दर्द के मारों के शहर में
रहते हैं लोग चांद सितारों के शहर में

मिलता तो है ख़ुशी की हकीकत का कुछ सुराग
लेकिन नज़र फ़रेब इशारों के शहर में

उन अंखड़ियों को देख होता है ये गुमां
हम आ बसे हैं बादा-ग़ुसारों के शहर में

ऐ दिल तेरे ख़ुलूस के सदके ज़रा सा होश
दुश्मन भी बेशुमार हैं यारों के शहर में

देखें 'अदम' नसीब में है क्या लिखा हुआ
दिल बेंचने चले हैं निगारों के शहर में
अप्रेल-1910 - मार्च- 1981
अब्दुल हमीद 'अदम'



अर्थ :  बादा-ग़ुसारों = शराबियों, ख़ुलूस = साफ दिल



Sunday, March 6, 2016

शाम की परतें – तीन क्षणिकाएँ....मंजू मिश्रा

आओ 

शाम की परतें  

खोल कर देखें 

कितना कुछ

छुपा रखा है 

दिन ने परदे में ...
..............

ख्वाबों पर 
दिन भर का 
चढ़ा हुआ गिलाफ 
उतार कर देखना 
शाम की परतें गिनना 
और फिर सोचना 
रात कितनी लम्बी होगी 
.........................

शाम की परतों में 
दफ़्न रहते हैं 
जाने कितने ही  
अधूरे ख्वाब 
मजबूर ख्वाहिशें , 
भूखे पेट , टूटे शरीर 
पूरे दिन का दर्द समेटे 
आँखों में पालते हैं 
रात का इन्तजार  
कि शायद नींद पनाह देदे 
चार पल को ही 
मगर सुकून तो होगा

- मंजू मिश्रा 

मूल रचना