Tuesday, October 31, 2017

मौसम तो है भीगी भीगी बातों का.....समीना राजा

दिल माँगे है मौसम फिर उम्मीदों का 
चार तरफ़ संगीत रचा हो झरनों का 

हम ने भी तकलीफ़ उठाई है आख़िर 
आप बुरा क्यूँ मानें सच्ची बातों का 

जाने अब क्यूँ दिल का पंछी है गुम-सुम 
जब पेड़ों पर शोर मचा है चिड़ियों का 

रात गए तक राह वो मेरी देखेगा 
मुझ पर है इक ख़ौफ़ सा तारी राहों का 

मेरे माथे पर कुछ लम्हे उतरे थे 
अब भी याद है ज़ाइक़ा उस के होंटों का 

पूरे चाँद की रात मगर ख़ामोशी है 
मौसम तो है भीगी भीगी बातों का

Monday, October 30, 2017

आज की रात किधर जाएंगे.........नवीन मणि त्रिपाठी

2122 1122 22
चाँद बनकर वो निखर जाएंगे ।
शाम होते ही सँवर जाएंगे ।।

मुझको मालूम है फ़ितरत उनकी ।
हैं जिधर आप उधर जाएंगे ।।

जख्म परदे में ही रखना अच्छा ।
देखकर लोग सिहर जाएंगे ।।

छेड़िये मत वो कहानी मेरी ।
दर्द मेरे भी उभर जाएंगे ।।

घूर कर देख रहे हैं क्या अब ।
आप नजरों से उतर जाएंगे।।

वक्त रुकता नहीं है दुनिया में ।
दिन हमारे भी सुधर जाएंगे ।।

क्या पता था कि जुदा होते ही ।
इस तरह आप बिखर जाएंगे ।।

ये मुहब्बत है इबादत मेरी ।
एक दिन दिल मे ठहर में जाएंगे ।।

इश्क़ पर बात अभी क्या करना ।
इश्क पर आप मुकर जाएंगे ।।

जिद मुनासिब कहाँ है पीने की ।
आप तो हद से गुजर जाएंगे ।।

बज्म में आ गए तो रुकिए भी।
आज की रात किधर जाएंगे ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

Sunday, October 29, 2017

हमें आफ़ताब मिल ही गया......विरेन्द्र खरे अकेला

हुआ सवेरा हमें आफ़ताब मिल ही गया
अँधेरी शब को करारा जवाब मिल ही गया

अगरचे हो गयीं काँटों से उंगलियाँ ज़ख़्मी
मगर मुझे वो महकता गुलाब मिल ही गया

हवा ने डाल दिया गेसुओं को चेहरे पर 
हसीन रूख़ को तुम्हारे नक़ाब मिल ही गया

तुझे भी बावली कहने लगी है ये दुनिया
मुझे भी अहले-जुनूँ का खिताब मिल ही गया

लो ख़त्म हो गया उजडे़ मंज़रो का सफ़र 
उदास आँखों को मनचाहा ख़्वाब मिल ही गया 

बढ़ा के हाथ अचानक पलट गया साक़ी
मैं मुतमइन था कि जामे-शराब मिल ही गया 

चमकती धूप में समझे हैं काँच के टुकड़े
कि मोतियों सा उन्हें आबो ताब मिल ही गया 

पिला रहा है तो दिल से पिलाये जा साक़ी 
न कर गुरूर जो कारे-सवाब मिल ही गया 

बहुत ही बच के निकलता है वो ‘अकेला’ से 
करेगा क्या, जो ये ख़ानाख़राब मिल ही गया 

Saturday, October 28, 2017

ख़्वाब कोई मचल रहा होगा....अमित जैन 'मौलिक'

नींद में चांद चल रहा होगा
ख़्वाब कोई मचल रहा होगा.

हूक़ उठती है दिल लरज़ता है
कोई कहके बदल रहा होगा.

वो हवाओं से बैर क्यों लेगा
जो चिरागों सा जल रहा होगा.

आँख नींदों से भर गया कोई
ख़्वाब नैनों में मल रहा होगा.

आप आये बड़ी नवाज़िश है 
आपका दिल पिघल रहा होगा.

इन मुंडेरों पे चाँद खिलता था
ख़ूबसूरत वो पल रहा होगा.

हाँ यहीं पर बना है ताज़महल
हाथ हाथों में कल रहा होगा.

दिन ढला फिर वही कयामत है
दिल मचलकर संभल रहा होगा.

Friday, October 27, 2017

कैसी ज़िन्दगी? ....डॉ. जेन्नी शबनम


1. 
हाल बेहाल 
मन में है मलाल 
कैसी ज़िन्दगी? 
जहाँ धूप न छाँव 
न तो अपना गाँव! 

2. 
ज़िन्दगी होती 
हरसिंगार फूल, 
रात खिलती 
सुबह झर जाती, 
ज़िन्दगी फूल होती! 

3. 
बोझिल मन 
भीड़ भरा जंगल 
ज़िन्दगी गुम, 
है छटपटाहट 
सर्वत्र कोलाहल!

4. 
दीवार गूँगी 
सारा भेद जानती, 
कैसे सुनाती? 
ज़िन्दगी है तमाशा 
दीवार जाने भाषा!

5. 
कैसी पहेली? 
ज़िन्दगी बीत रही 
बिना सहेली, 
कभी-कभी डरती 
ख़ामोशियाँ डरातीं ! 

6. 
चलती रही 
उबड-खाबड़ में 
हठी ज़िन्दगी, 
ख़ुद में ही उलझी 
निराली ये ज़िन्दगी! 

7. 
फुफकारती 
नाग बन डराती 
बाधाएँ सभी, 
मगर रूकी नहीं, 
डरी नहीं, ज़िन्दगी! 

8. 
थम भी जाओ, 
ज़िन्दगी झुँझलाती 
और कितना? 
कोई मंज़िल नहीं 
फिर सफ़र कैसा? 

9. 
कैसा ये फ़र्ज़ 
निभाती है ज़िन्दगी 
साँसों का क़र्ज़, 
गुस्साती है ज़िन्दगी 
जाने कैसा है मर्ज़! 

10. 
चीख़ती रही 
बिलबिलाती रही 
ज़िन्दगी ख़त्म, 
लहू बिखरा पड़ा 
बलि पे जश्न मना!
-डॉ. जेन्नी शबनम

Thursday, October 26, 2017

अधूरे अल्फ़ाज़...........'तरुणा मिश्रा

अल्फ़ाज़ जाने कितने ... मुंह में अटक रहें हैं....
कितने ही किस्से रस्ते में ... मेरे भटक रहें हैं...  

बारिश..तूफ़ान इतने क्यूँ आए.. पता चला अब..
ज़ुल्फ़ें उन्होंने खोली... वो बादल झटक रहें हैं..

निगाहें मिली हैं जब से .. उस ज़ालिम से मेरी..
ग़ज़ले बहक रहीं हैं ...और शेर भटक रहें हैं...

चिलमन के पीछे जाके ... क्यूँ छुप गया है वो...
मुश्किल से जुदाई का .. हम गम गटक रहें हैं..

नज़रो से तेरी पहले ही ... बेहोश है ये दुनिया...
नींद आती नहीं है न ही..कोई ख्व़ाब फटक रहें हैं..

सुखन 'तरु' के अब तो .. उनको भी खटक रहें हैं..
क़ैद रखा जिसमे मुझको .. वो किलें चटक रहें है...


Wednesday, October 25, 2017

ग्यारह कहमुकरियाँ....त्रिलोक सिंह ठकुरेला


 1.
जब भी देखूँ, आतप हरता। 
मेरे मन में सपने भरता। 
जादूगर है, डाले फंदा। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, चंदा। 

2.
लंबा क़द है, चिकनी काया।
उसने सब पर रौब जमाया।
पहलवान भी पड़ता ठंडा। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा।

3.
उससे सटकर, मैं सुख पाती।
नई ताज़गी मन में आती।
कभी न मिलती उससे झिड़की।
क्या सखि, साजन? ना सखि, खिड़की।

4.
जैसे चाहे वह तन छूता।
उसको रोके, किसका बूता।
करता रहता अपनी मर्ज़ी। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्ज़ी। 

5.
कभी किसी की धाक न माने। 
जग की सारी बातें जाने।
उससे हारे सारे ट्यूटर। 
क्या सखि, साजन? ना, कंप्यूटर।

6.
यूँ तो हर दिन साथ निभाये।
जाड़े में कुछ ज़्यादा भाये।
कभी कभी बन जाता चीटर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, हीटर। 

7.
देख देख कर मैं हरषाऊँ।
खुश होकर के अंग लगाऊँ।
सीख चुकी मैं सुख-दुख सहना। 
क्या सखि, साजन? ना सखि,गहना। 

8.
दिन में घर के बाहर भाता। 
किन्तु शाम को घर में लाता। 
कभी पिलाता तुलसी काढ़ा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, जाड़ा। 

9.
रात दिवस का साथ हमारा।
सखि, वह मुझको लगता प्यारा।
गाये गीत कि नाचे पायल।
क्या सखि, साजन? ना, मोबाइल।

10.
मन बहलाता जब ढिंग होती।
ख़ूब लुटाता ख़ुश हो मोती। 
फिर भी प्यासी मन की गागर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सागर।

11.
बार बार वह पास बुलाता।
मेरे मन को ख़ूब रिझाता।
ख़ुद को उस पर करती अर्पण।
क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्पण। 

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Tuesday, October 24, 2017

आज से प्रारम्भ विश्व प्रसिद्ध छठ पूजा


बिहार के औरंगाबाद जिले का देव सूर्य मंदिर सूर्योपासना के लिए सदियों से आस्था का केंद्र बना हुआ है। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टिकोण से विश्व प्रसिद्ध त्रेतायुगीन इस मंदिर परिसर में प्रति वर्ष चैत्र और कार्तिक माह में महापर्व छठ व्रत करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती है।

पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर की अभूतपूर्व स्थापत्य कला इसकी कलात्मक भव्यता दर्शाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इसका निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया। काले और भूरे पत्थरों से निर्मित मंदिर की बनावट उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है।
मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख के मुताबिक, 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इला पुत्र ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया था। शिलालेख से पता चलता है कि इस पौराणिक मंदिर का निर्माण काल एक लाख पचास हजार वर्ष से ज्यादा हो गया है।
देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल, मध्याचल और अस्ताचल सूर्य के रूप में विद्यमान हैं। पूरे भारत में सूर्य देव का यही एक मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। इस मंदिर परिसर में दर्जनों प्रतिमाएं हैं। मंदिर में शिव की जांघ पर बैठी पार्वती की दुर्लभ प्रतिमा है।
करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट के प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया। यह मंदिर अत्यंत आकर्षक है।
देव सूर्य मंदिर दो भागों में बना है। पहला गर्भ गृह जिसके ऊपर कमल के आकार का शिखर है और शिखर के ऊपर सोने का कलश है। दूसरा भाग मुखमंडप है, जिसके ऊपर पिरामिडनुमा छत और छत को सहारा देने के लिए नक्काशीदार पत्थरों का बना स्तंभ है।

तमाम हिंदू मंदिरों के विपरीत पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर ‘देवार्क’ माना जाता है जो श्रद्धालुओं के लिए सबसे ज्यादा फलदायी एवं मनोकामना पूर्ण करने वाला है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध हैं, जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है, लेकिन इसके निर्माण के संबंध में अब भी भ्रामक स्थिति बनी हुई है।

सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार, ऐल एक राजा थे, जो श्वेत कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पड़ा, जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजलि में भरकर पानी पिया।

पानी पीने के क्रम में वह यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ, उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग चले गए। शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने यहां एक मंदिर और सूर्य कुंड का निर्माण करवाया था।
भगवान भास्कर का यह मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देनेवाला पवित्र धर्मस्थल है। ऐसे यहां सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग आकर मन्न्त मांगते हैं और सूर्य देव द्वारा इसकी पूर्ति होने पर अर्घ्य देने आते हैं। छठ पर्व के दौरान यहां लाखों लोग जुटते हैं।
उल्लेखनीय है कि यहां छठ पर्व करने आने वाले लोगों में न केवल बिहार और झारखंड के लोग होते हैं। बल्कि बिहार के आस-पास के राज्यों के लोगों के साथ विदेशों से भी लोग यहां सूर्योपासना के लिए पहुंचते हैं।

Monday, October 23, 2017

याद....शबनम शर्मा


Image result for याद.
बरसों बाद
पीहर की दहलीज़,
आँख भर आई, 
सोच 
बेसुध सीढ़ियाँ चढ़ना 
पापा के गले लग 
रो देना, 
हरेक का उनके 
आदेश पर गिर्द घूमना, 
खूँटी पर टंगा काला कोट, 
मेज़ पर चश्मा, ऐश-ट्रे,
घर के हर कोने में 
रौबीली गूँज।
आज घूरती आँखें, 
रिश्तों को निभाती आवाज़ें, 
समझती बेटी को बोझ, 
हर तरफ़ परायापन
एक आवाज़ बुलाती, 
जोड़ती उस पराये 
दर से ‘पापा बुआ 
आई हैं।’

-शबनम शर्मा

Sunday, October 22, 2017

संतुष्टि छीन ली......निधि सक्सेना

Image result for महत्वाकांक्षाएं
हमने उन्हें महत्वाकांक्षाएं तो दीं
परंतु धैर्य छीन लिया..
उनकी आंखों में ढेरों सपने तो बोये
पर नींदे छीन लीं..
हमने उन्हें हर परीक्षा के लिए तैयार किया
परंतु परीक्षा के परे की हर खुशी छीन ली..
हमने किताबी ज्ञान खूब उपलब्ध कराया
परंतु संवेदनायें छीन लीं..
हमने उन्हें प्रतिद्वंदी बनाया
पर संतुष्टि छीन ली..
हमने उन्हें तर्क करना सिखाया
परंतु आस्थायें छीन लीं..
हमने उन्हें बार बार चेताया
और विश्वास छीना..
हमने उन्हें उड़ना सिखाया
और पैरों के नीचे से जमीन छीन ली..
सच !! 
हम सा लुटेरा अभिभावक पहले न हुआ होगा..
~निधि सक्सेना

Saturday, October 21, 2017

ये दिये रात की ज़रूरत थे....बशीर बद्र

हर जनम में उसी की चाहत थे;
हम किसी और की अमानत थे;

उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई;
हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे;

तेरी चादर में तन समेट लिया;
हम कहाँ के दराज़क़ामत थे;

जैसे जंगल में आग लग जाये;
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे;

पास रहकर भी दूर-दूर रहे;
हम नये दौर की मोहब्बत थे;

इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया;
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे

दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना;
ये दिये रात की ज़रूरत थे।
-बशीर बद्र

Friday, October 20, 2017

हमेशा हाथ ही मलता रहा......अनिरुद्ध सिन्हा

धूप को सर पर लिये  चलता रहा
मैं ज़मीं के साथ  ही जलता रहा

नफ़रतों के  जहर पीकर  दोस्तो
प्यार के साँचे में मैं  ढलता रहा

टूटकर इक दिन बिखर जाऊँगा मैं
मेरे अन्दर  खौफ़ ये  पलता रहा

लौट आया आसमां को  छूके  मैं
जलनेवाला उम्र- भर जलता  रहा

लोग अपनी मंज़िलों को  हो लिये
वो  हमेशा  हाथ  ही मलता रहा

-अनिरुद्ध सिन्हा
गुलज़ार पोखर, मुंगेर (बिहार )811201
Email-anirudhsinhamunger@gmail.com
Mobile-09430450098  

Thursday, October 19, 2017

चंद हाईकू...नरेंद्र श्रीवास्तव


शिकारी हारा
जाल सहित पक्षी
नभ में उड़े।
*
दर्द के गीत
प्रीत लिखती रही
पत्थर देव।
*
मौन आकांक्षा
मन की बात जाने
कोई अपना।
*
शब्द व्यथित
अपरिचित जन
भाषा अंजान।
*
नदी से रेत
पर्वत से खनिज
लुटती धरा।

-नरेंद्र श्रीवास्तव


Wednesday, October 18, 2017

चंद श़ेर.....जनाब खलीलुर्रहमान आज़मी

तेरे न हो सके तो किसी के न हो सके 
ये कारोबारे-शौक़ मुक़र्रर न हो सका 
*** 
यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं 
ज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने 
*** 
क्या जाने दिल में कब से है अपने बसा हुआ 
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए
*** 
हमने खुद अपने आप ज़माने की सैर की 
हमने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त 
*** 
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा 
ज़माना लाख करे आके संगसार मुझे 
*** 
ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी 
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
*** 
उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग 
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम

-जनाब खलीलुर्रहमान आज़मी

Tuesday, October 17, 2017

तू मेरी न सुन मगर कहूँगा......निजाम रामपुरी

कहने से न मनअ' कर कहूँगा 
तू मेरी न सुन मगर कहूँगा 

तुम आप ही आए यूँ ही सच है 
नाले को न बे-असर कहूँगा 

गर कुछ भी सुनेंगे वो शब-ए-वस्ल 
क्या क्या न में ता-सहर कहूँगा 

कहते हैं जो चाहते हैं दुश्मन 
मैं और तुम्हें फ़ित्ना-गर कहूँगा 

कहते तो ये हो कि तू है अच्छा 
मानोगे बुरा अगर कहूँगा 

यूँ देख के मुझ को मुस्कुराना 
फिर तुम को मैं बे-ख़बर कहूँगा 

इक बात लिखी है क्या ही मैं ने 
तुझ से तो न नामा-बर कहूँगा 

कब तुम तो कहोगे मुझ से पूछो 
मैं बाइस-ए-दर्द-ए-सर कहूँगा 

तुझ से ही छुपाऊँगा ग़म अपना 
तुझ से ही कहूँगा गर कहूँगा 

मालूम है मुझ को जो कहोगे 
मैं तुम से भी पेश-तर कहूँगा 

हैरत से कुछ उन से कह सकूँगा 
भूलूँगा का इधर उधर कहूँगा 

कुछ दर्द-ए-जिगर का होगा बाइस 
क्यूँ तुझ से मैं चारा-गर कहूँगा 

अब हाल-ए-'निज़ाम' कुछ न पूछो 
ग़म होगा तुम्हें भी गर कहूँगा  


Monday, October 16, 2017

माँ चुप रह जाती है...............अमित जैन 'मौलिक'

मेरे हालात को मुझसे, पहले समझ जाती है
माँ अब कुछ नहीं कहती, चुप रह जाती है।

तब भी मुस्कराती थी, अब भी मुस्कराती है
माँ चुप रहकर भी, बहुत कुछ कह जाती है।

एक वक्त था जब सब, माँ ही तय करती थी
अब क्या तय करना है, तय नहीं कर पाती है।

तसल्लियों की खूंटी पर, टांग देती है ज़रूरतें
मेरी मुश्किलात माँ, पहले ही समझ जाती है।

जिसे दुश्वारियों के, तूफ़ान भी ना हिला पाये हों
वो अपने बच्चे के, दो आँसुओं में बह जाती है।

मेरी माँ कभी मेरी, जेबें खाली नहीं छोड़ती 
पहले पैसे भरती थी, अब दुआयें भर जाती है।

Sunday, October 15, 2017

कवि के हाथों में लाठी!...परितोष कुमार ‘पीयूष’


वो बात किया करते हैं
अक्सर ही स्त्री स्वतंत्रता की
बुद्धिजीवियों की जमात में 
उनका दैनिक उठना बैठना 
चाय सिगरेट हुआ करता है

साहित्यिक राजनीतिक मंचों से
स्त्री स्वतंत्रता के पक्ष में
धाराप्रवाह कविता पाठ किया करते हैं
अखबारी स्तंभों में भी 
यदा कदा नजर आ ही जाते हैं
नवलेखन, साहित्य अकादमी, 
साहित्य गौरव, साहित्य शिरोमणि, कविताश्री
और पता नहीं क्या-क्या इकट्ठा कर रखा है
उसने अपने अंतहीन परिचय में

सड़क से गुजरते हुए
एकदिन अचानक देखा मैंने
उनके घर के आगे 
भीड़! शोर शराबा! 
पुलिस! पत्रकार!
कवि के हाथों में लाठी!
मुँह से गिरती धाराप्रवाह गालियाँ!
थोड़े ही फासले पर फटे वस्त्रों में खड़ी
रोती-कपसती एक सुंदर युवती
और ठीक उसकी बगल में 
अपाहिज सा लड़खड़ाता एक युवक

इसी बीच 
भीड़ की कानाफूसी ने मुझे बताया
पिछवाड़े की मंदिर
उनकी बेटी ने दूसरी जाति में
विवाह कर लिया है

मैं अवाक् सोचता रहा
कि आखिर किनके भरोसे 
बचा रहेगा हमारा समाज
क्या सच में कभी
स्त्रियों को मिल पायेगी
उनके हिस्से की स्वतंत्रता
-परितोष कुमार ‘पीयूष’ 

Saturday, October 14, 2017

मिट्टी के घरोंदे है, लहरों को भी आना है......मनोज सिंह”मन”

मिट्टी के घरोंदे है, लहरों को भी आना है,
ख्बाबों की बस्ती है, एक दिन उजड़ जाना है,

टूटी हुई कश्ती है, दरिया पे ठिकाना है,
उम्मीदों का सहारा है,इक दिन चले जाना है,

बदला हुआ वक़्त है, ज़ालिम ज़माना है,
यंहा मतलबी रिश्ते है, फिर भी निभाना है,

वो नाकाम मोहब्बत थी, अंजाम बताना है,
इन अश्कों को छुपाना है, गज़ले भी सुनाना है,

इस महफ़िल में सबको, अपना ही माना है,
“मन” कैसा है दोस्तों, ये आपको ही बताना है,


Friday, October 13, 2017

मुक्तक.............नरेंद्र श्रीवास्तव


क़िस्मत
~~~~~
किसान के दिन
परेशानियों ने लादे
आसमान से
ओले मिले
नेताओं से वादे।
....

प्यासे
~~~~
वे
अच्छे अच्छों को
पानी पिलाते हैं
बाक़ी
प्यासे रह जाते हैं
*
प्रशंसक
~~~~~
एक नेता ने
कमाल कर दिखाया
उन्होंने
खिलौने में 
प्लास्टिक का
कुत्ता खरीदा
प्रशंसक दौड़कर
प्लास्टिक के
बिस्किट ले आया।
*
चमत्कार
~~~~~~
उनका
कुरता पायजामा
चमत्कार
दिखलाता है
काम बनाता है।
*
गड्ढे
~~~
सड़क के गड्ढे
उनके
बड़े काम आते हैं
जेब भर जाते हैं।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव