Sunday, December 31, 2017

मैं पुरूष था....नीरज द्विवेदी

मैं पुरूष था, 
नही समझ पाया 
स्त्री होने का मर्म..
वो स्त्री थी, 
जानती थी..
मेरे पुरूष होने का सच !!

-नीरज द्विवेदी

Saturday, December 30, 2017

कैसे किसको होश रहे.....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

नख से शिख तक भई सिंदूरी 
लाजवंती सी नार 
आयेगे वो आय रहे है 
सुनकर हुई गुलनार ! 

आवन को संदेशो ऐसो 
सुर छेड़े मन माही 
सरगम की सी सांसै है गई 
कानो में धड़कन पड़े सुनाई ! 

नयन मूँद निरखे मन माही 
लब स्मित मुस्कान सजे 
ऐसे मै गर आये साजन 
कैसे किसको होश रहे ! 

सात हाथ का घूँघट ओढ़ा 
उस पर लाल चुनरिया 
शर्म से लाल रुखसार हो गये 
लालम लाल बहुरिया ! 

- डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

Friday, December 29, 2017

त्राहिमाम.....डॉ. इन्दिरा गुप्ता


हाय विधाता कलम क्या कहे 
त्राही- त्राही मच रही यहाँ 
जीवित को खा रहे हो भक्षक 
कलम मौन ना रहे  वहाँ ! 

हर ओर बढ़ रहा है अनजस 
मन भी कुंद रहे भारी 
कलम भरी मसि लिख ना पाये 
क्या क्या गिनाऊँ में व्यभिचारी !  

शेष नाग अब सागर छोडो 
जग नागों के साथ रहो 
विषधर से भी अधिक विषैले 
नाग घूमते यहाँ देखो ! 

 साँसो पर पहरे है  देखो 
गिद्दों जैसे इंसा है 
नर भक्क्षो की चाहत देखो 
लाशो पर ही जिंदा है ! 

जीवित रहा ना जीवित जैसा 
मरने से पहले मर जाता 
टूट रहा प्रभु धैर्य अब तो 
और  सहा नहीँ जाता ! 

प्रभु ज़ी अब तो आसन छोड़ो 
हर ओर मची त्राही - त्राही 
जीवित रहना अब दुष्कर है 
कलम द्रवित सी हो आई ! 

कैसे चुप रहूँ में हाये 
कवि मन तो चीत्कार करे 
अति भीषण पीडा होती है 
कब तक  लेखनी मूक रहे ! 

हे मधुसूदन हे बनवारी 
हे गुणाकार हे जग पालक 
दया धर्म का नाश हो रहा 
त्राहिमाम हे गोपालक ! 

ज़रा नेत्र खोल कर देखो 
क्या थे हम क्या हो गये यहाँ 
एक बार तो सुध लो स्वामी 
धरा लोक जो तूने गढ़ा ! 

क्या प्रलय हुऐ पर आओगे
तब आकर क्या कर पाओगे 
वचन टूट जायेगा तेरा 
बस मन माही पछताओगे ! 

अति सदैव वर्जित है प्रभु ज़ी 
प्रभु तेरी हो या मेरी हो 
अति से पहले आओ गिरधर 
अब आस बची बस तेरी हो ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

Thursday, December 28, 2017

मेरा पता बता दिया....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

दस्तकें आहट से वो कुछ 
इस कदर झुँझला गया 
कौन है , किसने , किसी को 
मेरा पता बता दिया ! 

चैन से सोया हुआ था 
तन्हाई की चादर तान के 
बेवक्त सन्नाटे मै किसने 
शोर सा बरपा दिया ! 

वो नहीँ उनकी थी यादैं 
लिपट कर सोई हुई 
यहाँ भी सताने आ गये 
रूहे चैन गवाँ दिया ! 

जिये किस मानिंद अब तो 
सदाकत चिढ़ाने सी लगी 
ख्वाब , ख्याल , ख्वाहिशो पर 
तीशा किसने चला दिया ! 

राह्तेतलब कहाँ सुकूँ है 
सिर्फ जीना है गुनाह 
इश्किया चौसर पे समझो 
हमने दाँव लगा दिया ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता .✍

Wednesday, December 27, 2017

पीला पत्ता.....कुसुम कोठारी

शाख से झर रहा हूं 
मै पीला पत्ता 
तेरे मन से उतर गया हूं 
मैं पीला पत्ता
ना तुम्हें ना बहारों को 
कुछ भी अंतर पड़ेगा 
सूख कर मुरझाया सा 
मै पीला पत्ता 
छोड़ ही दोगे ना तुम मुझे 
आज कल मे
लो मै ही छोड तुम्हें चला
मै पीला पत्ता
संग हवाओं के बह चला 
मै पीला पत्ता 
अब रखा ही क्या है मेरे लिये 
न आगे की नियति का पता
ना किसी गंतव्य का
मै पीला पत्ता।। 

कुसुम कोठारी 

Tuesday, December 26, 2017

ठण्डी भीगी ऋतु....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

ठण्डी भीगी ऋतु आवन से 
गोरी मन गर्माये 
दरीचों से झाँक रही है 
सूनी सूनी राहें ! 

चाँद अकेला रात है तन्हा 
शीतलता बरसाये 
हिये फफोले से पड़े 
चंदनिया जली जाये ! 

कतरा कतरा शबनम बहे 
दस्तक देती जाय 
इंद्रधनुष से ख्वाब रंगीले 
कब सुरमई हो पाय ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

Monday, December 25, 2017

हाइकु भूमि......रामशरण महर्जन


मन के रंग
रंग देता जन को
हाइकु भूमि |

उड़ते पंछी
सवारते जीवन
स्मृति के पन्ने |

अमूल्य देह
मत फेंको वक्त पे
जीवन डालो |

बात बात को
ठुकराना नहीं तू
शब्द बाण से |

खिलौना नहीं
और से मत तौलो
बड़ी है ज्यान |

चंचल बच्चें
रंग भरता  हमें
रूठी पल में |

दुखों के आँशु
सवारता जिंदगी
शक्ति बना लो |

प्यार की डोरें
बांधता जन्म-जन्म
रिश्तें हमारा |

डूबता रहा
पहचाने आप को
झील हाइकु |

जीनें सहारा
मुश्किलों से सामना
ये हुई बात |

जगाते रहो
उम्मीदों को दीप पे
फूलों के वर्षा |
- रामशरण महर्जन
काठमाण्डू
नेपाल



Sunday, December 24, 2017

"मैं तोड़ती पत्थर।"....पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"



वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन, 
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

Saturday, December 23, 2017

शीत के बाण.......डॉ. इन्दिरा गुप्ता


जाड़ा चाबुक पीठ पर 
धाँय धाँय बरसाये 
निर्धनता बेबस होकर 
बिलख बिलख रही जाये ! 

झीनी सी ये गुदड़ी 
कब तक ठण्ड बचाय 
सर्दी भूख और गरीबी 
सदा झगड़ती जाय ! 

कोहरा भर गया झोपड़ी 
गला रहा है हाड 
दिन दूनों रात चौ गुनो 
लहू जमातों जाय ! 

जाड़ा बैरी दरिद्र को 
शीत लहर तड़पाय 
जर्रा जर्रा कोमल काया 
जाड़े से थर्राये ! 

इत ओढ़ रजाई धुँध की 
सो गया है दिनकर भी 
धूप से कुछ मिलती गर्मी 
शीत मिटाती तनि सी ! 

निर्धन का नहीँ कोई सहाई 
ईश्वर ना इन्सान 
समय ऐसा विकट है 
बदली सबकी चाल ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍


Friday, December 22, 2017

बसंत आया (ताँका).....डॉ. सरस्वती माथुर


1. 
बसंत राग
धरा गगन छाया
सुमन खिलाने को
ऋतुराज भी
कोकिल सा कूकता
मधुबन में आया।
2.
सरसों झूमा
बासंती मौसम में
खेतों में लहराया
धरा रिझाने
तरूवल्ली सजाने
बसंतराज आया।
3.
बौराया मन 
कोयलिया पंचम
राग छेड़ती डोले
ओढ़ कर चूनर
बासंती रंग संग 
फूल पात पे डोले।
4.
प्रीत के गीत
गुनगुनाता आया
पीताम्बर डाल के
बसंत छाया
कोयलिया कुहकी
पलाश दहकाया।
-डॉ. सरस्वती माथुर

Thursday, December 21, 2017

पूस की रात.....भारती दास

कांपती हड्डियाँ ठिठुरते गात 
है निर्दय सी ये पूस की रात ....
घुटनों में शीश झुका बैठे है 
कातर स्वर से पुकार उठे है 
न जाने कब होगी प्रभात , है निर्दय ....
लाचार बहुत मजबूर ये जान
संघर्ष में जीते हैं इन्सान
कुदरत देती है कठोर सी घात , है निर्दय ....
बर्फ सी बहती ठंढी बयार 
आग की लपटें है अंगीकार
निष्प्रभ लोचन बंधे है हाथ , है निर्दय ....
सभ्यता के इस दंगल में 
अंतर करना है मुश्किल में 
होकर मौन जीते चुपचाप , है निर्दय ....

-भारती दास

Wednesday, December 20, 2017

विराने समेटे.......कुसुम कोठारी

विराने समेटे कितने पद चिन्ह
अपने हृदय पर अंकित घाव
जाता हर पथिक छोड छाप
अगनित कहानियां दामन मे
जाने अन्जाने राही छोड जाते
एक अकथित सा अहसास
हर मौसम गवाह बनता जाता
बस कोई फरियादी ही नही आता
खुद भी साथ चलना चाहते हैं
पर बेबस वहीं पसरे रह जाते हैं
कितनो को मंजिल तक पहुंचाते
खुद कभी भी मंजिल नही पाते
कभी किनारों पर हरित लताऐं झूमती
कभी शाख से बिछडे पत्तों से भरती
कभी बहार , कभी बेरंग मौसम
फिर भी पथिक निरन्तर चलते
नजाने कब अंत होगा इस यात्रा का
यात्री बदलते  रहते निरन्तर
राह रहती चुप शांत बोझिल सी।
विराने समेटे..
- कुसुम कोठारी 

Tuesday, December 19, 2017

गया कैसे...??.....'तरुणा'

मुझको वो छोड़कर गया कैसे...
वो तो था हमसफ़र गया कैसे ;

दिल पे क़ाबिज़ रहा जो बरसों से....
आज दिल से उतर गया कैसे ;

मैंने जो उम्र भर समेटा था...
वो उजाला बिख़र गया कैसे ;

वो जो इक पल जुदा न रहता था..
वो गया तो मगर गया कैसे ;

ख्व़ाब में भी न था गुमां जिस पर…
दुश्मनों के वो घर गया कैसे ;

कोई ख़ूबी नज़र तो आई है...
वरना मुझ पर वो मर गया कैसे ;

सिर्फ़ उस पर ही तो ये ज़ाहिर था...
राज़ आख़िर बिखर गया कैसे ;

राब्ता गर नहीं था 'तरुणा' से....
मुझको छू कर गुज़र गया कैसे ..!!
-'तरुणा'...!!!

Monday, December 18, 2017

अक्स तुम्हारा.....डॉ. सरस्वती माथुर

1
मोर है बोले
मेघ के पट जब
गगन खोले l
2
वक्त तकली
देर तक कातती
मन की सुई l
3
यादों के हार
कौन टाँक के गया
मन के द्वार l
4
अक्स तुम्हारा
याद आ गया जब
मन क्यों रोया ?
5
यादों से अब
मेरा बंधक मन
रिहाई माँगे l
6
यादों की बाती
मन की चौखट को
रोशनी देती l 
7
साँझ होते ही
आकाश से उतरी
धूप चिरैया l
8
धरा अँगना
चंचल बालक सी
चलती धूप l
9
भोर की धूप
जल दर्पण देख
सजाती रूप l
10
मेघ की बूँदें
धरा से मिल कर
मयूरी हुई

-डॉ. सरस्वती माथुर

Sunday, December 17, 2017

मानवता


लिख रहे हैं आप
मानवता पर
लिखिए
जी चाहे
जितना हो
स्याही कलम में
खतम हो जाए 
तो और भर लो
कलम को सियाही से
सोचकर जितना
अच्छा लिखना हो
लिख डाले..और
करते रहो
प्रतीक्षा...
उसी मानवता की
जिसकी बाट आप
जोह रहे हैं
आनेवाली हर गाड़ी
देख लो...सब आएँगे
पर ,,,,,,मानवता
जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है
वो तो कबकी
निवाला बन चुकी है
आराम फरमा रही है
पेट में...
नेताओं और आतंकियों
के....पर
हजम नहीं हुई अबतक
यशोदा ..
मन की उपज

Saturday, December 16, 2017

‘मीरो-ग़ालिब’ की शाइरी रखना........................चाँद शेरी

अपने जीवन में सादगी रखना
आदमियत की शान भी रखना

डस न ले आस्तीं के सांप कहीं
इन से महफ़ूज़ ज़िंदगी रखना

हों खुले दिल तो कुछ नहीं मुश्किल
दुश्मनों से भी दोस्ती रखना

मुस्तक़िल रखना मंज़िले-मक़सूद
अपनी मंज़िल न आरज़ी रखना

ए सुख़नवर नए ख्यालों की
अपने शेरों में ताज़गी रखना

अपनी नज़रों के सामने ‘शेरी’
‘मीरो-ग़ालिब’ की शाइरी रखना
-चाँद शेरी

Friday, December 15, 2017

दो पल की जिंदगी......अवधेश प्रसाद

दो पल की जिंदगी
मुझे कोई उधार दे दे 
पतझड़ सी जिंदगी मे
थोडी बहार दे दे।
आने को कोई कह दे 
बेचैन-सी मै हो लूं 
वो आए या न आए
पर इंतजार दे दे ।
जीने पर चाहूं मरना
मरने पर चाहूं जीना
इस बेकरार दिल को
कोई करार दे दे ।
नाजुक ये नब्ज आंखें 
अब बंद होने को है
अर्थी उठाने ही को 
दो दो कहार ले ले ।
-अवधेश प्रसाद

Thursday, December 14, 2017

मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ ................कातिल सैफ़ी

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ 


आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ 
 

-कातिल सैफ़ी

Wednesday, December 13, 2017

मौत का मंतर न फेंक....डॉ. कुंवर बेचैन


दो दिलों के दरमियाँ दीवार-सा अंतर न फेंक
चहचहाती बुलबुलों पर विषबुझे खंजर न फेंक

हो सके तो चल किसी की आरजू के साथ-साथ
मुस्कराती ज़िंदगी पर मौत का मंतर न फेंक

जो धरा से कर रही है कम गगन का फासला
उन उड़ानों पर अंधेरी आँधियों का डर न फेंक

फेंकने ही हैं अगर पत्थर तो पानी पर उछाल
तैरती मछली, मचलती नाव पर पत्थर न फेंक

-डॉ. कुंवर बेचैन

Tuesday, December 12, 2017

दस क्षणिकाएँ .....सुशील कुमार

दस क्षणिकाएँ
1.

कवि बनना तो 
दूर की बात रही
मेरे लिए 
न जाने कब से 
लड़ रहा हूँ खुद से 
एक आदमी बनने की लड़ाई !

2. 

बड़े आदमी के खिलाफ 
यह बयान है केवल
इसे कविता समझने की 
भूल मत करना 
अरे, आदमी तो बन लूँ पहले!

3.

शब्द की यात्रा में 
एक भटका हुआ शख्स हूँ मैं
भूल गया हूँ कि
कहाँ से चला था
अब तक अपने उद्गम की ही तलाश में हूँ

4.

यात्रा तो तब शुरू होती है
जब कोई पता कर ले कि 
कहाँ से चला था,
अपनी यात्रा की दूरियाँ 
कैसे मापेगा वह 
कि अब तक कितनी डेग चला
प्रस्थान बिंदु ही जब मिट गई हो ?

5. 

मुझे पता नहीं कि
मैं कौन हूँ
क्या हूँ
क्यों हूँ यहाँ 
पदार्थ हूँ कि प्राण हूँ ,
देह हूँ कि देहधारी ?

6. 

इतनी यात्रा के बाद 
इतनी थकान के बाद 
यह होश आया कि जानूँ -
कहाँ से चला था 
कहाँ जाना है 
कितनी दूरी तय की ?
हरेक अगले कदम के साथ 
ली गई पिछले डेग की 
अब तक लंबाई नापता रहा हूँ।

7. 

सच और झूठ की 
इस यात्रा में 
झूठ की लंबाई तो
पूरी दुनिया जान रही
सच केवल हृदय जान रहा 
सच क्या है, इस खोज में 
घूमकर कहीं मैं 
वहीं तो नहीं पहुंच गया
जहाँ से कभी चला था ! 

8.

यह यात्रा नहीं है निरापद
जितना तुमसे लड़ा 
शेष दुनिया से भी
उससे अधिक खुद से लड़ रहा हूँ

खुद को बचाने के लिए
खुद को काट रहा हूँ
खुद को जीत कर
खुद को रोज हार रहा हूँ !

9.

इस सदी की यह 
सबसे बड़ी लड़ाई है मेरी 
न इसमें कोई अस्त्र है न शस्त्र
शंकित हूँ कि
अजेय हुआ हूँ कि पराजेय ?

10.

अपने पाँच चोरों को मारकर भी
मैं अजेय नहीं हुआ शायद !
अब सब कुछ हारकर 
बुद्ध का पता पूछ रहा हूँ 
-सुशील कुमार 
7004353450

Monday, December 11, 2017

सर्द हवा की थाप....कुसुम कोठरी


सर्द हवा की थाप ,
बंद होते दरवाजे खिडकियां
नर्म गद्दौ में रजाई से लिपटा तन 
और बार बार होठों से फिसलते शब्द 
आज कितनी ठंड है 
कभी ख्याल आया उनका 
जिन के पास रजाई तो दूर
हड्डियों पर मांस भी नही ,
सर पर छत नही 
औऱ आशा कितनी बड़ी
कल धूप निकलेगी और 
ठंड कम हो जायेगी 
अपनी भूख, बेबसी, 
औऱ कल तक अस्तित्व 
बचा लेने की लड़ाई 
कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
दो कार्य एक साथ 
आज थोड़ा आटा हो तो 
रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।
-कुसुम कोठरी...