Tuesday, January 31, 2017

छुपाता सर मैं कहां तुझ से....कृष्ण बिहारी नूर



नज़र न मिला सके उनसे उस निगाह के बाद
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद

मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता खुद को
किसी का चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद

ज़मीर कांप जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले, के हो गुनाह के बाद

कटी हुई थी तनाबे तमाम रिश्तों की
छुपाता सर मैं कहां तुझ से रस्म-ओ-राह के बाद

गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का
ज़ुबां से कह न सका कुछ ख़ुदा-गवाह के बाद

खतूत कर दिए वापस मेरी नींदें
इन्हें भी छोड़ दो इक रहम के निगाह के बाद

-कृष्ण बिहारी नूर

Monday, January 30, 2017

धीरे धीरे उतरी शाम...... धर्मवीर भारती


झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खेतों में अन्हियारी घिर आई
पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई
टीलों पर, तालों पर
इक्के दुक्के अपने घर जाने वाले पर
धीरे धीरे उतरी शाम !
आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जम्हाई ले लेकर उजियाली,
जा बैठी ताखों में
घर भर के बच्चों की आँखों में
धीरे धीरे उतरी शाम !
इस अधकच्चे से घर के आँगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे, खट्टे मीठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब झुक कर मेरे सिरहाने–
कहती है
“भटको बेबात कहीं!
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !”
धीरे धीरे उतरी शाम !
-धर्मवीर भारती

Sunday, January 29, 2017

!!! प्यारी बेटी !!!......के.पी.सत्यम



बेटी, सुनहरी धूप सी.....!
बेटी, नीम की छांव सी....!
बेटी, धन सी कामना...!
बेटी, कुल को तारना....!
बेटी, जीवन की आदि.अन्त....!
बेटी, मंदिर की साधु-संत....!
बेटी, गृहस्थ की पहली कड़ी.....!
बेटी, आनन्द की बेल चढ़ी......!
बेटी, दो कुटुम्ब की आधार-शान....!
बेटी, मधु-अमृत और सम्मान......! 
बेटी सुख-दुःख की छाया.....!
बेटी, श्रृंगार की पेटी-माया...!
बेटी, सतरंगी इन्द्रधनुष...!
बेटी, सास की साजिश......!
बेटी, कोरा कागज ......!
बेटी, भव में जहाज.....!
बेटी, तेरा क्या?... हक है......?
यह पूछने वाले आप कौन है?

-के.पी.सत्यम


Saturday, January 28, 2017

बदस्तूर...........अच्युत शुक्ल

मेरे इश्क़ का मसला ये तमाम हुआ,
मैं हुआ, बदनाम सरेआम हुआ।

मुद्दतों बाद कोई नज़र आया, 
मैं हुआ, गुल-ए-गुलफाम हुआ।

उन्होंने बाज़ार में मेरी क़ीमत जो पूछी,
मैं हुआ, भरे बाज़ार शर्मशार हुआ।

तोड़ा दिल उन्होंने काँच से कुरेद के,
बेवफ़ा मैं ही साबित उस बार हुआ।

रस्म-ए-उल्फ़त को निभाया मैंने,
गलीज़ ज़ुम्बिशों का शिकार हर बार हुआ।

-अच्युत शुक्ल

गलीज़ - असभ्य, गन्दा,  ज़ुम्बिश - हरकत, गति

Friday, January 27, 2017

शब्द.............अनिल कुमार





















शब्दों से शब्दों तलक 
दिल की गहराई का बयान 
कुछ ख़ुशी के पलों की बातें 
कुछ ख़ामोशियों के निशां 
शायद 
यूँ ही बन जाती है 
कविता, ग़ज़ल या फिर शायरी 
क्योंकि 
दिल की अनुभूतियों का
शब्दों से ही होता है बयान …
-अनिल कुमार

Thursday, January 26, 2017

पुष्पांजलि..............डॉ नन्द लाल भारती

आज़ादी की सांस सुखद
बसंत सा एहसास निराला ,
कैसे दीवाने आज़ादी के अपने 
जीये बस वे हमारे सपने
खुद विषपान किये ,
थमा गए हमें अमृत  प्याला……………
दीवाने कुछ पाये नाम ,
अनेको अनाम,अनजान शहीद कहाये
सोचो ज़रा क्या हम
दीवानो की कुर्बानी का मान दे पाये……………
स्वार्थ की नईया में हुए सवार
लोकतंत्र के पहरेदारो को भाता ,
जातिवाद -नफ़रत का पासा
और भ्रष्ट्राचार .............
दायित्व हमारा भी करे फुफकार ,
ना सहेगे जातिवाद -नफ़रत और
भ्रष्ट्राचार का बोझ ,
लोकहित में बदल देगे अपनी सोच ………
लोकतंत्र के पहरेदारो सावधान
तुम राष्ट्रवादी-विकासवादी -समतावादी
भय- भ्रष्ट्राचार मुक्त शासन- प्रशासन दो
खून देने का वक्त नहीं अब
ना बहायेंगे ना बहने देगे
हम तुम्हे मत देगे .............
यही असली आज़ादी और
आज़ादी के दिवानो को
पुष्पांजलि होगी
अमर होगा  लोकतंन्त्र ,
लोकतंत्र के पहरेदारो तुम्हारी भी तो
जय-जयकार होगी ................
-डॉ नन्द लाल भारती

आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश) 452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com

Wednesday, January 25, 2017

पानी........महेश रौतेला


पानी ज़िन्दा लगता है
समुद्र में चलते
उछलते-कूदते, गरजते,
उड़ते हुए, ओस में ढलते
बर्फ़ बनते, बादलों में सरकते
ज़िन्दगी को गीला करते
गले से नीचे उतरते
आँसुओं में झड़ते
नदियों में बहते, ताल में रहते
वृक्षों को सींचते
बरसात में बरसते।
पानी ज़िन्दा लगता है
तुम्हारी, मेरी तरह।



-महेश रौतेला

Tuesday, January 24, 2017

कविता के अभयारण्य में.....राकेश रोहित



जब कुछ नहीं रहेगा  
क्या रहेगा? 
मैं पूछता हूँ बार-बार  
भरकर मन में चिंता अपार 
कोई नहीं सुनता... 
मैं पूछता हूँ बार-बार। 

लोग हँसते हैं  
शायद सुनकर,  
शायद मेरी बेचैनी पर  
उनकी हँसी में मेरा डर है- 
जब कुछ नहीं रहेगा  
क्या रहेगा? 

नहीं रहेगा सुख  
दुःख भी नहीं  
नहीं रहेगी आत्मा, 
जब नहीं रहेगा कुछ  
नहीं रहेगा भय। 

कोई नहीं कहता रोककर मुझे 
मेरा भय अकारण है  
कि नष्ट होकर भी रह जायेगा कुछ  
मैं बार-बार लौटता हूँ  
कविता के अभयारण्य में  
जैसे मेरी जड़ें वहाँ हैं। 

मित्रों, मैं कविता नहीं करता  
मैं खुद से लड़ता हूँ 
- जब नहीं रहेगा कुछ  
क्या रहेगा?

-राकेश रोहित

Monday, January 23, 2017

लिखता नहीं तो.... राकेश रोहित
















लिखता नहीं तो मर जाता
आत्मा के अंधेरे में
उन्हीं शब्दों की रोशनी है

जो मैं तुम्हें यादकर
निर्जन में गाता !

कहता नहीं तो ढह जाता
जैसे ढह जाता है कोने का वीराल घर
जहां एकांत में बहे आंसुओं की सीलन है
और है किसी पुराने पन्ने में लिखा तुम्हारा नाम !

कही गई बात है फिर भी कहता हूँ
जैसे खिलता है खिला हुआ फूल
जैसे पुकारता हूँ तुमको सदियों पुराने नाम से
तो प्रथम स्पर्श से सिहरती है
धरती की सारी सुन्दरताएँ !

लिखता नहीं तो मैं मर जाता
कहते हुए मैं रोता हूँ  विकल, विह्वल
मैं जिस ईश्वर को याद करता हूँ
क्या वह तुम्हारी स्मृति से रचा गया है !

-राकेश रोहित

Sunday, January 22, 2017

देह और आत्मा...........अतुल चंद्रा













स्त्री!!
तुम देह हो
आत्मा भी
और तुमने सिखा है जीना
देह और आत्मा दोनों को
कि जब जब भी 
तुम पर प्रहार हुआ है
देह के खोल को
कवच बना कर
जीवित रखा आत्मा को
इसलिए 
आत्मरूपी बीज से आज तुम
पल्लवित और पुष्पित हो

पुरुष!!
तुम देह हो
और देह ही
तुम्हें कवच बनना था
आत्मा के लिए
पर रखा देह पर अधिकार तुमने
माँगा देह से ही प्यार तुमने
इसलिए
देह रूपी गंध में
समझ न सके तुम
आत्मा पल्लव और पुष्प को।
-अतुल चंद्रा

atul_chandra77@yahoo.com

Saturday, January 21, 2017

मौन..........श्वेता मिश्र











मौन मुखर प्रश्न मेरे 
उत्तर विमुख हुए जाते हैं
स्याह सी रात के साए
आ उन्हें सुलाते हैं 

नदिया चुप सी बहती है
चाँदनी मौन में निखरती है
अंतर्मन के उथल पुथल में
मौन रच बस मचलती है 

मन का कोलाहल
प्रखर हो जाता है
मौन का बसेरा मन
जब पता है 
गहरा समुद्र भी
कभी कभी मौन
हो जाता है 
एकाकी हो कर भी
चाँद सभी का कहलाता है
-श्वेता मिश्र

Friday, January 20, 2017

जन्म लेती रहें बेटियां...स्मृति आदित्य

















मुझे अच्छी लगती है 
दूसरे या तीसरे नंबर की वे बेटियां 
जो बेटों के इंतजार में जन्म लेती है....
और जाने कितने बेटों को पीछे कर आगे बढ़ जाती है, 
बिना किसी से कोई उम्मीद या अपेक्षा किए
क्या कहीं किसी घर में 
बेटी के इंतजार में जन्मे 
बेटे कर पाते हैं यह कमाल....
अगर नहीं 
तो चाहती हूं कि 
हर बार बेटों के इंतजार में  
जन्म लेती रहें बेटियां...
पोंछ कर अपने चेहरे से 
छलकता तमाम 
अपराध बोध... 
आगे बढ़ती रहे बेटियां... 
बार-बार जन्म लेती रहे बेटियां...    

-स्मृति आदित्य 


Thursday, January 19, 2017

उलटी हो गई सब तदबीरें...........मीर तक़ी 'मीर'

1722 -1810 
उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया

सारे रिन्दो-बाश जहाँ के तुझसे सजुद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझको अमान किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

किसका क़िबला कैसा काबा कौन हरम है क्या अहराम 
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सबको यहीं से सलाम किया

ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझ को राम किया

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

सायदे-सीमीं दोनों उसके हाथ में लेकर छोड़ दिए
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर हाय ख़याले-ख़ाम किया

ऐसे आहू-ए-रम ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल है
सिह्र किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको राम किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा दैर  में बैठा, कबका तर्क इस्लाम किया

-मीर तक़ी 'मीर'

तदबीरें : युक्तियाँ
तदबीरें : यौवन-काल
पीरी :वृद्धावस्था
मुख़्तारी : स्वतंत्रता
अबस : यूँ ही
रिन्दो-बाश : शराबी/ मवाली
सजुद में रहते हैं : तेरा सम्मान करते हैं
वहशत: पागलपन में
सायदे-सीमीं : चाँदी-सी बाहें
आहू-ए-रम ख़ुर्दा : ज़ख़्म खाए-हिरण
वहशत: पागलपन
राम : शांत
क़श्क़ा खींचा : तिलक लगाया
दैर : मंदिर
तर्क : छोड़

Wednesday, January 18, 2017

कद जितना भी भारी हो....अमरेन्द्र सुमन


हाकिम हो, चपरासी हो
नेता हो, व्यापारी हो
मंत्री हो, दरबारी हो
चाहे रंगरुट सिपाही हो। 

नर हो या फिर नारी हो
लम्बे बाल, दाढ़ी हो
आमद जिसकी गाढ़ी हो
कद जितना भी भारी हो। 

बनिया हो, मारवाड़ी हो
ब्राहमण हो या हाड़ी हो
सड़क हो या फांड़ी हो
सूट हो या फिर साड़ी हो। 

शासन में कड़ाई हो
आर-पार की लड़ाई हो
दुश्मन की सफाई हो
शासक की बढ़ाई हो। 

हो सीना चौड़ा सबका
चोरों की पिटाई हो
काले धन पर राजनीति की
सर्जिकल स्ट्राईक हो।

-अमरेन्द्र सुमन 
अनहद कृति से  

Tuesday, January 17, 2017

आंसुओं का बोझ..........मंजू मिश्रा


देखो...
तुम रोना मत 
मेरे घर की  दीवारें
कच्ची हैं 
तुम्हारे आंसुओं का बोझ 
ये सह नहीं पाएंगी 
-:-
वो तो
महलों की दीवारें होती हैं 
जो न जाने कैसे
अपने अंदर 
इतनी सिसकियाँ
समेटे रहती हैं और 
फिर भी
सर ऊंचा करके
खड़ी रहती हैं


Monday, January 16, 2017

मन उस पार पहुँच जाता है......डॉ. पूर्णिमा शर्मा



प्रेम बिना जीवन सूना है, प्रेम बिना जीवन नीरस है |
नहीं दिखाई पड़ता फिर भी कण कण रस से भर जाता है ||

किया प्रेम है जिसने उसको पतझर भी मधुमास है लगता 
नहीं वसंती पुष्प खिले हों, फिर भी राग वसन्त है जगता |
नहीं बहे मलयानिल फिर भी मन का बिरवा हुलसाता है 
जग का कण कण झूम झूम कर राग बहार सुना जाता है ||

नहीं कोई जो तार छेड़ कर वीणा को मुखरित कर जाए 
अन्तरतम में फिर भी मीठा राग कहीं से बज उठता है |
नहीं किसी की पायल झनकी, नहीं किसी के कँगना खनके 
इसी मौन में अनदेखा सा नृत्य कहीं पर हो जाता है ||

बिना किसी का हाथ लगे ही मन रोमांचित हो उठता है 
और अदृश्य बना सपनों में कोई गले लगा जाता है |
नहीं पास है आता कोई किन्तु पैठ जाता है मन में 
प्रेमपगा मन अनजाने ही अद्भुत रास रचा जाता है ||

किसी लोक से कोई किरण आ मन को आलोकित कर देती 
और अदृश्य वंशी की धुन फिर कोई अलौकिक राग सुनाती |
उड़ जाता मन, दूर क्षितिज में इन्द्रधनुष से रंग उभरते 
और उसी ज्योतित पथ पर चल मन उस पार पहुँच जाता है ||

-डॉ. पूर्णिमा शर्मा
गूगल + से

Sunday, January 15, 2017

उस पार का जीवन... सुशील कुमार शर्मा

मृत्यु के उस पार
क्या है एक और जीवन आधार 
या घटाटोप अंधकार।  

तीव्र आत्मप्रकाश
या क्षुब्ध अमित प्यास।   

शरीर से निकलती चेतना 
या मौत-सी मर्मांतक वेदना 
एक पल है मिलन का 
या सदियों की विरह यातना।  

भाव के भंवर में डूबता होगा मन 
या स्थिर शांत कर्मणा 
दौड़ता-धूपता जीवन होगा 
या शुद्ध साक्षी संकल्पना।

प्रेम का उल्लास अमित 
या विरह की निर्निमेष वेदना
रात्रि का घुटुप तिमिर है 
या हरदम प्रकाशित प्रार्थना।

है शरीर का कोई विकल्प
या है निर्विकार आत्मा
है वहां भी सुख-दु:ख का संताप 
या परम शांति की स्थापना।

है वहां भी पाप-पुण्य का प्रसार 
या निर्द्वंद्व अंतस की कामना 
होता होगा रिश्तों का रिसाव 
या शाश्वत प्रेम की भावना। 

-सुशील कुमार शर्मा

Saturday, January 14, 2017

ये तेरी आँखें है बोलती..... 'यासिर'


हर बयानी खलिशे-खार की तरह बयां होती 
खल्वत मे सफे-मिज़गा के मोअजे -शरोदगी है खोलती 

हनोज़ न मिल सका जवाब उन आँखों को 
मेरी रुकाशी मे न जाने कैसे -कैसे मुज़मर के साथ है डोलती 

मुश्ताक है सारी बातों को जानने के लिए 
हर नाश-औ-नुमा बात के शर-हे को जिबस है तोलती 

महवे रहती है दवाम मोअजे-ज़ार की कुल्फत मे 
ऐ-'यासिर' खामोश होकर भी ये तेरी आँखें है बोलती 

-श़ायर ज़नाब 'यासिर'
प्रस्तुतिः सिकंदर ख़ान


खार -- कांटे,  खल्वत-- तन्हाई, मिज़गा -- जूनून
शर-हे -- मतलब,  जिबस -- बहुत ज्यादा,   दवाम -- लीन

Friday, January 13, 2017

नदियां.....मृणालिनी धुले









अनन्त पथ गामिनी
होती है नदियां

घरणीधर नंदिनी
दुरूह पथ गामिनी
जीवन प्रवाहिनी
होती है नदियां

पर्वतों को लांघती
प्रस्तरों को तोड़ती
कलकल निनादिनी
होती है नदियां

हरती हैं श्रम स्वेद
मेटती कलुष-भेद
सतत आह्लादिनी
होती है नदियां

घाटी में लिखती
सभ्यता की महती
जीवन संवर्धिनी
होती है नदियां

देवालय, तीर्थ क्षेत्र
इनके हैं तट मित्र
पाप प्रक्षालिनी
होती है नदियां

कृष्णा मणिकर्णिका
कावेरी नर्मदा
अमल जल प्लावनी
होती है नदियां

ब्रम्हपुत्र सुरसरि
क्षिप्रा गोदावरी
परम पुण्य पावनी
होती है नदियां

नदियां हों संरक्षित
इनमें है अपना हित
अनन्त पथ संगिनी
होती है नदियां
-मृणालिनी धुले

Thursday, January 12, 2017

दर्द की ये भी है संगदिली दोस्तों........श्रीमती आशा शैली

हर तरफ़ से है देखी हुई दोस्तों। 
फिर भी है ज़िन्दगी अजनबी दोस्तों।।

प्यार को खोज लो हर गली दोस्तों।
प्यार की है ज़रुरत बड़ी दोस्तों।।

प्यार के बिन ग़ुज़रता नहीं एक पल,
कैसे गुज़रेगी ये ज़िन्दगी दोस्तों?

बात जब भी बहारों की होने लगी,
हम पे छाने लगी बेख़ुदी दोस्तों।।

क्या पता कब पटक दें हमें गर्दिशें,
कब कहाँ घेर ले बेबसी दोस्तों।।

ग़म के गहरे समन्दर में कर ग़र्क दे,
एक मासूम-सी सरकशी दोस्तों।।

ताब-ए-ज़ब्त अपनी भी तुम देख लो,
लब पे आई नहीं तिश्नगी दोस्तों।।

अश्क आँखों में आए न लब पे दुआ,
दर्द की ये भी है संगदिली दोस्तों।।

पास सबके यहाँ बाँटने के लिए,
इक कहानी कही-अनकही दोस्तों।।
-श्रीमती आशा शैली 
अनहद कृति से