Tuesday, January 24, 2012

अपनी राहें सब भूल गया..........................सत्यम शिवम

मै राह तुम्हारी देखते ही,
अपनी राहें सब भूल गया,
मँजिल भी तो अब तुम ही हो,
तेरे इंतजार के सिवा अब और क्या?

अंतिम साँसों की धुन पर,

ये मन बेचारा बुला रहा,
अब तो बस दिल की थमती धड़कन,
को और ना तुम धड़काओ ना।

इस राह देखते दीवाने की जिद है,
अब कैसे भी तुम आओ ना।

तुम आओ ना,तुम आओ ना......।


..........सत्यम शिवम (मेरे बाद)

दोस्त से दुश्मन भला है............................चरण लाल

दोस्त से दुश्मन भला है
दोस्त से दुश्मन भला है दोस्तों
ये पुराना सिलसिला है दोस्तों

दुश्मनों से न कोई शिकवा रहा
दोस्तों से ही गिला है दोस्तों

हमसे कतराने लगे हैं आजकल
दुश्मनों से दिल मिला है दोस्तों

हमपर जब भी वक्त का थप्पड़ पड़ा
दोस्त का चेहरा खिला है दोस्तों

जो छुरा घोंपा हमारी पीठ में
दोस्त के घर में मिला है दोस्तों

जख्म मेरा और मत उधेडिये
बहुत मुश्किल से सिला है दोस्तों .

"चरण"

Thursday, January 19, 2012

ये अशआर भी है नम...............देवी नागरानी

बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
आँखें भी रो रही हैं, ये अशआर भी है नम।

जिस शाख पर खड़ा था वो, उसको ही काटता
नादां न जाने खुद पे ही करता था क्यों सितम।

रिश्तों के नाम जो भी लिखे रेगज़ार पर
कुछ लेके आँधियाँ गई, कुछ तोड़ते हैं दम।

मुरझा गई बहार में, वो बन सकी न फूल
मासूम-सी कली पे ये कितना बड़ा सितम।

रोते हुए-से जशन मनाते हैं लोग क्यों
चेहरे जो उनके देखे तो, असली लगे वो कम।

---------देवी नागरानी

Wednesday, January 4, 2012

अब क्या करना है..........................दीप्ति शर्मा

इत्मिनान से जी लूँ
लिख लूँ कुछ नगमें
जो ज़ज्बात से भरें हों
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

गढ़ लूँ कुछ नये आयाम
सतत बढूँ दीर्घ गूंज से
ले मैं रुख पर नकाब
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

स्मरण कर उन्मुक्त स्वर
स्वछन्द गगन में टहलूं
सहजभाव से स्मृतियों में
कुछ ख्यालों को छुला लूँ
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |

महसूस कर लूँ एहसास
तेरे यहाँ आने का
बरस जाये बरखा
सावन भर आये और
तुझसे मिलन हो जाएँ
फिर सोचूँगी की मुझे
अब क्या करना है |
--- दीप्ति शर्मा
अनकही बातें
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आधुनिका...............सिद्धार्थ सिन्हा


अमीरों की फेहरिश्त में,

मैंने सुना

आती हैं वो,

मैं सोचकर यह स्तब्ध हुआ,

इतना पैसा-

करती हैं क्या?

मैं मानता था - मजबूरी है,

कंगाली का आलम है,

सो , सर पर बालों का झूरमूट है,

पैरों में अनगढे चप्पल हैं,

कपडों का ऎसा सूखा है

कि

कतरनों को जोड़-जोड़

बड़ी मुश्किल स बदन छुपाती हैं वो।



अब जाना हूँ

स्टाईल है यह,

कई कारीगरों की मेहनत है,

बड़ी बारीकी से बिगाड़ा है।

कितनी मेहनत है-- महसूस करो,

इस शक्ति का आभास करो,

आभार लेप के भार का है,

जिसकॊ सह कर हीं रैन-दिवस

यूँ हर पल मुस्काती हैं वो।



अब अपनी हीं मति पर रोता हूँ,

इस तथ्य से क्यों बेगाना था,

वे देवी हैं-- आधुनिक देवी,

घर-घर में पूजी जाती हैं,

उनका निर्धारण,रहन-सहन

मुझ गंवार के बूते का हीं नहीं,

गाँव का एक अभागा हूँ,

खुद जैसे कितनों को मैंने

कितने घरों की इज्जत को

चिथड़ों में लिपटा पाया है,

पैसों की किल्लत को मैंने

नजदीक से है महसूस किया।

अब क्या जानूँ दुनिया उनकी

मेरी दुनिया जैसी हीं नहीं।



चलो यथार्थ में फ़िर से जीता हूँ,

मस्तिष्क में उनके हित उभरी,

जो भी कल्पित आकृति है-

शायद मेरी हीं गलती है,

इस कलियुग में अमीरों की

ऎसी हीं तो संस्कृति है।

चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,

पर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,

कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,

नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,

अमीरी के इस आलम में ,

बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।

------------सिद्धार्थ सिन्हा

Tuesday, January 3, 2012

नए साल का शोर है......................गोविंद सेन


नए साल का शोर है, नई नहीं है बात।
महज नाम ही बदलते, कब बदले हालात॥

वही दिसंबर-जनवरी, वही फरवरी-मार्च।
नहीं फेंकती रोशनी, बिगड़ गई है टार्च॥

बड़ी-बड़ी है मछलियां, छोटे हैं तालाब।
चुटकीभर है जिन्दगी, मुट्टीभर हैं ख्वाब॥

खेतों में खटता रहा, होरी भूखे पेट।
भैयाजी होते रहे, निस-दिन ओवर वेट॥

हम धरती के पूत हैं, वे राजा के पूत।
वो रेशम की डोरियां, हम हैं कच्चे सूत॥

पैसा उनका ज्ञान है, पैसा उनका धर्म ।
लज्जित होते ही नहीं, करके काले कर्म॥

ऊंचाई का दंभ है, ऊंचाई से प्यार।
हाथी भी लगता उसे, चींटी जैसा यार।

महक रहे हैं आप तो, जैसे कोई फूल।
कीचड़ अपनी जिन्दगी, हम पांवों की धूल॥
 

खेती-बाड़ी, गाड़ियां, यहां-वहां दस प्लॉट।
पांच साल में हो गए, भैयाजी के ठाट॥

घरवाली भाती नहीं, परनारी की चाह।
बेघर तू हो जाएगा, घर की कर परवाह॥

मिटे नहीं हैं फासले, घटे नहीं हैं भेद।
चिंता बढ़ती जा रही, बढ़े नाव में छेद॥

-----------गोविंद सेन

छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा.........................मीना कुमारी


चाँद तन्हा है आस्माँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा इक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा

----------मीना कुमारी