Saturday, March 31, 2018

काँच की चूड़ियाँ...अनुराधा सिंह

छुम छुम छन छन करती
कानों में मधुर रस घोलती
बहुत प्यारी लगी थी मुझको
पहली बार देखी जब मैंने
माँ की हाथों में लाल चूड़ियाँ
टुकुर टुकुर ताकती मैं
सदा के लिए भा गयी 
अबोध मन को लाल चूड़ियाँ
अपनी नन्ही कलाईयों में
कई बार पहनकर देखा था
माँ की उतारी हुई नयी पुरानी
खूब सारी काँच की चूड़ियाँ

वक्त के साथ समझ आयी बात
कलाई पर सजी सुंदर चूड़ियाँ
सिर्फ एक श्रृंगारभर नहीं है
नारीत्व का प्रतीक है ये 
सुकोमल अस्तित्व को
परिभाषित करती हुई
खनकती काँच की चूड़ियाँ
जिस पुरुष को रिझाती है
सतरंगी चूड़ियों की खनक से
उसी के बल के सामने
निरीह का तमगा पहनाती
ये खनकती छनकती चूड़ियाँ

ब्याह के बाद सजने लगती है
सुहाग के नाम की चूड़ियाँ
चुड़ियों से बँध जाते है 
साँसों के आजन्म बंधन
चूड़ियों की मर्यादा करवाती
एक दायित्व का एहसास 
घरभर में खनकती है चूड़ियाँ
सबकी जरूरतों को पूरा करती
एक स्वप्निल संसार सजाती
रंग बिरंगी काँच  की चूड़ियाँ

चूड़ियों की परिधि में घूमती सी
अन्तहीन ख्वाहिशें और सपनें
टूटते,फीके पड़ते,नये गढ़ते
चूड़ियों की तरह ही रिश्ते भी
हँसकर रोकर सुख दुख झेलते
पर फिर भी जीते है सभी
एक नये स्वप्न की उम्मीद लिए
कलाईयों में सजती हुई 
नयी काँच चूड़ियों की तरह
जीवन भी लुभाता है पल पल
जैसे खनकती काँच की चूड़ियाँ.....
-अनुराधा सिंह

Friday, March 30, 2018

उदय और विलय है....डॉ. इन्दिरा गुप्ता


मन आँगन 
भाव गौरैय्या 
कैसा ये उदगम है 
दाना चुगना 
कलरव करना 
नित्य प्रति चिंतन है ! 

द्विगणित भाव 
सजे निर्मल से 
कृति समान चिन्हित है 
प्रसुन सरीखे 
पल्लवित -पुष्पित 
अमि कलश पावन है ! 

तृप्त भावना -तृप्त साधना 
तृप्ति ही 
वैभव है 
प्रणव -ओम प्रभु 
निराकार सा 
उदय और विलय है ! 

भावों की 
सम्पूर्ण अवस्था 
सहज और सरल है 
हिय मै बहती 
चिर अभिलाषा 
शाँत चित्त मनन है ! ! 

-डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

Thursday, March 29, 2018

नाते-ऱिश्ते...इंदिरा



कितने नाते टूट गए 
कितने साथी रूठ  गए 
हम तो जहाँ थे  वहीँ रहे 
ना  जाने  सब कहाँ पर छूट गए 
नए नए साथी, नए नए रिश्ते 
बने  भी और बिखर गए 
जिससे  जितनी लिखी थी 
उतना ही साथ निभा गए 
यादें ही रह जाती हैं 

बस बातें ही बच जाती हैं 
कमी बहुत खलती है  मगर
दिन भी यूं ही  गुज़र गए 
भीड़ में आँखे खोजती हैं 
भूले , भटके ,कोई मिल जाए 
पर दुनिया एक सराय  है 
बस आये, ठहरे और चले  गए 
~ इंदिरा 

Wednesday, March 28, 2018

तन्हाई....सीमा ‘असीम’ सक्सेना


जब तन्हाई छा जाती है 
नींद कहीं दूर उड़ जाती है 
वक्त की धुरी लगातार बदलती जाती है 
सज जाती है यादों की महफ़िल 
जो सुख दुःख, धुप छाँव सी 
मन को सहलाती है 
याद कभी बादल बन बरसती है 
कभी धुप बन होठों पर खिल आती है 
खुद से ही हँसना, रोना, गाना और बतियाना 
यादों की लम्बी सैर पर निकल जाना 
रात का सन्नाटा भीतर भर जाता है 
जब तन्हाई आती है 
यह बहुत सताती, रुलाती और तड़पाती है!!


-सीमा ‘असीम’ सक्सेना

Tuesday, March 27, 2018

तन्हाई.....गीता तिवारी


जब कभी किसी
तन्हा सी शाम
बैठ अकेले चुपचाप 
पलटोगे जीवन पृष्ठों को
सच कहना तुम
क्या रोक सकोगे
इतिहास हुए उन पन्नों पर
मुझको नज़र आने से
क्या ये कह पाओगे
भुला दिया है मुझको तुमने
कैसे समझाओगे ख़ुद को
बहते अश्कों में छिपकर
याद मेरी जब आयेगी
शाम की उस तन्हाई में 

-गीता तिवारी

Monday, March 26, 2018

अहसासों की नदी......सुदर्शन रत्नाकर


एक नदी बाहर बहती है रिश्तों की
एक नदी भीतर बहती है अहसासों की।

नदी के भीतर कुछ द्वीप हैं 
बन्धनों के नदी में प्राण हैं साँसों के।
नदी उफनती भी है,
नदी सूखती भी है।

कुछ बन्धन हैँ काँटों के
कुछ रिश्ते हैं फूलों के
मैंने जीवन में जो बोया है
उसको ही काटा है;
दु:ख झेला और
कतरा-कतरा सुख बाँटा है।

अपनों का दिया विष पी-पीकर
अमृत के लिए मन तरसा है;
कितनी नदियाँ झेली हैं बाहर
कितनी नदियाँ झेली हैं भीतर
एकान्त कोने में 
मन हरदम बरसा है ।
-सुदर्शन रत्नाकर

Sunday, March 25, 2018

बड़ी नादान हो तुम....रामबन्धु वत्स

"  कैनवास की उकेरी रेखाऐं,
   बड़ी नादान हो तुम,
   मुस्कुराती भी हो, मचलती भी हो,
   इंद्रधनुष के सतरंगी बुँदो की तरह ।

   तुम एक नज़रिया हो,
   किसी चित्रकार की.... बस,
   कोई नियती नहीं,
   सुनहरी धूप में खिली गुलाबी पात की तरह ।

   हम इत्तेफाक़ नहीं रखते किसी की आहट से,
   यूँ ही गली में झाक कर ....... ,
   थिड़कती भी हो, सँवरती भी हो,
   किसी आँखो के साकार हुए सपने की तरह ।"

   पता नहीं क्या आस बिछाय,
   अपनी चौखट से बार-बार,
   एकटक से क्षितिज निहार रहीं हो...,
   स्वाती बुँद की आस लगाये चातक की तरह ।

   पीली सरसों पे तितँली को मचलते देख,
   तुम भी मिलन की आस लगा लिये,
   तेज तुफाँ में भी दीये की लौ जला लिये,
   मृगतृष्णा में दौडती रेत की हिरण की तरह ।
   बड़ी नादान हो तुम ।

©रामबन्धु वत्स

Saturday, March 24, 2018

एक एहसास अनछुआ सा.....कुसुम कोठारी


झील के शांत पानी मे
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा

कहीं क्षितिज के क्षोर पर पहुंच   
काली कम्बली मे सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से  
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश  करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हो

चांद के साथ कही सुदूर प्रांत मे 
ओझल कहीं किसी गुफा मे विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ मे इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति मे
स्वयं को चांद समझ डोलते

चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात मे दुबका
खाली सूनी आँखों मे
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा मे
विरह मे जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय मे
उलझा रहेगा
इसी एहसास मे
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील मे शाम की उदासियां।

-कुसुम कोठारी

Friday, March 23, 2018

वही दर्द साथ है.....रामबंधु वत्स

वही पुरानी दास्ताँ ,
सुनी सुनी कहानियाँ,
है आसमाँ बता रहा, 
यह जमीं सुना रही ।

वही पुरानी अकड़ से ,
हवा यहाँ गुजर रही,
मेघ भी बरस रहा,
है बिजलियाँ कड़क रही ।

नया नहीं हैं कुछ यहाँ,
उम्मीद भी नहीं बची,
जो सदियों है झेलते,
बस, वही दर्द साथ है ।
-रामबंधु वत्स

Thursday, March 22, 2018

क्या करूँ....बृज राज किशोर "राहगीर"

सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
स्वयं व्याकुल हैं व्यथायें, क्या करूँ।

आधुनिकता के चले यूँ सिलसिले।
ढह रहे हैं मान्यताओं के किले।
हैं भँवर में भावना की किश्तियाँ;
दिग्भ्रमित हैं सोच वाले क़ाफ़िले।

खो गई सारी दिशायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।

जो पुरातन था, सभी बोझल हुआ।
आस्थाओं का शिखर ओझल हुआ।
आजकल तो रक्त का सम्बन्ध भी;
स्वार्थ के जल से भरा बादल हुआ।

शुष्क हैं मन की घटायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।

इक युवा चलती सड़क पर मर गया।
हर कोई उस रास्ते से घर गया।
कोई रुकने के लिए राज़ी न था;
शहर पूरा ही किनारा कर गया।

मृत हुई सम्वेदनायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
-बृज राज किशोर "राहगीर"

Wednesday, March 21, 2018

वेदना के पाँव में हैं आह के घूंघर.....गीतिका वेदिका



१】
साँस की लड़ियाँ तुड़ाये जा रहे हो!
हाथ हाथों से छुड़ाए जा रहे हो!
तुम बिना पल जिंदगी के
हो चले दूभर

२】
नीर आँखों में समोए, कंठ सूखा रूह प्यासी
जीभ में छाले पड़े हैं, आत्मा में है उदासी
वेदिका के रीतते घट
सूखता पोखर

३】
सामने सूरज चमकता, अंत अंधियारा हुआ,
प्राण का साथी हिराना, चित्त दुखियारा हुआ,
एक बित्ता जोड़ती हूँ
टूटता गजभर

४】
नाम अपना ही लिया था, था तुम्हें कुछ यों पुकारा
टूटकर गिरता नहीं अब आँचरे में कोई तारा

तुम नहीं सुन पा रहे थे
वेदिका के स्वर

#आह_वेदिका

Tuesday, March 20, 2018

एहसास......शबनम शर्मा


सौंप कर अपने दिल का
टुकड़ा तुम्हें, मैं निश्चिंत हो गई,
पर कैसे?
उग गये मेरे हृदय पटल पर
एक की जगह दो पौधे
जिन्हें साथ-साथ बढ़ता, लहराता
देखना चाहती।
छुपा लेती अपने हृदय की वेदना,
जब लू या ठंड का झोंका तुम्हें
हिला जाता।
शायद कभी एहसास हो तुम्हें, कि
कितना कठिन होता, अपने जिगर
का टुकड़ा किसी को सौंपना
व अपनी अमानत उसकी
झोली में डालना।

-शबनम शर्मा

Monday, March 19, 2018

उड़ान....उर्मिल

मोह माया  का  बना हिंडोला ,
अहंकार की  चमक रही डोरी !
लालसा  का  बिछा  है पाटा,
मन  का परिंदा पर फैलाया,
चाह  जगी अम्बर छूने की...!!

ऊँची ऊंची पींगे भरता ,
स्वप्नजाल में उलझा रहता!
हिचकोले खाता ऊपर नीचे ,
तृष्णा की भूख मिटा नही पाता!
समय चक्र चलता रहता ,
इन्सान इसी में भुला रहता!

इस भूलभुलैया की नगरी में,
बीत गई जिन्दगानी सारी!
जब अन्त समय आया,
आगाध तिमिर ने घेरा!
विस्मृत हुवा हिंडोला सुख,
प्रभु को देने लगा दुहाई!!

#उर्मिल

Sunday, March 18, 2018

आपको अपनी अदा की ताज़गी पर नाज़ है.....आर.पी. घायल

 
आपको  अपनी  अदा की  ताज़गी  पर  नाज़  है
हमको भी अपनी  वफा  की  सादगी पर नाज़  है

आपसे  लिपटी  हुई  पुरवाई  को  हम  क्या  कहें
आपको   पुरवाई   की   आवारगी  पर  नाज़   है

आपकी  आँखों  ने  हमसे तल्ख़ियों  में बात  की
आपको आँख की इस  नाराज़गी  पर   नाज   है

आपने दिल  के जो टुकडे कर दिये तो क्या  हुआ
हमको अपने  दिल  की इस दीवानगी पर नाज़  है

आपको  ‘घायल’   मुबारक  आपकी   संजीदगी
हमको   हँसती-खेलती  इस ज़िंदगी  पर नाज़ है

-आर.पी. घायल

Saturday, March 17, 2018

इस ज़मीं के बागवाँ.....सतीश सक्सेना

इस ज़मीं के बागवाँ भी, क्या करें?
बिन बुलाये ख़ामख़ां भी, क्या करें?

अब ये जूता और थप्पड़ ही सही!
इस वतन के नौजवां भी, क्या करें?

भौंकने पर इस कदर नाराज़ हो
ये बेचारे, बेजुबां भी, क्या करें?

हाले धरती, देख कर ही रो पड़े, 
दूर से ये आस्मां भी, क्या करें?

लगता इस घर में कोई बूढा नहीं 
अब हमारे मेज़बाँ भी, क्या करें?

झाँकने ही झाँकने, में फट गए, 
ये हमारे गिरेबां भी, क्या करें?

तालियाँ, वे माँग कर बजवा रहे
ये ग़ज़ल के कद्रदां भी, क्या करें?
-सतीश सक्सेना

Friday, March 16, 2018

वो देवी थी या पिशाचिनी थी...पूजा

एक बेचारी
एक बड़ी 
लिए छड़ी
वह थी खड़ी –
मैंने पूछा, कौन हो तुम?
कुछ ना बोली
हो गई गुम

मैं हैरान थी --
वो देवी थी
या पिशाचिनी थी
सोचकर धड़का मन
तभी आहट आई
छन --

उफ ! रूह कांप गई
गला सूख गया
देख के उसको दिल डूब गया

गर्द भरे रूखे केश लहराते थे
पीत मुख पर 
उदासी के साये गहराते थे
शरीर जर्जर, आंखें वीरान थीं
पपड़ाये होठों पर दर्द भरी
अधूरी सी मुस्कान थी

एक बड़ी लिए छड़ी
सच, वही तो थी खड़ी !
पूछा कौन हो तुम ?
बोली-- जानना है तो सुन

मैं दुखियारी हूँ,गमों की मारी हूँ
कुछ पूजते हैं,बाकी लूटते हैं
खरीदते हैं, बेचते हैं
निर्दोष हूँ पर मारते कूटते हैं
दिखाकर लाठी कहा -- 
यह मेरी वोट रूपी शक्ति है
आह! इसी से मुझे सरेआम पीटते हैं
प्रजातंत्र की मुझे मिली है सजा
मैं प्रजा हूँ --- एक बेचारी प्रजा 

© पूजा
27/6/85

Thursday, March 15, 2018

प्रलय का सब समां बांधे....डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन जी



अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है? 

गगन में गर्व से उठउठ, गगन में गर्व से घिरघिर,
गरज कहती घटाएँ हैं, नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रलय का सब समां बांधे, प्रलय की रात है छाई,
विनाशक शक्तियों की इस, तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?

प्रभंजन, मेघ दामिनी ने, न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच, कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है 
-डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन जी
सौजन्यः सखी कुसुम कोठारी

Wednesday, March 14, 2018

ज़िन्दगी एक सफ़र है...........रामबन्धु वत्स


ज़िन्दगी एक सफ़र है,
कोई होड़ नहीं,
कुछ देर इस मोड़ पर ठहरते है...
पल-दो-पल जीने के लिए ।

मानते हो मंजिल जिसे,
वहाँ भी अधूरे ख्वाब है,
हर हथेली में यहाँ,
सिकुड़ा आँसमान है।

कब तलक दौड़ते रहोगे,
सड़क के सफ़र में,
वक़्त जीने में ही,
आदमी की शान है।

ज़िन्दगी एक सफ़र है,
कोई होड़ नहीं,
कुछ देर इस मोड़ पर ठहरते है..
पल-दो-पल जीने के लिए ।

©रामबन्धु वत्स

Tuesday, March 13, 2018

जो भी देगा, रब देगा ....देवमणि पांडेय


जो भी देगा, रब देगा 
सोच रहा हूं कब देगा 

जीते जी मर जाऊं क्या 
जन्नत मुझको तब देगा 

जिसने दी है ज़ीस्त हमें 
जीने का भी ढब देगा 

बहुत भरोसा है जिस पर 
धोखा मुझको कब देगा 

और किसी से मत मांगो 
ऊपर वाला सब देगा 

होगी रहमत की बारिश 
वो गूंगे को लब देगा

कितनी ख़ुशियां दीं उसने 
ग़म का तुहफ़ा अब देगा 
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~देवमणि पांडेय 
प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

Monday, March 12, 2018

चीखो, बस चीखो..... स्मिता सिन्हा

चीखो 
कि हर कोई चीख रहा है 
चीखो 
कि मौन मर रहा है 
चीखो 
कि अब कोई और विकल्प नहीं 
चीखो 
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ 
चीखो 
कि सब बहरे हैं 
चीखो 
कि चीखना ही सही है 
चीखो 
बस चीखो 
लेकिन कुछ ऐसे 
कि तुम्हारी चीख ही 
हो अंतिम 
इतने शोर में

-स्मिता सिन्हा 

प्राप्ति स्त्रोतः

Sunday, March 11, 2018

अनुरोध.............अजन्ता शर्मा


हे बादल!
अब मेरे आँचल में तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिये
ढेरों मुस्काते रंग
मेरा ज़िस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ के तले
दबा है।
उस तमतमाये सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते...
कि एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें...
बादल! तुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?

-अजन्ता शर्मा

Saturday, March 10, 2018

हाइकु.....अज्ञात

अंधेरा/अंधकार/तम/तिमिर
सुहागहीन 
अमावस की रात 
तिमिर घोर।

हवा डराया
डटा रहा दीपक
तम की ओर।

दीपक पांव
तम काटी चिकोटी
नेकी का जोर।

तम की छाती
चढ़ गया दीपक 
रोशनी शोर।

छंटा अंधेरा
पूरब में सूरज
हो गई भोर।
-अज्ञात

Friday, March 9, 2018

हायकु .....अज्ञात रचनाकार

सागर/जलधि/समुद्र
प्रेम सागर
कूद गई लड़की
खेल इश्क का।

लड़की गुम
डूब गया आशिक 
सागर शांत।

खारा सागर 
डूबा महासागर 
प्रेम तलाश।

मौन प्रेम में 
भीगा नीरनिधि 
अमृत आस।

नीर नयन 
समाधि में जलधि
प्रेम भंवर।
-अज्ञात रचनाकार

Thursday, March 8, 2018

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार....त्रिलोचन


खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा
मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
हिलो-मिलो फिर एक डाल के
खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया
अपने पन में जीवन आया 
-त्रिलोचन

Wednesday, March 7, 2018

गाँठ में बाँध लाई थोड़ी सी कविता................डॉ. शैलजा सक्सेना

आँचल की गाँठ में
हल्दी-सुहाग में 
साथ-साथ बाँध लायी अम्माँ की कविता!

चावल-अनाज में
खील की बरसात से
थोड़ी सी चुरा लायी जीवन की सविता!

मढ़िया की भीत पे
सगुन थाप प्रीत से 
सीने से लगाय लाई थोड़ी सी कविता।

मैया ने अच्छर दिये
बापू ने भाषा दी
भैया के जोश से उठान लाई कविता।

सासू जो बोलेगी
ताने यदि गूँजेंगे,
तकिया बनाय आँसू पोंछेगी कविता!

रौब कोई झाड़ेगा
शेर सा दहाड़ेगा
खरगोश सी सीने में दुबकेगी कविता।

पेट भले भूखा हो
जीवन चाहे रूखा हो
जीवन को जीवन बनाय देगी कविता।

ए मैया, उपकार किया
मुझ को पढ़ाय दिया
मुश्किल की घड़ियों में साथ देगी कविता। 

आँसू में गीत पलें,
लोरी में नींद जले,
जीवन को नदिया बनाय देगी कविता।
-डॉ. शैलजा सक्सेना