Thursday, April 30, 2020

चिता जलने को है अब राक्षस की ...शम्स उर रहमान अलवी

ज़मीं पर ज़ुल्म की हद जो रही है
खुदाया पार अब वोह हो रही है

जहाँ में मौत का ही रक़्स जारी
अज़ल* से ज़िंदगी बस रो रही है

ज़रा पूछो तो उसका दर्द जा कर
ज़मीं ये बोझ कैसे ढो रही है

अदब तहज़ीब थी जिसकी विरासत
खबर उस नस्ल को क्या खो रही है

चिता जलने को है अब राक्षस की
तभी तो रौशनी सी हो रही है
-शम्स उर रहमान अलवी 
अज़ल*- अनादिकाल

Wednesday, April 29, 2020

जीना भी इक मुश्किल फन है ..डॉ. राही मासूम रजा

जीना भी इक मुश्किल फन है 
सबके बस की बात नहीं 
कुछ तूफान ज़मीं से हारे, 
कुछ क़तरे तूफ़ान हुए 

अपना हाल न देखे कैसे, सहरा भी आईना है 
नाहक़ हमने घर को छोड़ा, नाहक़ हम हैरान हुए 

दिल की वीरानी से ज्यादा मुझको 
है इस बात का ग़म 
तुमने वो घर कैसे लुटा 
जिस घर में मेहमान हुए 

लोरी गाकर जिनको सुलाती थी दिवाने की वहशत 
वो घर तनहा जाग रहे है, वो कुचे वीरान हुए 

कितना बेबस कर देती है 
शोहरत की जंजीरे भी 
अब जो चाहे बात बना ले 
हम इतने आसान हुए 
- डॉ. राही मासूम रजा

Tuesday, April 28, 2020

दिल में बस वफा है ...प्रीती श्रीवास्तव

मुहब्बत की ये कैसी दास्तां है।
अश्क आँखों में दिल में बस वफा है।

कभी दीदार किया शामों सहर तक।
कभी दुश्वार मिलना भी हुआ है।।

निभायी हमने सिद्दत से कसमें भी।
मगर फिर भी मिली हमको जफा है।।

बसी है दिल में यारों की मुहब्बत।
मेरे दिल से बस निकलती दुआ है।।

रहें आबाद वो चाहे जहां हो।
खुदा शायद यही अब चाहता है।

हुई मुद्दत उसे देखे हुये तो।
बिना उसके जीना लगता सजा है।।

उसे आवाज देकर भी बुलाया।
बेरूखी से मेरा दिल ही दुखा है।।

देखा जो आसमाँ की ओर यारा।
तो हमको चाँद भी फीका लगा है।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Monday, April 27, 2020

मैं क्या करूू ...डॉ. अख़्तर खत्री

सिर्फ़ तुम हो, ख़याल या ख़्वाब, क्या करूँ ?
तुम अब याद आ रहे हो बेहिसाब, क्या करूँ ?

कोई बसता ही नहीं, तुमसे बिछड़ने के बाद,
ज़हन ये मेरा तुम्ही से है आबाद, क्या करूँ ?

इंतेज़ार का मौसम बिता ही नहीं कभी भी,
रोज़ लग रहा कि आओगे आज, क्या करूँ ?

ख़लिश हर जगह, कमियां हर लम्हे में है,
सूनी ये ग़ज़लें, सूने है अल्फाज़, क्या करूँ ?

अब तो सुन लो तुम इल्तेजा 'अख़्तर' की,
रूह अब ये होने को है आज़ाद, क्या करूँ ?
-डॉ. अख़्तर खत्री

Sunday, April 26, 2020

महाभारत का युद्ध और माँ

जब कभी फुर्सत मिलती है
तो माँ के बारे में सोचता हूँ
वह कभी घण्टी तो कभी हारमोनियम लगती है
थाली और कटोरी बजाती हुई माँ
कभी हँसुआ तो कभी दराँती लगती है
घास के गट्ठर में दबी हुई माँ
रविवार को बचाकर रखना चाहती है सिर्फ अपने लिए
वह देख सके इतमिनान से महाभारत का युद्ध
माँ को समझ नहीं आती बड़ी-बड़ी बातें
बहुत खुश नजर आती है माँ जब-
एक-एक के मरते हैं कौरव
पांचाली के चीर हरण पर-
बहुत जोर-जोर से रोती है माँ।
-कुमार कृष्ण

Saturday, April 25, 2020

हृदय परिवर्तन ...ओशो


एक राजा को राज भोगते हुए काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि यदि वे चाहें तो नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा -

"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।
एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय ।"

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

जब यह बात गुरु जी ने सुनी तो उन्होंने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वैश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।"

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वैश्या मत कह, ये तो अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई,  मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा -"पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

प्रशंसा से पिघलना नहीं चाहिए, 
आलोचना से उबलना नहीं चाहिए । 
नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहें । 
क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, 
सब धरा रह जायेगा।

-ओशो

Friday, April 24, 2020

मेरी फ़ितरत में है लड़ना ...निजाम फतहपुरी

ग़ज़ल- 212  212  212  212
अरकान- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
दूर  मुझसे न  जा  वरना  मर जाऊँगा 
धीरे-धीरे   सही   मैं   सुधर    जाऊँगा  

बाद  मरने   के   भी   मैं   रहूँगा   तेरा 
चर्चा होगी  यही  जिस  डगर  जाऊँगा  

मेरा  दिल  आईना  है   न   तोड़ो  इसे 
गर ये टूटा तो फिर  से  बिखर जाऊँगा  

नाम  मेरा  भी  है   पर  बुरा  ही   सही 
कुछ न कुछ तो कभी अच्छा कर जाऊँगा

मेरी फ़ितरत में है लड़ना सच के लिए 
तू  डराएगा  तो  क्या  मैं  डर जाऊँगा  

झूठी दुनिया में दिल देखो लगता नहीं 
छोड़ अब ये महल अपने घर जाऊँगा  

मौत सच है यहाँ बाक़ी धोका "निज़ाम" 
सच ही कहना है कह के गुज़र जाऊँगा  
- निजाम फतेहपुरी

Thursday, April 23, 2020

घरों में बंद हो कर जीतना है ....अखिल भंडारी


गली कूचों में सन्नाटा बिछा है
हमारे शहर में क्या हो रहा है

ये किस ने ज़हर घोला है फ़ज़ा में
ये कैसा ख़ौफ़ तारी हो गया है

गले मिलना यहाँ की रीत कब थी
मिलाना हाथ भी दूभर हुआ है

सभी चेहरे नक़ाबों में छुपे हैं
सभी के दरमियाँ इक फ़ासला है

दुकानें बंद हैं अब शहर भर में
निज़ाम-ए-ज़िंदगी बदला हुआ है

हुए हैं क़ैद अपने ही घरों में
कि दुश्मन का अजब ये पैंतरा है

अजब ये जंग-ए-पोशीदा है इस को
घरों में बंद हो कर जीतना है

किरण उम्मीद की अब दिख रही है
उफ़ुक़ के पार कोई नूर सा है
-अखिल भंडारी 
पोशीदा = अदृश्य
उफ़ुक़ = क्षितिज



Wednesday, April 22, 2020

चाँद की व्यथा ....राजनन्दन सिंह


चाँद की व्यथा ....
ओ मानव!
आज देखा तुमने 
मुझे ग़ौर से 
मैं तो सदियों से 
ऐसा ही हूँ 
रोज़ आता हूँ ,
रोज़ जाता हूँ 
ख़ुद ताप सहकर
सारे जग को
अपनी शीतलता 
बिना भेदभाव
प्रदान करता हूँ 
कोमल किरणों से 
मानव मन में 
मधुरता भरता हूँ 
प्रेमियों के  मन में 
प्रेम का संचार 
करता हूँ .......


इस मशीनी युग 
की भागदौड़  में
मुझे देखने का 
कभी तुमको 
समय ही ना मिला 
तुम प्रकृति से दूर 
अप्राकृतिक जीवन 
जीने मे व्यस्त रहे 
समय का अभाव रहा 
जीवन बरबाद रहा .....


कवियों का कहा 
तुमने सर झुका 
मान लिया !
अपनी नज़र से गर
मुझे देखते-परखते 
चाँदनी के साथ मेरे 
ज़ख़्म भी दिखते 
कोमल किरणों का
दर्द भी अनुभव होता ......


कानों के कितने 
कच्चे हो तुम !
आज किसी ने 
कह दिया कि 
उल्टा हो गया हूँ मैं 
तो झट मान लिया?
पर चलो 
इस बहाने से तुमने 
मुझको ग़ौर से 
कुछ देर निहार 
तो लिया....

-राजनन्दन सिंह

Tuesday, April 21, 2020

पेड़ .....डॉ. शैलजा सक्सेना


पेड़ 
तुम्हें धन्यवाद 
पिता और प्रपिताओं से खड़े हो 
सदियों से 
हमें सुख देने को.,.
पेड़! तुम्हें धन्यवाद ।


तुम्हारे 
खुरदुरे शरीर पर हाथ फिराती 
सोच रही हूँ 
कि तुम क्या सोच रहे हो?
तुम्हारी धड़कन नहीं सुनाई देती 
पर तुम हहराने लगते हो पत्तियों की आवाज़ में 
ख़ूब बोल सकते हैं पेड़ हवाओं की अनुमति पर 
पूरा जंगल बोल रहा है
गिलहरियों, झींगुरों की आवाज़ में


मैं तुम्हारे झुके तने पर बैठी 
अपनी सारी कल्पना लिए  
तुम्हारे जड़ों की सोच तक घुसने को इच्छुक!


तुम जाने किस स्वर में गूँजने लगे मेरे भीतर 
“इच्छा है 
व्याकुलता नहीं, 
इसी से पहुँच नही पाती जड़ों के सत्य तक “ 


तुम व्याकुल होती तो बुद्ध हो जातीं  
पातीं मुझ से होकर सत्य तक जाने की राह
तुम स्नेहिल होती तो कृष्ण हो जाती  
पातीं मेरी डालों पर पड़े झूले की पींग में प्रेम का आकाश
तुम प्रेमी होतीं तो राम हो जाती
पूछती मुझ से अपने खोये अर्धसत्य का पता  
तुम जिज्ञासु होतीं तो न्यूटन हो जाती 
पातीं मनुष्य की विराटता से बड़ा है धरती का गुरुत्व  


कोई ऋषि हो जाती अगर साधक होती तो 
मेरी जड़ों पर बैठ स्वयं में पैठतीं!


तुम केवल इच्छुक हो  
इच्छा लहर है संकल्प और विकल्प की 
समर्पणहीन सी !
मैं समर्पित हूँ धरती को 
हवा को 
बादल और आकाश को.. 
सदियों का समर्पण 
ही कर पाता है अर्पण कुछ 
अपने को या दूसरे को..”
गूँजा जाने किस स्वर में मेरे भीतर पेड़
मिट्टी के सच की तरह!!
मैं चुपचाप उठी और जंगल के दो फूल उस वृक्ष के नीचे रख,
चल पड़ी!
लगा,
हर वृक्ष बोधि वृक्ष है 
जिसे प्रतीक्षा है अपने लिए किसी शुद्ध मन
बुद्ध की!!

-डॉ. शैलजा सक्सेना

Monday, April 20, 2020

क्या कमी थी मुझमें ....अर्जुन थापा 'चिन्तन'

दफन थी जो बात दिल में
वो बात मैंने किसी से कहा नहीं

मिलने का वादा कर
तु मिलने आई क्यों नहीं

क्या कमी थी मुझमें दिल का जख्म
तेरी यादों से अभी तक भरा नहीं

इन आँखों में अब भी तेरा इन्तजार
वादा कर तु मिलने आई क्यों नहीं

ढू़्ंढा तुझे कहां-कहां
तेरा मकां मुझे मिला नहीं

दिल की बात रह गई दिल में
मोहब्बत का इजहार मुझसे हुआ नही

करता रहा मैं प्यार तुझसे
दुबारा तेरी सूरत दिखाई दी नहीं

-अर्जुन थापा 'चिन्तन'

Sunday, April 19, 2020

शब भी जाती है पर सहर करके ....‘ग़ाफ़िल’

क्या मिला इसको मुख़्तसर करके
लुत्फ़ था ज़ीस्त का सफ़र करके

ख़्वाहिश अपनी कभी तो हो पूरी
जाए हमको भी कोई सर करके

न मिला जो मुक़ाम जीते जी
पाते देखा है उसको मर करके

जाए जब तो ख़बर करे न करे
आए कोई तो बाख़बर करके

कोई हँसता है दर-ब-दर होकर
कोई रोता है दर-ब-दर करके

कोई जी को कभी न जी समझा
कोई रहता है जी में घर करके

ग़ाफ़िल ऐसे ही जाना क्या जाना
शब भी जाती है पर सहर करके

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 18, 2020

दरीचे से वो जब भी झांकता है ...नवीन मणि त्रिपाठी

1222 1222 122
निगाहों से हुई कोई ख़ता है ।
जो दिल तुझसे वो तेरा मांगता है ।।

रवानी जिस मे होती है समंदर ।
उसी दरिया से रिश्ता जोड़ता है ।।

हमारी ज़िन्दगी को रफ्ता रफ्ता ।
कोई सांचे में अपने ढालता है ।।

तुम्हारे हुस्न के दीदार ख़ातिर ।
यहाँ शब भर ज़माना जागता है ।।

कभी तुम हिचकियों से पूछ तो लो ।
तुम्हे अब कौन इतना चाहता है ।।

ठहर जाती हैं नज़रें बस वहीँ पर ।
दरीचे से वो जब भी झांकता है ।।

बरसने की जवां होती है ख्वाहिश ।
ये बादल जब ज़मीं को देखता है ।

नहीं सँभलेगा उससे दिल हमारा ।
जो डोरे रोज़ हम पर डालता है ।।

यकीनन वाम पे उतरेगा चंदा ।
वो हाले दिल हमारा जानता है ।।

न जाने कैसी है ये कहकशां भी।
सितारा हो के रुस्वा टूटता है ।।

मुक़द्दर जब बुरा होता है यारो ।
कोई अपना कहाँ पहचानता है ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

Friday, April 17, 2020

10 हाइकु ...मंजू मिश्रा

हाइकु

1.
सर्दी ने छीने
जो पेड़ों के गहने
लाया वसंत
2.
तितलियों ने
वासंती खत लिखे
मौसम के नाम
3.
सर्दी की भोर
चमकतीं, हीरे सी
ओस की बूँदें
4.
रात रोई थी
चमक रहे दूब पे
ओस- से आँसू
5.
लाया वसंत
खुशियों की आहट
बिखरे रंग
6.
उड़ते ख्वाब
हवा की डोरी संग
जैसे पतंग
7.
ढल रहा है
सागर की गोद मे
थका –सा सूर्य
8.
पुल के पार
डूब रही है साँझ
लाल सिंदूरी
9.
मिल रहा है
धरती से आकाश
दृष्टि का भ्रम
10.
रात झील में
दूध के कटोरे सा
उतरा चाँद
-मंजू मिश्रा
मूल रचना

Thursday, April 16, 2020

कभी रोता हूँ गाता हूँ ...केदारनाथ "कादर"

बहुत नाजुक सा रिश्ता है
जो मैं खुद से निभाता हूँ
बंधा हूँ मैं कहीं पर
ये भी अक्सर भूल जाता हूँ

दिल के तन्हा सफ़र में
भीड़ चारों ओर रहती है
मैं लिखकर नाम तारों में
हर सुबह मिटाता हूँ

खुशबू बदन तेरे की है
अब भी मेरी सांसों में
जिक्र तेरा हुआ जब भी
मैं नाम अपना बताता हूँ

तेरी यादों की नाज़ुक कसक
है मेरे दिल का सरमाया
इसी की वजह से "कादर"
कभी रोता हूँ गाता हूँ

-केदारनाथ "कादर"

Wednesday, April 15, 2020

बस यूं ही ...प्रीती श्रीवास्तव

मैनू याद उसकी आती रही सारी रात।
दिल मेरा ही जलाती रही सारी रात।।

वो साला ओड़ कर कम्बल सोता रहा।
मैं तकिये लगाकर रोती रही सारी रात।।

बड़ा निर्दयी बड़ा निष्ठुर था वो हरजाई।
मै अपना चैन शुकूं खोती रही सारी रात।।

सारा दिन खत लिखे मैने उसकी याद में।
ख्वाब खत में संजोती रही सारी रात।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Tuesday, April 14, 2020

मेरी आँखों मे रहता है... दिलीप


मेरी आँखों मे रहता है, मगर गिरता नहीं...
अजब बादल बरसता है, मगर घिरता नहीं...

मेरे टूटे हुए घर में, बड़ी हलचल सी है...
कोई इक दौर रहता है, कभी फिरता नहीं...

बड़ी अंजान नज़रों से मुझे बस घूरता है...
मेरा ही अक्स मुझसे आजकल मिलता नहीं...

ज़ख़्म उधड़ा हुआ बतला रहा है आज ये...
जमाना नोचता है बस, कभी सिलता नहीं...

किसी को दे भी दो दिल चुभता बहुत है...
वो इक काँटा है, जो कभी खिलता नहीं....

वही सड़क, वही गलियाँ, वही मौसम मगर...
खोया सा कुछ है, जो मुझे मिलता नहीं...

सुनाऊं क्या बताओ महफ़िलों में मैं उसे...
शेर मेरा मुझे ही आजकल झिलता नहीं...

Monday, April 13, 2020

आदमी की नीयत बिगाड़ देती है ...विनोद प्रसाद

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, पाठ और बाहर
अच्छे अच्छों को बुरी सोहबत बिगाड़ देती है
एक दीवार महज घर की सूरत बिगाड़ देती है

मालूम न हो आप को फरज़न्द हैं बड़े घर के
मज़लूमों की भूख जब गुरबत बिगाड़ देती है

जेबें खाली हों, फिर शौक दिल में क्या रखना
लोगों को गैर मुनासिब जरुरत बिगाड़ देती है

अपनी ही मिल्कियत से मुत्तफ़िक अगर नहीं
बाज बेवक्त आदमी की नीयत बिगाड़ देती है

जज़्बा ए उल्फत से है बची रौनकें जहान की
नफरत की चिनगारी तो जन्नत बिगाड़ देती है

खुदगर्ज ख़्वाहिशों की चाहत तो नहीं होती है
इल्जाम किसलिए कि उल्फत बिगाड़ देती है
-विनोद प्रसाद

Sunday, April 12, 2020

ख़ुदा ख़ैर करे' ...डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

2122 1122 1122 22

तेरी आँखें हैं ख़ता वार ख़ुदा ख़ैर करे' ।
दिल हुआ मेरा गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

ज़मीं की तिश्नगी को देख रहा है बादल ।
आज बारिश के हैं आसार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

नाम आया है मेरा जब से सनम के लब पर ।
पूरी बस्ती हुई बेज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

हर तरफ़ उनकी अदाओं पे हुआ हंगामा ।
ज़िंदगी जीना है दुश्वार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

बिजलियाँ खूब गिराते हैं नशेमन पे सनम।
सब्र की टूटे न दीवार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

अब तो मासूम दिलों पर है उसी का कब्जा ।
हुस्न की चल रही सरकार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

कास आएं तो सही आप मेरी महफ़िल में ।
बज़्म हो जाए ये गुलज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

लोग उल्फ़त की तिज़ारत का तक़ाज़ा लेकर ।
खुद ब खुद आ रहे बाज़ार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

अपनी ताक़त पे जो इतरा रहे थे दुनियाँ में ।
आज वो मुल्क भी लाचार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

वो क़यामत है क़रोना की तरह छूते ही ।
दिल हज़ारों हुए बीमार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

क़ैद हूँ घर में मिलूं भी तो भला कैसे मिलूं ।
याद तड़पाये बहुत बार ख़ुदा ख़ैर करे ।।

-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

Saturday, April 11, 2020

बहारों के मौसम में ...प्रीती श्रीवास्तव

मुहब्बत को आँखों से छलका रहे हो ।
मुझे तुम बहुत आज बहला रहे हो।।

बयां हो रहा है नजर से तुम्हारे।
कि तुम मुझसे फिर आज घबरा रहे हों

अभी कह दो जो मुझसे है तुमको कहना।
बिना बात क्यूं बात उलझा रहे हो।।

जो ढल जायेगी शाम फिर क्या करोगे।
बहारों के मौसम में शरमा रहे हो।।

कोई गैर ले जायेगा फिर उठाकर।
अभी कुछ भी कहने से इतरा रहे हो।

कहो राज दिल में छुपा क्या तुम्हारे।
यो गुप चुप से तुम क्यों चले जा रहे हो।।

कहीं रह न जाये ये फिर से अधूरी।
नयी बात कोई तो समझा रहे हो।।
-प्रीती श्रीवास्तव

Friday, April 10, 2020

छेड़ो धुन प्यार की ...प्रीती श्रीवास्तव

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जाम हाथों से अपने पिलाओ कभी।
फूल गजरे में हंसकर सजाओ कभी।

आके महफिल में कोई गजल बाबहर।
खूबसूरत सी हमको सुनाओ कभी।।

मोह ले मन मेरा मुग्ध होके कहूं।
वाह यारों गजल फिर से गाओ कभी।

सुर बिना ताल बिना गजल गायकी।
कर दे मदहोश ऐसी सुनाओ कभी।।

गाके तुम एक गजल छेड़ो धुन प्यार की।
भाव सुन्दर सनम तुम दिखाओ कभी।।
-प्रीती श्रीवास्तव