Tuesday, February 28, 2017

खुल जा सिम-सिम........डॉ. सरोज गुप्ता



बाखुशी दी चाबी आप को !
दिखाओ न आँखें बाप को !!

बुझी राख में भी है आग !
धुआं न समझो भाप को !!

हार जीत तो होती रहती है !
बीच में छोड़ा क्यों जाप को !!

करें भरोसा वरदान बरसेंगें !
मिटाओ कुर्सी के अभिशाप को !!

देते हैं शुभकामनाएं आप को !
लगा दो झाड़ू सारे पाप को !!


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Monday, February 27, 2017

21वीं सदी की बेटी...............आकांक्षा यादव


जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वेैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने
पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।
-आकांक्षा यादव

Sunday, February 26, 2017

ख्वाब है दीवाने का....फानी बदायूनी

न इब्तिदा की खबर है, न इंतेहा मालूम
रहा ये वहम कि हम हैं, सो ये भी क्या मालूम!

हर नफ़्स, उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मैयत फानी
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिए जाने का

मौत आने तक न आये, अब जो आए हो तो हाय
ज़िन्दगी मुश्किल ही थी, मरना भी मुश्किल हो गया

दिल-ए-मरहूम को खुदा बख्शे
एक ही ग़म-गुसार था, न रहा

एक मोअम्मा है, समझने का न समझाने का
ज़िन्दगी काहे को है ख्वाब है दीवाने का
-फानी बदायूनी 

Saturday, February 25, 2017

शब्दों का इन्तज़ार.....अमरजीत कौंके



शब्द जब मेरे पास नहीं होते
मैं भी नहीं बुलाता उन्हें
दूर जाने देता हूँ
अदृश्य सीमाओं तक
उन्हें परिंदे बन कर
धीरे-धीरे
अनंत आकाश में
लुप्त होते देखता हूँ
नहीं !
जबरन बाँध कर
नहीं रखता मैं शब्द
डोरियों से
जंज़ीरों में
पिंजरों में कैद करके
नहीं रखता मैं शब्द
मन को
खाली हो जाने देता हूँ
सूने क्षितिज की भाँति
कितनी बार
अपनी ख़ामोशी को
अपने भीतर गिर कर
टूटते हुए
देखता हूँ मैं
लेकिन इस टूटन को
अर्थ देने केलिए
शब्दों की मिन्नत  नहीं करता
टूटने देता हूँ
चटखने देता हूँ
ख़ामोशी को अपने भीतर
मालूम होता है मुझे
कि कहीं भी चले जाएँ चाहे
अनंत सीमाओं में
अदृश्य दिशाओं में
शब्द
आख़िर लौट कर आएँगे
ये मेरे पास एक दिन
आएँगे
मेरे कवि-मन के आँगन में
मरूस्थल बनी
मेरे मन की धरा पर
बरसेंगे रिमझिम
भर देंगे
सोंधी महक से मन
कहीं भी हों
शब्द चाहे
दूर
बहुत दूर
लेकिन फिर भी
शब्दों के इन्तज़ार में
भरा-भरा रहता
अंत का खाली मन 
-अमरजीत कौंके 

pratimaan@yahoo.co.in

Friday, February 24, 2017

‘ख़ाली पन्ना’....वीणा भाटिया


किताब को पलटते हुए
यकायक ख़ाली पन्ना

बीच में आ गया
प्रिंटिंग की भूल थी
भूल जैसी लगी नहीं
चौंका गया
सुखद अहसास भी दे गया
ख़ाली पन्ना
चुटकी बजा कर जगा गया
ख़ाली पन्ना

चुनौती की तरह हाज़िर हो
सवाल करता
क्या सोच रहे थे ?
आगे क्या सोचा है ?
क्या लक्ष्य है ?
वो सारे सवाल पूछता है
ख़ाली पन्ना

जिनसे हम बचते-बचाते
चाहते हैं निकलना
ना कोई मैदान आए
ना राहों की हक़ीक़त
ना क़दमों की रफ़्तार
ना ही कोई सफ़े का आईना
जो सच पूछे हमसे
ख़ाली पन्ना
मानो…
ट्रेन सरपट भाग रही
पहाड़ों के घने जंगलों का नज़ारा
हरी-घनी छाँव को ठेलता पीला सूरज
बारिश की धूप वाली गर्माहट
सब दिखाता
ख़ाली पन्ना

भरे पन्नों में केवल
हाशिए तलाशे जा सकते हैं
ख़ाली सफ़ों में बड़ी गुंजाइश है
समझाता ख़ाली पन्ना

अंतराल के बाद
सोचने की चुनौती लेकर आया
ख़ाली पन्ना
प्रिंटिंग की भूल नहीं
खुले आसमान का निमंत्रण लगा
ख़ाली पन्ना।
-वीणा भाटिया

Email- vinabhatia4@gmail.com

Thursday, February 23, 2017

प्यार..........डॉ छवि निगम














हाँ भूल चुकी हूँ तुम्हें
पूरी तरह से
वैसे ही
जैसे भूल जाया करते हैं बारहखड़ी
तेरह का पहाड़ा
जैसे पहली गुल्लक फूटने पर रोना
फिर मुस्काना
घुटनों पर आई पहली रगड़
गालों पे पहली लाली का आना
तितली के पंखों की हथेली पर छुअन
टिफिन के पराठों का अचार रसा स्वाद
वो पहली पहल शर्माना..
पर जाने क्यों
बेख़याली में कभी
दुआओं में मेरी
एक नाम चोरी से चला आता है चुपचाप
घुसपैठिया कहीं का!

-डॉ छवि निगम

Wednesday, February 22, 2017

रवायत नई, अब समझने लगे हैं...स्वप्नेश चौहान

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मुखौटे एक-एक कर उतरने लगे हैं,
ओ दुनिया तुम्हें हम समझने लगे हैं।

आँखों में अदावत और हाथों का मिलना,
रवायत नई, अब समझने लगे हैं।

बेतकल्लुफ़ी से मिलते थे सब,
अब पहले मिज़ाज परखने लगे हैं।

नई फिज़ा है निज़ाम की अब,
सच बोलने वाले सब खटकने लगे हैं।

भटकते थे पहले अंधेरे में लोग,
अब चकाचौंध में राह भटकने लगे हैं।

Tuesday, February 21, 2017

‘वो जो है ख़्वाब सा…......सय्यदैन ज़ैदी ’













वो जो है ख्वाब सा
ख़याल सा
धड़कन सा
सिरहन सा
सोंधी खुशबू सा
नर्म हवाओं सा
सर्द झोकों सा
मद्धम सी रौशनी सा
लहराती सी बर्क़ सा
बिस्तर की सिलवटों सा
बाहों में लिपटे तकिए सा
जिस्म की बेतरतीब चादर सा
सुबहों की ख़ुमारी सा
शाम की बेक़रारी सा
सरकती सी रात सा
ठहरी सी दोपहर सा
काश कभी मिल जाए
वहां उस ओट के पीछे
भींगते पीपल के नीचे
कुछ सूखा सा
कुछ कुछ गीला सा
बस जरा सा...
इतना सा...
-सय्यदैन ज़ैदी 


Monday, February 20, 2017

हमेशा ही रहेगा फायदे में....अज्ञात


चला इक दिन जो घर से पान खा कर 
तो थूका रेल की खिड़की से आकर

मगर जोशे हवा से चंद छींटे 
पड़े रुखसार पे इक नाजनीन के

हुई आपे से वो फ़ौरन ही बाहर
लगी कहने अबे ओ खुश्क बन्दर

ज़बान को रख तू मुंह के दाएरे में 
हमेशा ही रहेगा फायदे में

बहाने पान के मत छेड़ ऐसे 
यही अच्छा है मुझ से दूर रह ले 

तेरी सूरत तो है शोराफा के जैसी 
तबियत है मगर मक्कार वहशी 

कहा मैं ने कहानी कुछ भी बुन लें 
मगर मोहतरमा मेरी बात सुन लें

खुदा के वास्ते कुछ खौफ खाएं 
ज़रा सी बात इतनी न बढ़ाएं

नहीं अच्छा है इतना पछताना 
मुझे बस एक मौका देदो जाना

ज़बान को अपनी खुद से काट लूँगा
जहां थूका है उस को चाट लूंगा

शाय़र : अज्ञात

रुखसार : गाल , शोराफा : शरीफों

Sunday, February 19, 2017

हाँ मैं प्रवासी हूँ …मंजू मिश्रा


हाँ 
मैं प्रवासी हूँ 
शायद इसी लिए
जानता हूँ
कि मेरे देश की
माटी में
उगते हैं रिश्ते 
*
बढ़ते हैं
प्यार की धूप में
जिन्हें बाँध कर
हम साथ ले जाते हैं
धरोहर की तरह
और पोसते हैं उनको
कलेजे से लगाकर 
*
क्योंकि घर के बाहर
हमें धन, वैभव,
यश और सम्मान
सब मिलता है,
नहीं मिलती तो
रिश्तों की
वो गुड़ सी मिठास
जो अनगढ़ भले ही हो
लेकिन होती
बहुत अनमोल है 
*
हाँ मैं प्रवासी हूँ
-मंजू मिश्रा

Saturday, February 18, 2017

बादशाह पर जुर्माना...डॉ. रश्मि शील

एक बार रात्रि के समय बादशाह औरंगज़ेब सोने ही जा रहे थे कि शाही घंटी बज उठी। बादशाह शयनकक्ष से बाहर आये। उन्हें एक दासी आती दिखाई दी। वह बोली, ''हुज़ूरे आलम! क़ाज़ी साहब आलमपनाह से मिलने के लिए दीवान खाने में तशरीफ़ लाये हैं और आपका इन्तज़ार कर रहे हैं।"
औरंगज़ेब फ़ौरन दीवानखाने पहुँचे। क़ाज़ी ने उन्हें बताया, "जहांपनाह, गुजरात जिले के अहमदाबाद शहर के एक मुहम्मद मोहसीन ने उन पर पाँच लाख रुपयों का दावा ठोंका है। अतः कल आपको दरबार में हाज़िर होना होगा।" क़ाज़ी के चले जाने पर औरंगज़ेब विचार करने लगा कि उसने तो किसी से पाँच लाख रुपए उधार नहीं लिए हैं। स्मरण करने पर भी उसे याद नहीं आया। इतना ही नहीं, मुहम्मद मोहसीन नामक व्यक्ति को भी वह न पहचानता था।
दूसरे दिन दरबार लगा और मुज़रिम के रूप में औरंगज़ेब हाज़िर हुआ। सारा दरबार खचाखच भरा हुआ था और तिल रखने को भी जगह न थी। औरंगज़ेब को उसके जुर्म का ब्यौरा पढ़कर सुनाया गया।
बात यह थी कि औरंगज़ेब के भाई मुराद को गुजरात जिला सौंपा गया था। शाहजहां जब बीमार पड़ा तो उसने स्वयं को ही गुजरात का शासक घोषित कर दिया। उसे स्वयं के नाम के सिक्के जारी करने के लिए धन की ज़रूरत हुई तब उसने मुहम्मद मोहसीन से पाँच लाख रुपए उधार लिए थे। इस बीच औरंगज़ेब ने हिकमत करके शाहजहां को क़ैद कर लिया तथा अपने तीनो भाइयों- मुराद, दारा और शुजा को क़त्ल कर उन तीनो की संपत्ति अपने ख़ज़ाने में जमा कर ली। इस तरह मोहसीन से लिया गया धन भी उसके ख़ज़ाने में जमा हो गया।
औरंगज़ेब ने अपने अपराध के प्रति अनभिज्ञता ज़ाहिर की। मोहसीन ने अपने पास मौज़ूद दस्तावेज़ दिखाया। औरंगज़ेब ने जुर्म क़ुबूल कर लिया और शाही ख़ज़ाने से पाँच लाख रुपए निकलवा कर जुर्माना अदा किया।


-डॉ. रश्मि शील

Friday, February 17, 2017

और क्या चाहिये बसर के लिये.........ऋतु कौशिक

चल पड़े हम उसी सफ़र के लिये
वो ही मंज़िल उसी डगर के लिये

जिसके साये में मिट गई थी थकन
मैं हूँ बेताब उसी शजर के लिये

चंद रिश्ते दिलों के थोड़ी ख़ुशी 
और क्या चाहिये बसर के लिये

पक के गिरने की राह देखी सदा
पास पत्थर तो था समर के लिये

हर जगह रोशनी हुई है मगर
शब अँधेरी है खँडहर के लिये।


-ऋतु कौशिक

ritukaushiktanu@gmail.com

Thursday, February 16, 2017

मग़रूर तेरी राहें.....मनजीत कौर


मग़रूर तेरी राहें
किस तौर फिर निबाहें

मशगूल तुम हुए हो
महरूम मेरी चाहें

तुम पास गर जो होते
महफूज़ थीं फ़िज़ाएँ

किससे गिला करें अब
मायूस मेरी आहें

बदली है चाह इनमें
मख़्मूर जो निगाहें

तुम जो जुदा हुए हो
महदूद मेरी राहें

टूटा हुआ ये दिल है
तस्की इसे दिलाएँ।

-मनजीत कौर

Wednesday, February 15, 2017

Conversion of Rice straw into houses

आज कोई कविता नहीं पर एक वीडियो शेयर करना चाहती हूँ
जिसमें यह बताया गया है कि
धान के पौधे से धान अलग करने के पश्चात
जो पैरा बचता है वह अपने यहाँ पशु आहार के रूप में उपयोग में लाते है
पर विदेशों में इसका उपयोग कुछ इस तरह से किया जाता है
कृपया देखें...

Conversion of Rice straw into houses

Tuesday, February 14, 2017

तुम भी न बस कमाल हो....डॉ. जेन्नी शबनम
















धत्त! 
तुम भी न 
बस कमाल हो! 
न सोचते 
न विचारते 
सीधे-सीधे कह देते 
जो भी मन में आए 
चाहे प्रेम 
या ग़ुस्सा 
और नाराज़ भी तो बिना बात ही होते हो 
जबकि जानते हो 
मनाना भी तुम्हें ही पड़ेगा 
और ये भी कि 
हमारी ज़िन्दगी का दायरा 
बस तुम तक 
और तुम्हारा 
बस मुझ तक 
फिर भी अटपटा लगता है 
जब सबके सामने 
तुम कुछ भी कह देते हो 
तुम भी न 
बस कमाल हो!
-डॉ. जेन्नी शबनम
jenny.shabnam@gmail.com

Monday, February 13, 2017

फागुन.... संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'



पहाड़ों पर टेसू ने रंग बिखेरे फागुन में 
हर कदम पर बज रहे ढोल फागुन में
ढोल की थाप पे थिरकते पैर फागुन में
महुआ लगे झुमने गीत सुनाए फागुन में  

बिन पानी खिल जाते टेसू फागुन में 
पानी संग मिल रंग लाते टेसू फागुन में 
रंगों के खेल हो जाते शुरू फागुन में 
दुश्मनी छोड़ दोस्ती के मेल होते फागुन में  

शरमाते जाते हैं सब मौसम फागुन में 
मांग ले जाते प्रेमी कुछ प्यार फागुन में 
हर चहरे पर आ जाती खुशहाली फागुन में 
भगोरिया के नृत्य लुभा जाते फागुन में  

बांसुरी, घुंघरू के संग गीत सुनती फागुन में 
ताड़ों के पेड़ों से बन जाते रिश्ते फागुन में 
शकर के हर-कंगन बन जाते मेहमां फागुन में 
पहाड़ों की सचाई हमसे होती रूबरू फागुन में  

-संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

Sunday, February 12, 2017

वृद्धाश्रम‌....प्रभुदयाल श्रीवास्तव



दुर्बल-निर्बल जेठे-स्याने,
वृद्धाश्रम में रहते क्यों हैं?
दूर हुए क्यों परिवारों से,
दु:ख तकलीफें सहते क्यों हैं?  

इनके बेटे, पोते, नाती,
घर में पड़े ऐश करते हैं,
और जमाने की तकलीफें,
ये बेचारे सहते क्यों हैं?  

इन सबने बच्चों को पाला,
यथायोग्य शिक्षा दी है,
ये मजबूत किले थे घर के,
टूट-टूट अब ढहते क्यों हैं?  

इसका उत्तर सीधा-सादा,
पश्चिम का भारत आना है,
पश्चिम ने तो मात-पिता को,
केवल एक वस्तु माना है। 

चीज पुरानी हो जाने पर,
उसको बाहर कर देते हैं,
इसी तरह से मात-पिता को,
वृद्धाश्रम में धर देते हैं।  

-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Saturday, February 11, 2017

वो चूल्हा.............शबनम शर्मा










घर में दूध की ज़रूरत 
रात का समय 
सोचा घूम भी आऊँ
व जुम्मन काका के 
घर से ले आऊँ लोटा भर दूध, 

पहुँची वहाँ, खटखटाया बाहर 
का दरवाज़ा, 
छोटी बालिका ने खोला, 
लिवा गई मुझे अन्दर 
बड़े से आँगन में,
देख मुझे जुम्मन काका खड़े हुए 
कारण पूछ आने का, कर 
इशारा बेगम को मेरे पास 
बैठ गये 

हैरान थी मैं देख, 
सब बैठे थे चूल्हे के इर्द-गिर्द,
बच्चे चबा रहे थे दाने, 
भून रहे थे आलू, 
बुजुर्ग सेंक रहे थे आग, 
पर सब ख़ुश,
बतिया रहे थे, 
कि इक ख़्याल ने मुझे 
झकझोर दिया, 

कितनी ताक़त है इस 
चूल्हे में,
इसने जोड़ा है मुन्नी 
से दादा तक इक ही 
डोर में सबको।
-शबनम शर्मा
shabnamsharma2006@yahoo.co.in

Friday, February 10, 2017

भौंरे गाते हैं नया गान...कवि सोहनलाल द्विवेदी


आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौंरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत। 

-कवि सोहनलाल द्विवेदी 

Thursday, February 9, 2017

कभी कभी बहुत अच्छा लगता है...निधि सक्सेना

Image result for पहाड़ी नदी
कभी कभी अच्छा लगता है
उस नदी को देखना
जो बही जा रही हो किनारे तोड़
उद्दाम 
रौद्र 
प्रचंड
बेलौस
बगैर किसी आशंका
बगैर किसी धारणा के!!
निर्बाध निर्भीक
परम्पराएँ ढहाती
हर व्यवस्था भंग करती
अपनी धारायें स्वयं बनाती!!
कभी कभी अच्छा लगता है
उसका यूँ जता देना
कि मेरी सहृदयता का अनुचित लाभ न उठाओ
कि मेरा सम्मान करो
कि शक्तिस्तोत्र मैं हूँ
और तुम नगण्य!!
कि प्रार्थना मैं हूँ 
और तुम प्रार्थी !!
कि अंतिम निर्णायक मैं हूँ
और तुम मात्र दर्शक!!
और कभी कभी बहुत अच्छा लगता है
ऐसी किसी नदी में अपना बिम्ब तलाशना!!
~निधि~